tag:blogger.com,1999:blog-57522754186701865522024-03-14T21:17:57.578+05:30कोर्ट कचहरीकोर्ट कचहरी की नियमित दिनचर्या के बीच काम करते एक कर्मचारी के अनुभवअजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.comBlogger95125tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-65170447166466618802024-01-01T16:03:00.000+05:302024-01-01T16:03:00.868+05:30बड़े न्यायिक सुधारों की कवायद<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjPjo9T73cmJpeUQOmkASLLXArW0_YFJFTA3oYTuiyV7XCBzoWk2sgx8HRC1cIpPnkfvbc1gqPyisAr_NS6la97eFbQ5nXAFPTCWmvBAxmg3KRbYt7prIYJMDJqde2kc71-qBYGkqiPsGvB2Op9fah3oAbSh208Kl6RlQkPF-0h0ehdpy5Hajusmm9OxJmf/s300/justice.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="237" data-original-width="300" height="276" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjPjo9T73cmJpeUQOmkASLLXArW0_YFJFTA3oYTuiyV7XCBzoWk2sgx8HRC1cIpPnkfvbc1gqPyisAr_NS6la97eFbQ5nXAFPTCWmvBAxmg3KRbYt7prIYJMDJqde2kc71-qBYGkqiPsGvB2Op9fah3oAbSh208Kl6RlQkPF-0h0ehdpy5Hajusmm9OxJmf/w350-h276/justice.jpg" width="350" /></a></div><br /><p style="text-align: center;"><br /></p><p><br /></p><p style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #222222; font-family: Muli; font-size: 17px; margin: 0px auto 26px; overflow-wrap: break-word;">पिछले कई वर्षों से न्यायिक प्रक्रियाओं तथा न्याय प्रशासन में परिवर्तन और सुधारों की कवायद में लगी केंद्र सरकार ने अब इस दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। हाल ही में समाप्त हुए संसद सत्र में तीन प्रमुख विधिक संहिताओं में वर्तमान परिदृश्य के अनुरूप नवीन परिवर्तन व सुधार के बाद , संशोधित करके सामयिक और परिमार्जित किया गया है। ज्ञात हो कि इन संहिताओं में परिवर्तन और सुधार की जरूरत बहुत सालों से महसूस की जा रही थी।</p><p style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #222222; font-family: Muli; font-size: 17px; margin: 0px auto 26px; overflow-wrap: break-word;">भारतीय दंड संहिता , दंड प्रक्रिया संहिता तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम – तीनों प्रमुख विधिक संहिताओं में वर्णित व्यवस्थाएं जो ब्रिटिशकालीन परिस्थितियों में बनाई व लागू की गई थीं। स्वतंत्रता के दशकों बाद तक औचित्यहीन होते जाने वाले बहुत से क़ानूनों को बदलने समाप्त किए जाने की जरूरत को पूरा करने के उद्देश्य से सरकार ने भारतीय न्याय संहिता , भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (प्रक्रिया संहिता ) , तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम को पारित कर दिया।</p><p style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #222222; font-family: Muli; font-size: 17px; margin: 0px auto 26px; overflow-wrap: break-word;"><strong style="box-sizing: border-box;">इन संहिताओं के परिमार्जन में सबसे अहम् जिस बात को रखा गया है वो है इसके प्रावधानों , व्यवस्थाओं और पूरी परिकल्पना वर्तमान परिस्थितयों परिवर्तनों के अनुरूप सामयिक और तार्किक किए जाएं। ब्रिटिशकालीन व्यवस्थाओं ,प्रक्रियाओं को परिष्कृत किया जाना विधि के शासन को बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है। स्वयं न्यायपालिका भी अपने समख विमर्श और मंतव्य के उद्देश्य से रखे हर प्रश्न को उसी सामयिक प्रासंगिकता और सामाजिक व्यवहार में हुए परिवर्तनों की कसौटी पर अनिवार्य रूप से परखती अवश्य है। </strong></p><p style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #222222; font-family: Muli; font-size: 17px; margin: 0px auto 26px; overflow-wrap: break-word;">प्रक्रिया से लेकर दंड प्रावधानों तक में परिवर्तन के बाद बहुत सी नवीन व्यवस्थाएं दी गई हैं , जैसे एक तरफ जहां अपराधों के लिए विशेषकर व्यक्ति समाज देश के विरुद्ध किए गए अपराधों में सज़ा को अधिक कठोर किया गया है वहीँ पहली बार अस्पताल , यातायात , सामुदायिक केंद्रों आदि में समाज सेवा या सामुदायिक सेवा का दायित्व दिया जाना को सुधारात्मक सजा विकल्प के रूप में शामिल किया गया है।</p><h4 style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: var(--td_text_color, #111111); font-family: Roboto, sans-serif; font-size: 19px; font-weight: 400; line-height: 29px; margin: 24px auto 14px;">भारतीय न्याय प्रक्रिया में समय से निर्णय न हो पाने के कारण “विलम्बित न्याय अन्याय के समान लगने लगता है ” की आलोचना झेलती ,भारतीय न्यायिक प्रक्रियाओं को थोड़ा अधिक समयबद्ध करके विधिक प्रक्रियाओं को अधिक तीव्र और प्रभावी बनाने के लिए परिवर्तित संहिता में काफी नई व्यवस्थाएं की गई हैं। अपराध के कारित होने से लेकर , प्राथमिकी , अन्वेषण ,अभियोग के अतिरिक्त वादों के निर्णय/आदेश पारित करने के लिए भी निश्चित व पर्याप्त समय सीमा तय कर दी गई है।</h4><p style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #222222; font-family: Muli; font-size: 17px; margin: 0px auto 26px; overflow-wrap: break-word;">किसी भी परिवार ,समाज देश की शान्ति , सद्भाव और सबसे जरूरी सुरक्षा के लिए आवश्यक तत्व -विधि का शासन। यानि समाज सम्मत नीति नियमों का अनुपालन। अपराध संहिता में पहली बार आतंकवाद की व्याख्या को व्यापक करके समाहित किया गया है। देश की आर्थिक सुरक्षा को क्षति पहुंचाने का कार्य , भारतीय मुद्रा की नक़ल आदि से क्षति आदि को भी दायरे में लाया गया है।</p><p style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #222222; font-family: Muli; font-size: 17px; margin: 0px auto 26px; overflow-wrap: break-word;">महिलाओं और बच्चों के प्रति अपराध करने वालों पर और अधिक दृढ़ कठोर होकर ऐसे अपराधों को अधिक जघन्य मान कर दंड अधिक कठोर और इन अपराधों में अभियोजन , कार्रवाई को तीव्र करने विषयक परिवर्तन समायोजित किए हैं। पिछले दिनों आवेश में उन्मादी भीड़ द्वारा पीट पीट कर की गई हत्याओं -मॉब लॉन्चिंग को भी बर्बर अपराध मानकर अधिकतम दंड -मृत्यदण्ड देने का प्रावधान किया गया है। साक्ष्य अधिनियमों में बुनियादी सुधार करते हुए सभी उन्नत तकनीकों के उपयोग और वैज्ञानिक परिणामों को विधिक मान्यता देने विषयक संशोधन भी किए गए हैं।</p><h5 style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: var(--td_text_color, #111111); font-family: Roboto, sans-serif; font-size: 17px; font-weight: 400; line-height: 25px; margin: 21px auto 11px;"><em style="box-sizing: border-box;"><strong style="box-sizing: border-box;">ज्ञात हो कि वर्तमान केंद्र सरकार शुरू से ही भारतीय न्याय व्यवस्था , न्याय प्रशासन तथा न्यायिक प्रक्रियाओं में सामयिक सुधारों की प्रबल पक्षधर रही है यही कारण है कि वर्तमान सरकार के संसद सत्रों में सर्वाधिक अधिनियम कानून बनाए जाने , पारित करके लागू किए जाने के रिकार्ड बने , नीतियां बानी तथा अनुसंधान अन्वेषण से निरंतर सुधर की कोशिश की जाती रही है / विधिक व्यवस्थाओं प्रक्रियाओं व संहिताओं में परिशोधन , परिवर्तन नवीनीकरण जैसे दुरूह /दुष्कर दायित्व को वहां करने की पहल करने के लिए सरकार साधुवाद की पात्र है।