शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

उम्र और अपराध पर न्यायिक विमर्श



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मेरे इस प्रश्न पर         विधिक शास्त्रार्थ की प्रक्रिया माननीय उच्चतम न्यायालय में प्रारंभ हो चुकी है । हालांकि सुनवाई में न्यायालय ने ये तो फ़िलहाल स्पष्ट कर ही दिया है कि इस मामले में वसंत विहार बलात्कार कांड में सज़ा भुगत रहे किशोर की सज़ा और मुकदमे पर विचार नहीं किया जाएगा ।


वास्तव में विधि को विभिन्न आयामों में परिभषित करने का गौरवपूर्ण कार्य सिर्फ़ सर्वोच्च न्यायालय के जिम्मे होता है । समाज के परिवर्तित हो रहे रूप से निकलने वाले बदलावों को सभ्यता के लिए उचित अनुचित की कसौटी पर कसकर उन्हें अपनाए जाने या ठुकराए जाने का विधिक प्रमाणपत्र जारी करता है सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला । अभी हाल ही में ऐसे दो बडे सामाजिक बदलावों की मान्यता के लिए उसे न्यायपालिका की कसौटी पर कसने का प्रयास किया गया था । जहां लिव-इन-रिलेशनशिप को वैधानिक दर्ज़ा मिल गया वहीं समलैंगिकता प्रतिबंधित ही रही । 


कानून के छात्र के रूप में जब भारतीय दंड संहिता , अपराधशास्त्र एवं दंड प्रशासन को पढते हुए "किशोर और अपराध" को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है ।कानून में "किशोर अपराध" को पढते हुए एक सबसे अहम बात ये समझ आई कि जहां उसके किशोर वय को  परिभाषित करने के लिए उसकी आयुमात्र को आधार माना गया है वहीं जब उसके अपराध निर्धारण का निर्णय किया जाता है तो उसमें आधार बनता है किए गए अपराध और उसके फ़लस्वरूप घटने वाले परिणाम के बारे में अपराध करने वाले किशोर की समझ । 

वर्तमान कानूनी स्थिति ऐसी है कि सात वर्ष से कम आयु के शिशु द्वारा किया गया अपराध उस शिशु के लिए दंडनीय नहीं नाना जाता है क्योंकि उस आयु तक शिशु की समझ सामान्यतया अपराध के रूप में अपने कृत्य की समझने , लायक मानसिक परिपक्वता नहीं होती है । सात से बारह वर्ष की आयु के किशोरों द्वारा कारित कृत्य भी अपराध नहीं माना जाएगा । यदि कारित कृत्य के प्रति उस किशोर की समझ मानसिक अपरिपक्वता प्रमाणित हो जाए । 7 से 12 वर्ष के बीच के केवल उन बालकों को संरक्षण के योग्य माना जाना चाहिए जिनका बौद्धिक स्तर अपवाद स्वरूप रूप से अपरिपक्व है । 

वर्ष 2000 के नए व वर्तमान में लागू नवीन किशोर न्याय (बालकों की देखरेख एवं संरक्षण ) अधिनियम के पारित हो जाने के परिणाम स्वरूप बालक और बालिकाएं दोनों ही किशोर माने जाने की आयु 18 वर्ष कर दी गई जबकि इसके पूर्व यह आयु बालकों के लिए 16 वर्ष तथा बालिकाओं के लिए 18 वर्ष थी । इसका एक त्वरित परिणाम ये निकला कि वर्ष 2001-2002 में किशोर अपराध के आंकडे में अचानक ही 14 % की वृद्धि दर्ज़ की गई । यानि स्पष्ट था कि उम्र सीमा बढाने अपराध और अपराधियों की संख्या में ईज़ाफ़ा देखने को मिला था ।

जहां तक न्यायपालिका द्वारा इस उम्र और अपराध पर न्यायिक दृष्टिकोण स्पष्ट करने की बात है तो ये कोई पहला अवसर नहीं है जब न्यायपालिका के समक्ष ऐसी परिस्थितियां आई हैं कि जब उसे उम्र और अपराध या उम्र के साथ जुडे किसी सामाजिक प्रश्न को स्थापित और मानक विधिक नियमों कानूनों की कसौटी पर कसना होता है वो भी बिना उसके मानवीय पहलू और न्याय के प्रथम सिद्धांत कि "न्याय सिर्फ़ होना नहीं  चाहिए बल्कि न्याय होते हुए स्पष्टत: महसूस भी होना चाहिए । " की अनदेखी किए बगैर ।

तीन वर्ष पहले ही सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दिल्ली के एक स्कूली छात्र और छात्रा का ऐसा युगल सामने आया जिन्होंने आपसी सहमति से प्रेम विवाह कर लिया था , जबकि पुत्री के पिता द्वारा पुलिस में अपनी पुत्री के अपहरण आदि का मुकदमा दायर कर दिया था । इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले में दिए तर्कों के आधार पर उन दोनों अवयस्क युगल के विवाह को पूरी तरह कानूनी करार दिया । वास्तव में न्यायालय ने किशोरी की उम्र , मानसिक परिपक्वता , शारीरिक विकास और समझ आदि के आधार पर ये माना था कि चूंकि बालिका दिल्ली जैसे महानगर में पल बढ व शिक्षा पा रही है एवं ग्रामीण परिवेश की हम उम्र किसी बालिका से ज्यादा सजग व सचेत दिखाई जान पडती है । इस फ़ैसले पर उस समय कई सामाजिक संगठनों ने  असहमति भी जताई थी ।

अब देखना ये है कि वर्ष 2000 से लागू इस कानून पर न्यायपालिका का क्या रुख रहेगा , हमें ये भी ध्यान रखना होगा कि दामिनी बलात्कार कांड के बाद सरकार द्वारा उठाए गए कदमों में से एक और बहुत ही अहम , जस्टिस वर्मा कमेटी का गठन , उसकी अनुशंसा और उसमें किशोरों की उम्र सीमा में किसी भी तरह के फ़ेरबदल से इंकार का नज़रिया । बहरहाल जो भी हो , आंकडे बताते हैं कि किशोर अपराध के मामले में पश्चिमी देशों की स्थिति ज्यादा बुरी है ।