रविवार, 18 सितंबर 2016

घर की चिंता नहीं पड़ोसी के लिए मियां हलकान





.. ऐसा सुनने में आया है कि अभी कुछ दिनों पूर्व माननीय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (या बल्कि यह कहा जाए कि अपने लगातार निर्भय बयानों के कारण चर्चा में रहने वाले मुख्य न्यायाधीश ) श्री तीरथ सिंह ठाकुर की मुलाकात प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी से हुई थी और उन दोनों के बीच लगभग एक  घंटे तक औपचारिक अनौपचारिक बातचीत हुई ||चलिए अच्छा है कम से कम इस बहाने सार्वजनिक पदों पर बैठे दो शीर्ष व्यक्तियों को आपस में विचार व समस्याएं साझा करने का सुअवसर मिला होगा ।।

जैसा कि सबको विदित है कि वर्तमान मुख्य न्यायाधीश श्री टीएस ठाकुर अपने शुरुआती दिनों से ही बड़ी मुखरता से न्यायपालिका की एक प्रमुख समस्या ,जो की लंबित मुकदमों का बढ़ता ढेर व् उसका निस्तारण है, को रेखांकित करते रहे हैं || इतना ही नहीं समय समय पर अपने सार्वजनिक संबोधन में वे  सरकार व उनके नीति निर्धारकों को ,इस बात के लिए, निशाने पर लेते रहे हैं कि न्यायपालिका पर लंबित मुकदमों के बोझ के लिए कहीं ना कहीं किसी हद तक पर्याप्त संख्या में अदालतों व न्यायाधीशों का नहीं होना ही है||

वह बार-बार इस बात को कहते रहे हैं कि पश्चिमी देशों की तुलना में भारतीय न्यायिक परिक्षेत्र में प्रति व्यक्ति न्यायाधीशों का जो पैमाना होना चाहिए ,अनुपात उससे कहीं ज्यादा ही कम है || अभी इस बात कोकहते हुए वे अपनी नाराजगी और व्यथा को सार्वजनिक रूप  से जाहिर भी कर चुके  हैं कि लाल किले से अपने सार्वजनिक भाषण के दौरान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस समस्या को प्रमुखता से नहीं उठाया ना ही इसकी कहीं चर्चा की||
किंतु इस परिप्रेक्ष में एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि आज वर्तमान में कार्यरत न्यायालय वह न्यायाधीश कार्यप्रणाली भ्रष्टाचार व अनेक तरह की अनियमितताओं के भंवर चक्र में इस तरह से फंसे देखते हैं कि न्याय प्रशासन पूरी तरह से चरमरा ऐसा दिखता है कभी देश के अग्र संचालक वर्ग में अपना स्थान बनाने वाले अधिवक्ता गण भी आज वाद विवाद हिंसक होकर बहुत बार अनावश्यक वह अति उग्र प्रदर्शन करते हैं यह किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जा सकता है

प्रशासनिक व्यवस्थाओं प्रशासनिक कार्य क्रियाकलापों में सालों से वही ढिलाई सालों से वही ढीले ढाले रवैया पर का किया जा रहा है कहीं किसी सुधार की कोई बात या गुंजाइश नहीं दीख  पड़ती है || पिछले दिनों अंतरजाल व उस पर लोगों की पहुंच ने जरूर इसमें थोड़ा सा अंतर कम किया है किंतु फिर भी यह भारत जैसे देश जहां पर बहुत सारी आबादी निरक्षर निर्धन व निर्मल है तथा अंतरजाल तो दूर इंटरनेट तो दूर वह रोटी कपड़ा वह दवाई शिक्षा के लिए मोहताज है उन तक न्याय को सुलभ सस्ता बनाने के लिए बहुत बड़े वह दिल प्रयास किए जाने जरूरी है ||

न्यायपालिका पर एक आरोप यह भी लगता रहा है कि वह अति सक्रियता दिखाते हुए अनावश्यक हस्तक्षेप करती है कभी विधायिका में तो कभी कार्यपालिका में जबकि न्यायपालिका का स्पष्टीकरण इस पर यह है कि उसे मजबूरी में अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाध्य होना ही पड़ता है क्योंकि यह दोनों निकाय अपने दायित्व निर्वहन में  या विफल हो जाते हैं||


ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू जब सर्वोच्च न्यायालय में पदस्थापित न्यायाधीशों के लिए कहते हैं कि उनकी समझ योग्यता के अनुरूप नहीं और जो सभी उन न्यायमूर्तियों के स्थान पर बैठे वाला प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ इसलिए नहीं वहां बैठा क्योंकि योग्य बल्कि वरिष्ठता या किन्ही और कारणों से हैं | और जब कोई इतना महत्वपूर्ण व्यक्ति ऐसा कह रहा है निसंदेह और अविलम्ब इसके पीछे के कारणों पर स्वयं न्यायपालिका और उससे सम्बद्ध सभी को मंथन व् विश्लेषण करना होगा | देश समाज की चिंता से पहले आतंरिक व्यवस्थाओं को दुरुस्त किया जाना चाहिए वो ज्यादा जूररी है

10 टिप्‍पणियां:

  1. सही बात है। स्वविवेक से फैसले भी जज ले सकते हैं। अभी याद आ रहा है की इटली में निचली अदालत के एक आदेश के बाद जो जांच शुरू हुई उसने केंद्र सरकार को गिरा दिया। यहां होना नामुमकिन नहीं है, पर हो नहीं पाता। हाँ उम्मीद की कई किरणे कई बार दिखती है न्यायपालिका से। जनता भी कुछ जागृत हुई है। 10 साल में जनता भी प्रतिक्रिया करने लगी है। हाल का जी न्यायालय का फैसला जनता को मंज़ूर नहीं हुआ और ऑनलाइन नेताओं की आलोचनाओं ने बिहार के आतंक सहाबुद्दीन मामले में सरकार को दुबारा अदालत जाने को मज़बूर किया है।

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    1. विस्तार से प्रतिक्रिया देने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया और आभार रोहिताश जी हाँ सच कहा आपने कि अब हालात बहुत बदल रहे हैं

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "छोटा शहर, सिसकती कला और १४५० वीं ब्लॉग बुलेटिन“ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. न्याय व्यवस्थाको सुधारने के लिए सिर्फ बातें होती हैं और मामले इतने दशकों तक लंबित होते हैं कि पीड़ित धन और जन दोनों खोकर खुद खत्म हो जाता है ।

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    1. हाँ मैंने भी सच में यही महसूस किया है अपने कार्यकाल के दौरान भी और स्थिति बहुत ही दयनीय है |

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  4. सच पहले अपने घर चाक चौबंद करना चाहिए तब बात में बाहर देखना चाहिए ..
    जागरूक प्रस्तुति

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  5. यह हमारे लोकतंत्र की कमजोरी ही है कि आजादी के इतने सालों बाद भी हम तिव्र और सही न्याय व्यवस्था स्थापित नहीं कर पाएं। इसिलिए कई बार जनता खुद कानून अपने हाथ में ले लेती है, जो किसी भी लोकतंंत्र के लिए उचित नहीं है।

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