</strong></em></h5>अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-28299333263039013252022-11-08T08:28:00.000+05:302022-11-08T08:28:04.154+05:30केंद्र सरकार लाएगी :समान नागरिक संहिता कानून : विधि आयोग का गठन <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpjwoNyjN31yZmVUdSLGBfdfsePMw9bGj5y8tUYoRJKtPgEHJU_MnmIEYtSymH77yGRx-9P8iXyADSkBLzmU1_pK-Bcg_2Xrg2fN-u-gw0nntVnVIoMtExYN292Bs7sD6I8UF2P52PRSGjsssgRK_nUzYpP6hlElQ8OvkUCl_s0Q-GVJwb1inL-TAe1g/s1199/Screenshot_20221107_222941_LiveLaw.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="862" data-original-width="1199" height="350" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpjwoNyjN31yZmVUdSLGBfdfsePMw9bGj5y8tUYoRJKtPgEHJU_MnmIEYtSymH77yGRx-9P8iXyADSkBLzmU1_pK-Bcg_2Xrg2fN-u-gw0nntVnVIoMtExYN292Bs7sD6I8UF2P52PRSGjsssgRK_nUzYpP6hlElQ8OvkUCl_s0Q-GVJwb1inL-TAe1g/w487-h350/Screenshot_20221107_222941_LiveLaw.jpg" width="487" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><p>केंद्र सरकार ने जल्दी ही पूरे देश के लिए समान नागरिक संहिता यानि UCC Uniform Civil Code , को लाने की तैयारी में है । ज्ञात हो कि अभी कुछ राज्यों में होने जा रहे विधान सभा चुनावों से पहले ही भाजपा शासित राज्यों ने गुजरात , हिमाचल आदि ने बाकायदा घोषणा पत्र में इस बात का संकल्प लिया है । </p><p>इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए कल सरकार ने नए विधि आयोग का गठन कर दिया ।विदित हो कि , विधि आयोग का गठन 4वर्षों के बाद किया गया है व कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति श्री आर आर अवस्थी को विधि आयोग का अध्यक्ष बनाया गया है । </p></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKi4oJ8iy9ZmHzTgRQVGRdnYO8ut8_It1TTqLWUnja2O1nciZBPL8ZcvxND7FRNnPU54-Y4WWWmJmQtV_YThfj3n3kYdNAmmnOqgL2_HkESsMsLR1nY5eC88dGcwWB5iBc7Uv6w5U1sjtD_GsJz6jIBQ-rg4UYogd84wISsL2q3aD55lFPmvUq39ksnQ/s1396/Screenshot_20221107_223227_LiveLaw.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1396" data-original-width="1173" height="536" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKi4oJ8iy9ZmHzTgRQVGRdnYO8ut8_It1TTqLWUnja2O1nciZBPL8ZcvxND7FRNnPU54-Y4WWWmJmQtV_YThfj3n3kYdNAmmnOqgL2_HkESsMsLR1nY5eC88dGcwWB5iBc7Uv6w5U1sjtD_GsJz6jIBQ-rg4UYogd84wISsL2q3aD55lFPmvUq39ksnQ/w451-h536/Screenshot_20221107_223227_LiveLaw.jpg" width="451" /></a></div><br /><p>विधि आयोग का गठन पिछले चार वर्षों से लंबित था । श्री अवस्थी को अध्यक्ष बनाए जाने के अतिरिक्त न्यायमूर्ति के टी संकरन, प्रोफेसर आनंद पालीवाल , प्रोफेसर रेखा आर्य ततहा एम करुणानिधि को सदस्य के रूप में नामित किया गया है । </p><p><br /></p><p>केंद्र सरकार ने विधि आयोग के गठन के लिए दायर जनहित याचिका के उत्तर में अदालत को बताया था कि जल्दी ही विधि आयोग का गठन कर , समान नागरिक संहिता का मामला विधि आयोग के पटल पर रखा जाएगा । </p><p><br /></p><p><br /></p>अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-46712880434195268012020-04-28T20:52:00.000+05:302020-04-28T20:52:27.547+05:30नहीं कम होगी मुकदमों के निस्तारण की रफ़्तार <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgeXVg6g6RwOUjEIWU_KwafloSE9c1jF0z1C-9vZmsRtXOWhAs6OzVme45QXswz7ap4-DaXXk9miLXzekzFaR8iPD5vqKz_-F3I0vSP5CMzq-A-DH9ZEnD93y6Hkncw09T9rlAGzEePvCC4/s1600/justice.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="237" data-original-width="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgeXVg6g6RwOUjEIWU_KwafloSE9c1jF0z1C-9vZmsRtXOWhAs6OzVme45QXswz7ap4-DaXXk9miLXzekzFaR8iPD5vqKz_-F3I0vSP5CMzq-A-DH9ZEnD93y6Hkncw09T9rlAGzEePvCC4/s1600/justice.jpg" /></a></div>
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देश के अन्य सरकारी संस्थानों की तरह ही देश की सारी विधिक संस्थाएं ,अदालत , अधिकरण आदि भी इस वक्त थम सी गई हैं। हालाँकि सभी अदालतों में अत्यंत जरूरी मामलों की सुनवाई के लिए बहुत से वैकल्पिक उपाय किये गए और वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिये उनमें सुनवाई करके आदेश जारी भी किये जा रहे हैं। ऐसे ही बहुत सारे आदेश कोरोना टेस्ट किट और उनके मूल्य के निर्धारण आदि मामलों में दिए भी गए हैं। </div>
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किन्तु आम जन और विशेषकर अदालतों में अपने लंबित मुकदमों मामलों के सभी पक्षकार इस बात से जरूर चिंतित और जिज्ञासु होंगे कि ऐसे में जब पूरे लगभग दो माह का समय ऐसा निकल गया है जब उनके मामलों की सुनवाई नहीं हुई तो इससे उनके मामलों पर क्या और कितना असर पडेगा। </div>
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<b>पहले बात करते हैं उन मामलों की जो अदालतों में लंबित थे और जिन पर सुनवाई जारी थी तो सभी अदालतों ने तदर्थ और अंतरिम व्यवस्था देते हुए सभी लंबित मामलों को एक चरणबद्ध व नियोजित तरीके से इस प्रकार स्थगन दिया है कि सभी मुकदमों को सिर्फ और सिर्फ एक तारीख के लिए टाला गया है ठीक उस स्थिति जैसे जब अदालत के पीठासीन अधिकारी अवकाश पर होते हैं या फिर अदालतों में मुक़दमे का स्थानांतरण होने में जो समय लगता है। </b></div>
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<b>अदालत के खुलते ही पहले से लंबित मुकदमों के साथ साथ इन सभी स्थगित मुकदमों की सुनवाई भी तीव्र गति से की जाएगी। अभी से ही न्याय प्रशासन ने न सिर्फ वर्ष 2020 के लिए निर्धारित ग्रीष्म व शीत ऋतु के अवकाशों को रद्द करने का इशारा दे दिया है बल्कि सांध्य कालीन अदालत लोक अदालत और विशेष अदालतों की विशेष व्यवस्था से जल्दी से जल्दी सबकुछ पटरी पर लाने की तैयारी कर ली है। </b></div>
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इन सबके अतिरिक्त विशेष महत्व के बहुत जरूरी मुकदमों और मामलों को सम्बंधित पक्षकारों द्वारा दिए गए प्रार्थनापत्र के आधार पर सुनवाई में प्राथमिकता देने की भी व्यवस्था रहेगी ही। </div>
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ध्यान रहे कि देशबन्दी से रोजाना घटित हो रहे लाखों अपराध अपने आप ही रुक से गए हैं , या कहें कि अपराधियों को अपराध कारित करने का अवसर ही नहीं मिल पा रहा रहे और ये इस लिहाज़ से भी ठीक है कि जो पुलिस अभी कोरोना काल में देशबन्दी को सफल बनाने में अपना जी जान समर्पित किये हुए है उसे कम से कम इस मोर्चे पर अपना ध्यान देने की जरूरत नहीं पड़ रही है। हालांकि छिटपुट घटनाओं के कारण पुलिस को अपराधों की तरफ से पूरी तरह मुक्ति तो नहीं ही मिली है। </div>
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जैसी कि समाचार मिल रहे हैं इस समय में घरेलु हिंसा के मामलों में बेतहाशा वृद्धि हुई है जो कि इसलिए भी स्वाभाविक सी लगती है कि शराब ,सिगरेट ,गुटखे आदि के व्यसन से बुरी तरह लिप्त समाज इस समय आने वाले भविष्य में अपने रोजगार व्यापार के प्रति नकारात्कमक अंदेशे के कारण अधिक हताश व क्रोधित भी होगा। लेकिन ये मामले किसी भी तरह से अदालत के मुकदमे निस्तारण की रफ़्तार को धीमा नहीं करेंगे। </div>
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जहां तक मेरा आकलन है देशबन्दी खुलने के एक माह के भीतर ही देश की सभी अदालतें अपनी पुरानी व्यवस्था और पुराने रफ़्तार में ही आ जाएंगी। अभी तो यही आशा की जा सकती है। </div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-39359414846294147062019-09-19T19:54:00.000+05:302019-09-19T19:54:25.632+05:30न्यायपालिका पर उठते सवाल <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUFqyoG1APodwz5MCYMzQV4GbYrI1aKHCzhKMdRdjwYvAurtHc_T4xWG6t_O-EyGjbHsLCGemle8-PFwbZJdfrnI214D1g-6860WzpaR6kZZURZun3mKA86RjxBLLTMuoxp2VmSowJ3QWs/s1600/Screenshot_20190829-165802_Dainik+Bhaskar+Plus.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1563" data-original-width="1080" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUFqyoG1APodwz5MCYMzQV4GbYrI1aKHCzhKMdRdjwYvAurtHc_T4xWG6t_O-EyGjbHsLCGemle8-PFwbZJdfrnI214D1g-6860WzpaR6kZZURZun3mKA86RjxBLLTMuoxp2VmSowJ3QWs/s320/Screenshot_20190829-165802_Dainik+Bhaskar+Plus.jpg" width="221" /></a></div>
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पिछले कुछ समय से न्यायपालिका से जिस तरह की खबरें निकल कर सामने आ रही हैं वो कम से कम ये तो निश्चित रूप से ईशारा कर रही हैं कि , न्यायपालिका की प्रतिबद्धता और जनता के बीच बना हुआ उनके प्रति विश्वास अब पहले जैसा नहीं रह पायेगा | रहे भी कैसे एक के बाद एक नई नई घटनाएं ,आरोप ,व जैसी जानकारियां निकल कर आम लोगों के बीच पहुँच रही हैं वो न तो न्यायपालिका के लिए स्वस्थ परम्परा साबित होगी न ही देश की व्यवस्था के लिए |</div>
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पिछले वर्ष न्यायिक इतिहास में पहली बार देश की सबसे बड़ी अदालत के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों (जिनमे से एक आज प्रधान न्यायाधीश के रूप में कार्यरत हैं )ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पर मनमाने ढंग से काम करने और यहां तक कि महत्वपूर्ण मुकदमों को वरिष्ठ न्यायाधीशों को न सौंप कर कनिष्ठ न्यायाधीश को आवंटित किये जाने और ऐसी ही बहुत सारी असहमतियों को लेकर सभी न्यायमूर्तियों ने प्रेस कांफ्रेस की | यह अपनी तरह का पहला मामला था जब शीर्ष न्यायपालिका अपने अंदरूनी प्रशासनिक कलह को इस तरह से सार्वजनिक रूप से सबके सामने ले आई थी | हालांकि इससे पहले भी समय समय पर शीर्ष न्यायालय के कुछ वरिष्ठ न्यायाधीश बहुत से अलग मामलों पर असहमति जता चुके हैं | </div>
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अभी कुछ दिनों पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति पर अपनी ही एक कर्मचारी के शोषण का मामला (जिस तरह से आनन फानन में बिना किसी ठोस न्यायिक प्रक्रिया के इस मामले को ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया वो भी खुद न्यायपालिका द्वारा ही वो न्यायपलिका के ऊपर सवाल उठाने के लिए काफी है ) ठंढा भी नहीं हुआ था कि अब फिर हाल ही में पटना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राकेश कुमार ने न्याय प्रशासन और उच्च न्यायपालिका में चल रही विसंगतियों की ओर खुले आम आरोप लगाए हैं | </div>
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जैसा कि पहले भी होता रहा है न्यायपालिका खुद अपनी साख स्वतंत्रता पर इसे किसी तरह का आघात मानते हुए तुरंत प्रभाव से पहले मामला उठाने वाले विद्वान न्यायाधीशों को ही किनारे लगा देती रही है (जस्टिस कर्णन व इस तरह के और भी बहुत सारे मामले देखे जा सकते हैं ) , तो इस मामले में भी सबसे पहला जो काम किया गया वो ये कि न्यायाधीश महोदय के काम काज का अधिकार ही उनसे वापस ले लिया गया | </div>
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सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि , ऐसे तमाम मामलों में प्रश्न उठाने वाले या आरोप लगाने वाले न्यायाधीशों पर तो कार्यवाही हो जाती है मगर इन आरोपों पर , इन विसंगतियों पर कभी भी न्यायपालिका खुद कोई ज़हमत उठाने की कोशिश नहीं करती | आज आम जनमानस में न्यायपालिका को लेकर जिस तरह का अविश्वास पैदा हुआ और बढ़ रहा है उसके लिए बहुत हद तक खुद न्यायपालिका जिम्मेदार है | </div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtlNnQxE4N1PntannB9jlasCNyoGV72yP69SdRqdLDPX7kM2Shg6_Xesd_LqwpyuJYow0by4DzxkmKvafeBGm9G0o80YoTLVOW51Te9N-8ohyUvw993IaxcAToo03PIJehoMBFMUxIjauq/s1600/Screenshot_20190829-165818_Dainik+Bhaskar+Plus.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1533" data-original-width="1080" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtlNnQxE4N1PntannB9jlasCNyoGV72yP69SdRqdLDPX7kM2Shg6_Xesd_LqwpyuJYow0by4DzxkmKvafeBGm9G0o80YoTLVOW51Te9N-8ohyUvw993IaxcAToo03PIJehoMBFMUxIjauq/s320/Screenshot_20190829-165818_Dainik+Bhaskar+Plus.jpg" width="225" /></a></div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgs64a_p8DaxNl6RGw28-8POqghMlAT3Yl7Zlc59ftnlqa7dfXTe7YBwFMJ5axqQBiMN2NXOImOS4_N-hQ0sRbgB0l3CejicN2qpaLMJmHcqPegWXSgemsBGmZ7HNrSbB7DfiOg4uqeaN-N/s1600/Screenshot_20190829-165833_Dainik+Bhaskar+Plus.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="802" data-original-width="1073" height="239" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgs64a_p8DaxNl6RGw28-8POqghMlAT3Yl7Zlc59ftnlqa7dfXTe7YBwFMJ5axqQBiMN2NXOImOS4_N-hQ0sRbgB0l3CejicN2qpaLMJmHcqPegWXSgemsBGmZ7HNrSbB7DfiOg4uqeaN-N/s320/Screenshot_20190829-165833_Dainik+Bhaskar+Plus.jpg" width="320" /></a></div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBHR4C506S7nXus-v11DCoLsvLaZLCxUKHfPCAunlOh038qUmbnyYaeX_JL_mTHS1IM42Ao9VAu5VJB3A5OBiIbZvwSade00YEVUwdL1F5JRRSiCL1nZAtKZq5Wz8Z9HqnZeSjcI0x3mAf/s1600/20190830_095758%257E2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1304" data-original-width="1600" height="260" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBHR4C506S7nXus-v11DCoLsvLaZLCxUKHfPCAunlOh038qUmbnyYaeX_JL_mTHS1IM42Ao9VAu5VJB3A5OBiIbZvwSade00YEVUwdL1F5JRRSiCL1nZAtKZq5Wz8Z9HqnZeSjcI0x3mAf/s320/20190830_095758%257E2.jpg" width="320" /></a></div>
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आखिर वो कौन से कारण हैं कि आज़ादी के बाद से अब तक लगातार मुकदमों में भी इज़ाफ़ा हो रहा है और उसी अनुपात में अपराधों में भी ??<br /><br />इन मुकदमों को समाप्त किए जाने व भविष्य में इनकी संख्या को नियंत्रित किए जाने को लेकर न्याय प्रशासन ने अब तक क्या और कितना ठोस काम किया है ये खुद न्यायपालिका को बताना चाहिए<br /><br />देश में खुद को ईमानदारी ,कर्तव्यपरायणता , प्रतिबद्धता का पर्याय कहने बताने वाली न्यायपालिका देश में एक भी ऐसी अदालत नहीं बना पाई जो भ्रष्टाचार से मुक्त हो<br /><br />न्यायपालिका में भी भाई -भतीजावाद ,भ्रष्टाचार , लालच ,कदाचार देश की किसी भी संस्था से रत्ती भर भी कम नहीं है और ये दिनों दिन बढ़ रहा है<br /><br />अदालतें अब किसी तरह फैसला तो सूना रही हैं मगर न्याय करने व न्याय होने से वे कोसों दूर होती जा रही हैं<br /><br />ऐसे बहुत सारे सवाल और मसले हैं जो सालों से न्यायपालिका के सामने उत्तर की बाट जोह रहे हैं<br /><br /></div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-25712951478328685872019-08-31T07:24:00.000+05:302019-08-31T07:24:38.308+05:30अब घर बैठे प्राप्त करें अपने मुकदमे की जानकारी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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अगर आपका कोई भी मुकदमा/वाद अदालत में लंबित है तो आप अब उसकी जानकारी घर बैठे ही अपने कंप्यूटर या मोबाईल से प्राप्त कर सकते हैं | तकनीक के साथ हाथ मिलाते हुए न्यायालय प्रशासन ने इसके लिए बहुत सारे उपाय किए हैं | बहुत सारे नए एप्स व मोबाईल सेवा का उपयोग करके न सिर्फ मुक़दमे बल्कि अदालतों की ,न्ययाधीशों की ,वाद सूची ,फैसले आदेश आदि की पूरी जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं | संक्षेप में इस चित्र के माध्यम से बताया गया है | विस्तार से जानने व पढ़ने के लिए जुड़े रहें और किसी भी शंका सलाह सुझाव के लिए प्रश्न करते रहें </div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhqDaqxxJu2YoMmf41f1UhXBRqOk6smVhoiShyECFpTQ2wg9AeLSp__g8j-kQlu5TAjZcv4uQLOqbDJzuom8hdHoCferddromDGUaV10oMkKA87zuWJbi-DX0aqIgeTmNEDx2upfVVGfz9/s1600/20190826_135011%257E2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1301" data-original-width="1013" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhqDaqxxJu2YoMmf41f1UhXBRqOk6smVhoiShyECFpTQ2wg9AeLSp__g8j-kQlu5TAjZcv4uQLOqbDJzuom8hdHoCferddromDGUaV10oMkKA87zuWJbi-DX0aqIgeTmNEDx2upfVVGfz9/s640/20190826_135011%257E2.jpg" width="497" /></a></div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-22202568525410012962019-01-06T21:15:00.001+05:302019-01-06T21:15:32.684+05:30आखिर क्यूँ कम नहीं हो रहे लंबित साढ़े तीन करोड़ मुक़दमे -<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2-0eeDNuPz6LYgexuIYOsztOXKhXYR1Un2uRYgaQ4i5q5rNyjxSdX-eIriTDcoe1DU2dIM5YYxa6YYIZXc3r_qIhOPoYBhdNZzMP2JaP3cAoa5PCB9Kc1hZinal-vs7G6HCgnh-Fo0w30/s1600/supreme-court1_26%255B1%255D.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="305" data-original-width="310" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2-0eeDNuPz6LYgexuIYOsztOXKhXYR1Un2uRYgaQ4i5q5rNyjxSdX-eIriTDcoe1DU2dIM5YYxa6YYIZXc3r_qIhOPoYBhdNZzMP2JaP3cAoa5PCB9Kc1hZinal-vs7G6HCgnh-Fo0w30/s1600/supreme-court1_26%255B1%255D.jpg" /></a></div>
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आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि जब भी न्यायिक जगत के किसी कार्यक्रम में माननीय न्यायमूर्तियों को अपना संबोधन रखने का अवसर दिया जाता है , फिर चाहे वो अवसर कोई भी क्यूँ न हो वे एक बात का उल्लेख परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से जरूर कर जाते हैं और वो होता है कि , न्यायपालिका में साढ़े तीन करोड़ से अधिक मुकदमे ऐसे हैं जो निस्तारण की बाट जोह रहे हैं | और सबसे हैरानी और हास्यास्पद बात भी ये है कि ऐसा कम से कम पिछले एक दशक से अधिक से कहा जा रहा है | और ये भी कि , लगातार कहा जा रहा है |</div>
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ये स्थिति तब है जब देश भर में लगने वाली और अब तो नियमित रूप से प्रतिमाह आयोजित की जाने वाली लोक अदालतों में हज़ारों और यहाँ तक कि लाखों मुकदमों के निस्तारण , मध्यस्थता केन्द्रों के माध्यम से भी हज़ारों मुकदमों के सुलह समाप्ति के आंकड़े भी लगभग साथ साथ ही आते रहे हैं तो फिर आखिर ये समस्या ज्यों की त्यों क्यों और कैसे बनी हुई है ?????</div>
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पिछले दो दशकों से अधिक से राजधानी की जिला अदालत में कार्य करते हुए , एक विधिक शिक्षार्थी के नाते और लगातार इस विषय पर सब कुछ पढ़ते देखते हुए जब मैंने इस विषय पर नज़र बनाई तो जो कुछ कारण स्पष्टतया मेरे सामने थे उन्हें सीधे सीधे ऐसे देखा जा सकता है</div>
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सबसे पहला और सबसे प्रमुख कारण : <b>मुकदमों की आवक मुकदमों के निस्तारण से कई कई गुणा अधिक होना | <br /><br />और इस बात को इस तरह से सरलता से समझा जा सकता है कि ये ठीक उस तरह से है जैसे जब तक एक थाली भोजन ख़त्म करने की कवायद होती है उतनी देर में वैसी दस बीस पचास थालियाँ अपने ख़त्म होने के लिए कतारबद्ध हो चुकी होती हैं | या फिर ये कहें जब तक एक बेरोजगार के लिए नौकरी की तलाश की जाती है उतने समय में पचास सौ बेरोजागार पंक्तिबद्ध हो चुके होते हैं |</b> हालाँकि इसके भी कई कारण हैं , और सबसे बड़ी हैरानी की बात ये है कि मुकदमों की आवक को कम कैसे किया जा सकता है ये विषय लंबित मुकदमों के निस्तारण हेतु किये जा रहे उपायों की फेहरिश्त में कहीं है ही नहीं |<br /><br />अगले बहुत सारे कारणों में<br />प्रतिवर्ष बन और लागू किये जा रहे नए नए क़ानून<br />समाचार और सोशल मीडिया के माध्यम से अब इन कानूनों की जानकारी अवाम को होना<br />अदालत पहुँचने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने की संस्कृति का पनपना<br />अधिवक्ताओं की बढ़ती संख्या<br />नशे ,बेरोजगारी आदि के कारण बढ़ते अपराध<br />बदलती हुआ सामाजिक परिवेश व टूटते सामाजिक बंधन<br />न्यायालयों , न्यायाधीशों की कम संख्या<br />बहुस्तरीय न्याय प्रणाली के कारण होने वाला दीर्घकालीन विलम्ब<br />वाद विवाद से इतर दिशा निर्देश और मार्गदर्शन पाने के लिए दायर किये जा रहे मुक़दमे<br />इनके अलावा और भी बहुत से ऐसे कारण हैं जिन पर बारीकी से सोचा और कार्य किया जाना बहुत जरूरी है ......अगली पोस्टों में इन पर विस्तार से चर्चा करेंगे </div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-47524670014887392202017-08-13T15:40:00.000+05:302017-08-13T15:40:03.701+05:30ट्रैफिक चालान को हलके में लेना पड सकता है भारी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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.....</div>
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4w5UYLB8_qcbjLQm-vDdjI24ZaXuLVfQgmW9gTgIWwjyR-o5kzAjZkheD0up32hYyBZbqnSgDhP4Jhist5qw3UvWXv4wv8neRU7EPyUhAtCo4_ZgeCIl3n53VKZRqtpzUdKA6Vgkji-A9/s1600/20663903_1575110849208014_69385045623883391_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="238" data-original-width="960" height="99" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4w5UYLB8_qcbjLQm-vDdjI24ZaXuLVfQgmW9gTgIWwjyR-o5kzAjZkheD0up32hYyBZbqnSgDhP4Jhist5qw3UvWXv4wv8neRU7EPyUhAtCo4_ZgeCIl3n53VKZRqtpzUdKA6Vgkji-A9/s400/20663903_1575110849208014_69385045623883391_n.jpg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मित्र राजेश सरोहा की एक रिपोर्ट नवभारत टाईम्स दिल्ल्ली </td></tr>
</tbody></table>
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हाल ही में खबरनवीस मित्र राजेश सरोहा ने नवभारत टाईम्स दिल्ली संस्करण में ये खबर प्रमुखता से प्रकाशित की | आंकड़े बता रहे हैं कि ट्रैफिक , लगातार होती सड़क दुर्घटनाओं और इनमें हो रहे इजाफे के बावजूद लोग बाग़ न तो ट्रैफिक नियमों को ही गंभीरता से ले रहे हैं और न ही इनके दुष्परिणामों से खुद को बचा रहे हैं या बचाने को लेकर गंभीर हैं | सरकार ,पुलिस प्रशासन व अदालत तक इन ट्रैफिक नियमों की अवहेलना और उल्लंघन की बढ़ती प्रवृत्ति से परेशान होने के बावजूद कुछ भी कारगर नहीं कर सकने को लेकर विवश सी जान पड रही हैं |</div>
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इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है ये प्रकाशित खबर जो ये बता और दर्शा रही है कि नियमों का उल्लंघन जहां आम जन ने अपनी आदत बना ली है वहीं दण्डित और नियमित करने वाली संस्थाओं ने सिर्फ जुर्माने से भारी भरकम राशि जमा करना अपनी इतिश्री | </div>
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<div>
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<br /></div>
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लेकिन बात अब उतनी भी आसान नहीं रही है और आम लोगों की आदत को सुधारने और कम से कम इन चालानों को बहुत हलके में लेने की प्रवृत्ति को रोकने के लिए अब अदालतों ने नई प्रणालियों और नए दंड पर काम करना शुरू कर दिया है | <br /><br /><br />अमूमन तौर पर ट्रैफिक चालानों को निष्पादित या आम तौर पर जिसे भुगतना कहते हैं , करने का एक तरीका यह है कि चालान पर्ची पर दिए गए नियत समय तारीख व अदालत के समक्ष , सभी कागजातों के साथ उपस्थित होकर , अदालत द्वारा सुनाये गए जुर्माने की रकम को भर कर दोषमुक्त हुआ जाता है | यदि किसी को लगता है कि उसका चालान गलत या गलती से काटा गया है तो उसे ये अदालत में साबित करना होता है , अपने पक्ष को रखने के लिए अपने द्वारा प्रस्तुत सबूतों गवाहों को अदालत के सामने पेश करके , पूरी वाद वाली कारवाई अपनाई जाती है | </div>
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<br /></div>
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अब बदलाव के बाद , सबसे पहली बात , वाहन चालाक चालान कटते ही आया आरोपी की श्रेणी में और वाहन मालिक सह आरोपी | यानि सरकार द्वारा निर्धारित कानूनों को तोड़ने के दोषी पाया जाने वाला व्यक्ति | </div>
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अगली बात यदि ट्रैफिक नियमों में से किसी की अवहेलना की गयी है या उसे तोड़ा गया है , जैसे रेड लाईट जम्पिंग , नशे की हालत में ड्राईविंग , एम्बुलेंस को रास्ता न देना तो इन अपराधों के लिए तो आपको आरोपी बनाया ही जाएगा साथ ही साथ , गाडी से सम्बंधित सभी कागज़ात वो भी बिलकुल दुरुस्त न होने की स्थति में मौके पर गाडी को जब्त करने के अलावा अदालत उन सभी के लिए आपको दंड और जुर्माना कर सकती नहीं , अब अदालतें दंड भी दे रही हैं और जुर्माना भी कर रही हैं | </div>
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अदालत में भी अब एक तारीख पर आरोपी को मुक्त नहीं किया जाता है | अपनी गलती मानने की स्थिति में आरोपी को एक प्रार्थना पत्र दाखिल करना होगा | अदालत उसे विचारार्थ संज्ञान में लेकर अगली तारीख से पहले परिवहन विभाग , पुलिस व अन्य सभी सम्बंधित एजेंसियों से पूर्व में दोषी या कहिये कि कोई लंबित चालान आदि की पूरी रिपोर्ट तलब की जाती है | नियत दिन व् समय पर जांच अधिकारी खुद उपस्थित होकर इस बात की जानकारी अदालत को देती हैं | </div>
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अब दंड और जुर्माने की बात ..अब अधिकतम जुर्माना ...या न्यूनतम जुर्माने राशि की आधी रकम ..जुर्माने के रूप में चुकाने के अलावा अदालतें ..पंद्रह दिनों की कैद , पंद्रह दिनों तक अस्पताल या सुधार गृहों में सेवा , ट्रैफिक पुलिस का सहयोग व व्यावसायिक वाहनों के केस में उन्हें पंद्रह दिनों का प्रशिक्षण जैसी दंड व्यवस्था को अपना रही हैं | इनके अलावा कुछ नए प्रयोगों के तौर पर ..एक निश्चित धन राशि प्रधानमंत्री राहत कोष या आरोपी की माता बहन व बेटी के नाम से बैंक में जमा कराने का निर्देश देकर आरोपियों को अपनी गलती का एहसास व जिम्मेदारियों को समझने का अवसर दे रही हैं | </div>
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यानि लब्बो लुआब ये कि , यदि आप ट्रैफिक नियमों को गंभीरता से न लेकर महज़ खानापूर्ति करने की आदत पाले बैठे हैं तो फिर यकीनन ही अपना धन , समय , प्रतिष्ठा व उर्जा को दांव पर लगाने की भूल कर रहे हैं जो देर सवेर खुद पलट कर आपके लिए अधिक नुकसानदायक साबित होगी </div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-19580077755644541272017-06-02T21:33:00.000+05:302017-06-02T21:33:26.660+05:30छलावा साबित हो रही हैं त्वरित न्यायालय की परिकल्पना <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhO30RiAUXmvSMHcLmiJBN9tyoRqJYo1V69eCXnXjSNMKdyhXKEtTmKev_GNBZO7Lxp5s_wJY2oRYH5A-iGmfwuUXuPS0AG0Fp6E7L6Y06Kmfg74qesiWyiJN8qMFWMZsSQA4cy5B94w3w5/s1600/justice.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="237" data-original-width="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhO30RiAUXmvSMHcLmiJBN9tyoRqJYo1V69eCXnXjSNMKdyhXKEtTmKev_GNBZO7Lxp5s_wJY2oRYH5A-iGmfwuUXuPS0AG0Fp6E7L6Y06Kmfg74qesiWyiJN8qMFWMZsSQA4cy5B94w3w5/s1600/justice.jpg" /></a></div>
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कुछ दिनों पूर्व छपी एक खबर के अनुसार , हाल ही में नई राष्ट्रीय महिला नीति के प्रस्तावित मसौदे में महिलाओं को त्वरित न्याय दिलवाने के उद्देश्य से विशेष अदालतें (जिन्हें "नारी अदालत "कहा जाएगा )कि गठन का सुझाव दिया गया है | सकारात्मक दृष्टिकोण से इस खबर के दो अच्छे पहलू हैं |पहला ये कि सरकार व् प्रशासन समाज में महिलाओं की बदलती हुई स्थिति व् परिदृश्य के कारण महिलाओं के लिए एक नई राष्ट्रीय नीति लाने को तत्पर हुई |और दूसरा ये कि अपने इस प्रयास में गंभीरता दिखाते हुए महिलाओं को त्वरित न्याय दिलाने के उद्देश्य से उनके लिए विशेष अदालतों के गठन की कवायद | किन्तु ,<br /><br />एक नागरिक , और विशेषकर सरकारी मुलाजिम , इत्तेफाकन अदालत ही मेरा कार्यक्षेत्र होने के कारण भी , मेरी पहली और आख़िरी प्रतिक्रया यही होगी , कि , नहीं इससे कहीं कुछ भी नहीं बदलेगा , कुछ भी नहीं | कम से कम ये वो उपाय नहीं हैं जो अपने उद्देश्य को पूरा करने में सफल हो पायेंगे , विशेषकर तब जब आप सालों से उन्हें आजमा रहे हैं और दुखद स्थिति ये है कि दिनोंदिन महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध में क्रूरता का स्तर अब पहले से कहीं अधिक है और ये लगातार हर क्षण बढ़ रहा है | यूं किसी भी नए प्रयास या ऐसी किसी कोशिश का नकारात्मक आकलन उचित नहीं माना जाना चाहिए | मगर अफ़सोस यही है कि , प्रायोगिक रूप से ये परिणामदायक उपाय नहीं साबित होंगे |<br />
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<blockquote class="tr_bq">
नीतियाँ नियम क़ानून , पहले इनकी ही बात करते हैं | इस देश में लिखित क़ानून का प्रावधान ब्रिटिश राज़ से शुरू हुआ था बहुत सी नई परिकल्पनाओं की तरह |और ये सिलसिला जो शुरू हुआ तो फिर हास्यास्पद रूप से हम बहुत कम उन देशों में शामिल हैं जो लगातार कानून पे क़ानून ,रोज़ बनाए जाते नियम कायदे और बिना किसी ठोस कार्यप्रणाली और ब्लूप्रिंट के घोषित की जाने वाली नीतियाँ | सबसे बड़े हैरत की बात ये है कि पूर्व में बने लागू किये कानूनों का आकलन विश्लेषण उनका प्रभाव और परिणाम ऐसी बातों को गौण विषय ही समझा गया है और शायद यही एक वजह ये भी है कि आम लोगों में भी क़ानून और अदालत जाने पहुँचने की आदत शुमार हो चली है , ये किसी भी दृष्टिकोण से अच्छी स्थति नहीं है </blockquote>
</div>
<br /><br />जिस देश में जितने अधिक क़ानून होते हैं इसका मतलब उस देश का समाज उतना उदंड और कानून का द्रोही होता है .किसी विधिवेत्ता ने इसी बात को बखूबी ऐसे लिखा था | अब बात त्वरित अदालतों की संकल्पना की जो बहुत से कारणों की वजह से वैसा ही अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाया जैसा विशेष अदालतों के मामले में हुआ है | और इसकी कुछ वजहें भी हैं | आसान भाषा में समझा जाए तो महिला अदालत , परिवार न्यायालय , हरित ट्रिब्यूनल , बाल न्यायालय ...जैसी परिकल्पनाओं के पीछे एक जैसे विधिक विचार बिन्दुओं वाले वादों को एक विशेष न्यायालय में सुनवाई का अवसर देना , निस्तारण , सम्बंधित मशीनरी का बेहतर उपयोग और अन्य कई कारण , होता है | सरकार द्वारा संसद में इसका प्रावधान करते समय , प्रशासन की मंशा रहती है कि , विशिष्ट अदालतों और त्वरित अदालतों का गठन या स्थापना विशेष रूप से किया जाना चाहिए | किन्तु एक नई अदालत के लिए एक न्यायिक अधिकारी के साथ कम से कम दस कर्मचारी के पूरे सेट अप की अनिवार्य आवश्यकता का फौरी हल न होने के कारण , मौजूदा न्यायाधीशों व् कार्यरत कर्मचारियों में से ही एक तदर्थ व्यवस्था की जाती है | इसका परिणाम ये निकलता है कि इस नई विशेष अदालत की व्यवस्था स्थाई और सुचारू होने तक वो भी अन्य अदालतों के समान ही , अपनी पूरी शक्ति से कार्य करने के बावजूद भी , मुकदमों के बोझ से जूझती सी लगती हैं |<br /><br />देश की वो तबका जो न्याय व्यवस्था के होते हुए भी लगातार शोषित होता रहा है उनमें दुनिया की आधी आबादी भी है , विडंबना है कि मेरे गृह जिले में १२ वर्ष की एक किशोरी को पारिवारिक दुश्मनी के शिकार के रूप में व्याभिचार के बाद हत्या और उसके शव को जला तक दिए जाने का नृशंश अपराध जब आंदोलित किये हुए है तो ये एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह देश की क़ानून व्यवस्था और खासकर अपराधियों के कभी भी कम न हो पाए मनोबल के लिए समाज याची से ज्यादा याचक बना दिखता है | यह नैसर्गिक न्याय के नियम के विरूद्ध है | <br /><br /><br />......देश की अदालतों में मुकदमों का बढ़ते बोझ के लिए व्यवस्था को अब बिलकुल अगल और नए सिरे से सोचना होगा <br />
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-24423682746157626212016-09-18T07:30:00.002+05:302016-09-18T07:30:59.256+05:30घर की चिंता नहीं पड़ोसी के लिए मियां हलकान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhEu-NxwIKB_0YI-3Grh-bC-KCSBVWY5SMwtam_qdRupE1TwZzjT2LRAiMXCpixewi09isQuliCubvgyZJn66KwR75TUph6w0tpkn08UFrg8tCrTbtCbcKnhkhiqmLraAE7uKWu6Sse5rO/s1600/TH10_MODI_LEGAL__2615462f.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="223" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhEu-NxwIKB_0YI-3Grh-bC-KCSBVWY5SMwtam_qdRupE1TwZzjT2LRAiMXCpixewi09isQuliCubvgyZJn66KwR75TUph6w0tpkn08UFrg8tCrTbtCbcKnhkhiqmLraAE7uKWu6Sse5rO/s400/TH10_MODI_LEGAL__2615462f.jpg" width="400" /></a></div>
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.. ऐसा सुनने में आया है कि अभी कुछ दिनों पूर्व माननीय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (या बल्कि यह कहा जाए कि अपने लगातार निर्भय बयानों के कारण चर्चा में रहने वाले मुख्य न्यायाधीश ) श्री तीरथ सिंह ठाकुर की मुलाकात प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी से हुई थी और उन दोनों के बीच लगभग एक घंटे तक औपचारिक अनौपचारिक बातचीत हुई ||चलिए अच्छा है कम से कम इस बहाने सार्वजनिक पदों पर बैठे दो शीर्ष व्यक्तियों को आपस में विचार व समस्याएं साझा करने का सुअवसर मिला होगा ।।</div>
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जैसा कि सबको विदित है कि वर्तमान मुख्य न्यायाधीश श्री टीएस ठाकुर अपने शुरुआती दिनों से ही बड़ी मुखरता से न्यायपालिका की एक प्रमुख समस्या ,जो की लंबित मुकदमों का बढ़ता ढेर व् उसका निस्तारण है, को रेखांकित करते रहे हैं || इतना ही नहीं समय समय पर अपने सार्वजनिक संबोधन में वे सरकार व उनके नीति निर्धारकों को ,इस बात के लिए, निशाने पर लेते रहे हैं कि न्यायपालिका पर लंबित मुकदमों के बोझ के लिए कहीं ना कहीं किसी हद तक पर्याप्त संख्या में अदालतों व न्यायाधीशों का नहीं होना ही है||<br /><br /> वह बार-बार इस बात को कहते रहे हैं कि पश्चिमी देशों की तुलना में भारतीय न्यायिक परिक्षेत्र में प्रति व्यक्ति न्यायाधीशों का जो पैमाना होना चाहिए ,अनुपात उससे कहीं ज्यादा ही कम है || अभी इस बात कोकहते हुए वे अपनी नाराजगी और व्यथा को सार्वजनिक रूप से जाहिर भी कर चुके हैं कि लाल किले से अपने सार्वजनिक भाषण के दौरान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस समस्या को प्रमुखता से नहीं उठाया ना ही इसकी कहीं चर्चा की||<br /></div>
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किंतु इस परिप्रेक्ष में एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि आज वर्तमान में कार्यरत न्यायालय वह न्यायाधीश कार्यप्रणाली भ्रष्टाचार व अनेक तरह की अनियमितताओं के भंवर चक्र में इस तरह से फंसे देखते हैं कि न्याय प्रशासन पूरी तरह से चरमरा ऐसा दिखता है कभी देश के अग्र संचालक वर्ग में अपना स्थान बनाने वाले अधिवक्ता गण भी आज वाद विवाद हिंसक होकर बहुत बार अनावश्यक वह अति उग्र प्रदर्शन करते हैं यह किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जा सकता है</div>
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प्रशासनिक व्यवस्थाओं प्रशासनिक कार्य क्रियाकलापों में सालों से वही ढिलाई सालों से वही ढीले ढाले रवैया पर का किया जा रहा है कहीं किसी सुधार की कोई बात या गुंजाइश नहीं दीख पड़ती है || पिछले दिनों अंतरजाल व उस पर लोगों की पहुंच ने जरूर इसमें थोड़ा सा अंतर कम किया है किंतु फिर भी यह भारत जैसे देश जहां पर बहुत सारी आबादी निरक्षर निर्धन व निर्मल है तथा अंतरजाल तो दूर इंटरनेट तो दूर वह रोटी कपड़ा वह दवाई शिक्षा के लिए मोहताज है उन तक न्याय को सुलभ सस्ता बनाने के लिए बहुत बड़े वह दिल प्रयास किए जाने जरूरी है ||</div>
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न्यायपालिका पर एक आरोप यह भी लगता रहा है कि वह अति सक्रियता दिखाते हुए अनावश्यक हस्तक्षेप करती है कभी विधायिका में तो कभी कार्यपालिका में जबकि न्यायपालिका का स्पष्टीकरण इस पर यह है कि उसे मजबूरी में अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाध्य होना ही पड़ता है क्योंकि यह दोनों निकाय अपने दायित्व निर्वहन में या विफल हो जाते हैं||<br /><br /><br /> <a href="http://www.hastakshep.com/english/2016/09/18/majority-of-the-present-supreme-court-judges-are-people-of-very-low-intellectual-level?utm_source=rss&utm_medium=rss#.V93w8Mm21wi" target="_blank">ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू जब सर्वोच्च न्यायालय में पदस्थापित न्यायाधीशों के लिए कहते हैं कि उनकी समझ योग्यता के अनुरूप नहीं और जो सभी उन न्यायमूर्तियों के स्थान पर बैठे वाला प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ इसलिए नहीं वहां बैठा क्योंकि योग्य बल्कि वरिष्ठता या किन्ही और कारणों से हैं | </a>और जब कोई इतना महत्वपूर्ण व्यक्ति ऐसा कह रहा है निसंदेह और अविलम्ब इसके पीछे के कारणों पर स्वयं न्यायपालिका और उससे सम्बद्ध सभी को मंथन व् विश्लेषण करना होगा | देश समाज की चिंता से पहले आतंरिक व्यवस्थाओं को दुरुस्त किया जाना चाहिए वो ज्यादा जूररी है </div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-92045462215595209292016-09-15T08:14:00.000+05:302016-09-15T08:14:24.822+05:30न्याय की भाषा : (सन्दर्भ हिंदी दिवस ) |<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJl2pRbe0QqG4xF-FpVOASEC1480BoIWA6T33edwtYBBEg_S7_hi_lPCUeA0NQ7e5mtn3t4JQ_iZCSg7BU0511-Pn9t7iaamCPn1sHtkKDv4pJEDbN80h_RhqN1_8Jyh7zBbg3NWDBsIXT/s1600/d104171910.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJl2pRbe0QqG4xF-FpVOASEC1480BoIWA6T33edwtYBBEg_S7_hi_lPCUeA0NQ7e5mtn3t4JQ_iZCSg7BU0511-Pn9t7iaamCPn1sHtkKDv4pJEDbN80h_RhqN1_8Jyh7zBbg3NWDBsIXT/s1600/d104171910.jpg" /></a></div>
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न्यायिक जगत में हिंदी का प्रयोग प्रसार प्रभाव व् परिणाम एक ऐसा अछूता विषय रहा है जिस पर मंथन और विमर्श तो दूर अभी तक इसे विमर्श योग्य मुद्दा भी नहीं बनाया समझा जा सका है |जब भी अदालतों में हिंदी के प्रयोग किये जाने , यहाँ मेरा आशय न्यायालायीय प्रक्रियायों जैसे गवाही और बहस आदि में हिंदी के प्रयोग को लेकर है , की बात गाहे बगाहे सुनने में आती है तो वो ये कि फलानी याचिका को माननीय उच्चतम न्यायालय के फलाने आदेश द्वारा निस्तारित करते हुए वही निर्णय सुना दिया गया कि ,नहीं अभी वक्त नहीं आया है ||</div>
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आप और हम गौर से यदि देखें तो पायेंगे कि जो व्यवस्थाएं इस देश की बुनियादी नीतियों को तय करने के लिए स्थापित की गयी थी उसमें से बहुत सारी तो ऐसी थीं जिनके लिए हमारे उन नीति निर्माताओं को यकीन था कि हम एक दशक में अपने गंभीर प्रयासों से उन तदर्थ व्यवस्थाओं से पूरी तरह निजात पाकर उनके लिए स्थाई व्यवस्थाओं या विकल्पों को तलाश लेंगे ,नौकरी में आरक्षण राजभाषा हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए के लिए किए जाने वाले प्रयास .आदि कुछ ऐसे ही कार्य थे जो एक दशक से लेकर अब सात दशकों के बीत जाने के बावजूद जस का तस बना हुआ है || <br /><br />हिन्दी भाषी प्रदेशों जैसे बिहार , उत्तर प्रदेश , हरियाणा , राजस्थान आदि में तो जिला अदालतों के स्तर पर हिंदी का प्रयोग बहुधा दिख भी जाता है किन्तु राजधानी दिल्ली की जिला अदालतें उसमें भी अपवाद हैं इसका कारण भी है | राजधानी दिल्ली में देश भर के लोग रहते हैं इसलिए स्वाभाविक रूप से अंगरेजी भाषा का ही प्रयोग किया जाता है | अलबत्ता पिछले कुछ समय में अदालतों में विशेषकर जन सूचना अधिकार के तहत पूछे गए प्रश्नों के उत्तर , समस्याओं व् शिकायतों का उत्तर आदि किन्तु फिर भी ये ऊंट के मुंह में जीरे के सामान है | </div>
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जब भी हिंदी के प्रस्चार प्रसार और प्रयोग को बढ़ावा देने की बात है विशेषकर प्रशासनिक निकायों में तो सबसे बड़ी कठिनाई बन कर सामने आती है वो है तकनीकी शब्दावली जो जाने अनजाने इतनी ज्यादा क्लिष्ट हो गयी है ,या शायद उसे आसान बनाने की कोशिश ही नहीं की गयी , कि आमजन तो दूर स्वयं अधिकारी और कर्मचारी तक कई बार परेशान हो जाते हैं | हालांकि सरकार , राजभाषा विभाग ,प्रकाशन विभाग , सहित बहुत सारे निकाय व् संस्थाएं इस दिशा में बरसों से काम कर ही रही हैं किन्तु ये प्रयास बहुत ही न्यून है | <br /><br />जहां तक अदालतों में राजभाषा हिंदी के प्रयोग की बात है तो जब तक एक आम आदमी एक गरीब निरक्षर को अदालत में आकर वाद सूची में अपना नाम पढने में कठिनाई नहीं होगी , उसके नाम से अदालत से जाने वाला हर सम्मन , नोटिस आदि उसे अपनी भाषा हिंदी में वो भी आसान हिंदी में मिले , उसकी गवाही और जिरह हिंदी में भी हो सके ......तो ही हिंदी संतोषजनक स्थिति में कही जायेगी | और ऐसा अभी या भविष्य में हो पाना संभव हो पायेगा ...ये कहना और अभी कहना बहुत ही कठिन है | अभी के लिए तो माननीयों को सिर्फ यही कहा जा सकता है कि ...न्याय में देर भई ...अंधेर भई ...किन्तु कम से कम उसे निस्तारित तो राजभाषा हिंदी में ही किया जाए | </div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-89021939861009784952015-12-28T18:19:00.000+05:302015-12-28T18:19:25.379+05:30कड़कड़डूमा कोर्ट शूटआउट : कुछ सवाल , कुछ सबक <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<br /></div>
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://delhicourts.nic.in/Citizen%20Charter/KKD_CC_files/image010.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="http://delhicourts.nic.in/Citizen%20Charter/KKD_CC_files/image010.jpg" height="251" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">कोर्ट परिसर का मुख्य गेट </td></tr>
</tbody></table>
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अदालती कैलेण्डर मे आख़िरी कार्यदिवस , दिनांक २३/१२/२०१५ , समय तकरीबन ग्यारह से बारह के बीच , अचानक ही पूरे अदालत परिसर में गहमागहमी बढ़ जाती है , बहुत सारे अधिवक्ता , अदालत में अपने अपने कामों से पहुंचे हुए लोग और बहुत सारे कर्मचारी भी एक तरफ को भागते दिखते हैं | मिनटों में ही ये खबर सब तक पहुँच जाती है कि न्याय कक्ष संख्या ७३ में गोलीबारी हुई है जिसमें एक व्यक्ति की वहीं मृत्यु हो गयी है व दो अन्य घायल हैं |</div>
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<br /></div>
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पूरा मामला ये निकला कि , एक गैंग लीडर जो कि अपने ऊपर चल रहे मुक़दमे के दौरान अदालत में पेश किया गया था उसे मारने के लिए उसके प्रतिद्वंदी गैंग वालों ने चार अवयस्क लड़कों को उसके क़त्ल के लिए भेजा था | उन्होंने अंदाज़े से अपने शिकार को पहचानते हुए बिलकुल फिदायीन तरीके से उस पर कोर्ट की चलती कार्यवाही के बीच अंधाधुंध फायरिंग झोंक दी | बीच में जो हुआ वो यही कि उस गैंग लीडर के अलावा दो और लोग उसका शिकार बने | एक हेड कांस्टेबल की मौत और दूसरा घायल |</div>
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अदालत परिसरों में इस तरह की दु:साहस भरी घटनाएं इससे पहले भी कई बार देखने सुनने को मिलती रही हैं और अपराध व् अपराधियों की उपस्थति को देखते हुए इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता | किन्तु अदालत कक्ष के भीतर न्यायाधीश के सामने बेख़ौफ़ होकर इस तरह की नृशंस हत्या करने की ये अपने तरह की पहली वारदात थी | इस घटना के बाद सुरक्षा चूकों व् खामियों को लेकर हुई बैठकों के बाद बेशक भविष्य में ऐसी किसी भी घटना की पुनरावृत्ति रोकने के लिए कदम उठाये जायेंगे , उठाये जाने भी चाहिए , किन्तु इससे अलग और भी कुछ है जिस पर ध्यान दिया जाना बहुत जरूरी है |</div>
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वो ये कि , ये घटना स्पष्टत : ये साबित कर रही है कि बेशक हमारे पास कानूनों का एक पूरा जखीरा मौजूद हो लेकिन फिर भी वो अपराधियों के मन में क़ानून के प्रति खौफ या डर पैदा करने में नाकाम रहे हैं | गौरतलब है कि शूट आउट में लिप्त ये तरूण भी उसी जुवेनाईल जस्टिस एक्ट के आड़ में पूरे समाज के लिए एक अनजस्टिस कर जायेंगे | अभी तक का अनुसंधान ये इशारा कर रहा है कि इन नाबालिगों ने पूरी योजना के साथ को अंजाम दिया है और इससे पहले भी वे सरेआम इस तरह की वारदात कर चुके थे | तो कानून से जुड़े हर व्यक्ति , हर संस्था और हर शोध को अब इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि आखिर क़ानून का सबसे अहम् मकसद ,समाज में शान्ति व् निर्भयता का माहौल बनाए रखना, ही पूरी तरह से विफल होता क्यों जान पड़ता है |कल्पना करिए कि बाल बाल बचे न्यायाधीश यदि इसकी चपेट में आ जाते तो ये विश्व में खुद सुरक्षा परिषद् का स्थाई सदस्य बनाने की मांग रखने वाले देश की इज्ज़त पर लगे किसी तगड़े बट्टे से कम नहीं दिखता |<br /></div>
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जहां तक सुरक्षा में हुई चूक या विफलता की बात है तो उसके लिए पहली जिम्मेदारी सुरक्षा जांच में नियुक्त सुरक्षाकर्मी व् अन्य सभी सम्बंधित अधिकारी जिनके पास अब बेशक अपनी मजबूरी और लापरवाही को छिपाने के लिए लाख बहाने मिल जाएँ मगर असलियत तो यही है कि कोर्ट की सुरक्षा व्यवस्था कभी भी इतनी पुख्ता भी नहीं रही कि उसे मुकम्मल कहा या माना जाए | सिर्फ एक पल को कल्पना की जाए कि यदि इस तरह से फिदायीन हथियार समेत न्यायालय परिसर में दाखिल होकर कत्ले आम मचा देते तो स्थिति कितनी भयावह हो सकती थी | </div>
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पर्याप्त रूप मे सुरक्षा कर्मियों की ड्यूटी , परिसर और अदालत कक्ष में भीतर जाने के लिए एक समुचित और सुनियोजित व्यवस्था ताकि गैर सम्बंधित लोगों की उपस्थति की संभावनाओं को कम किया जा सके और आजकल ऐसे सार्वजनिक भवनों और उनमें कार्यरत लोगों की सुरक्षा के लिए विश्व में उपयोग की जाने वाली बेहतरीन तकनीकों का उपयोग आदि कुछ ऐसे कदम हैं जो फौरी तौर पर निश्चित रूप से उठाये जाने चाहिए | </div>
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स्थिति में कितना क्या बदलेगा ये तो भविष्य के वर्षों में देखने वाली बात होगी बहरहाल कचहरी में काम करते हुए बहुत सारी वजहों से सहेजे हुए दिनों में से एक दिन ये भी ......</div>
</div>
अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-34902320848528932232015-12-06T08:31:00.001+05:302015-12-06T08:31:24.311+05:30मुख्यमंत्री जी ..............तो क्या हम बेईमान हो जाएँ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYLPdUYYopYSLmLff_n9IIOupac39meVmz87YiH2lj-9WIQO8Ryz3T37a5vWKMojAvijq-L57PpZ5YDgc2_0Ia54vMGHc2Ouhz9CZx_ytOf5YDOY3clXk3iFEG96V10-bKcS4yiR3tIPlq/s1600/justice.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYLPdUYYopYSLmLff_n9IIOupac39meVmz87YiH2lj-9WIQO8Ryz3T37a5vWKMojAvijq-L57PpZ5YDgc2_0Ia54vMGHc2Ouhz9CZx_ytOf5YDOY3clXk3iFEG96V10-bKcS4yiR3tIPlq/s1600/justice.jpg" /></a></div>
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अभी दो दिन पूर्व ही दिल्ली सरकार ने अपने विधायकों के वेतन में ४०० प्रतिशत की वृद्धि का विधेयक पारित किया | इसकी जरूरत और अनिवार्यता को सही ठहराते हुए मुख्यमंत्री दिल्ली सरकार ने इस बात को रेखांकित करते हुए कहा कि , यदि आप चाहते हैं कि सार्वजनिक पदों और सेवाओं में बैठे लोग पूरी ईमानदारी से कार्य करें तो आपको उन्हें अच्छा वेतन और और अच्छी सहूलियतें दी जानी चाहिए |इसे और आगे बढाते हुए उन्होंने कहा कि यदि प्रधानमंत्री जी का वेतन कम है तो उसे भी बाधा देना चाहिए | बात पूरी तरह से तार्किक और वाजिब है कि जब तक आप एक कर्मचारी अधिकारी को उचित वेतन और सारी सहूलियतें नहीं देंगे तब तक आप कैसे ये अपेक्षा कर सकते हैं कि वो पूरी ईमानदारी और निष्ठा से अपने दायित्वों का निर्वहन करेंगे | </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /><br />किन्तु यहाँ सबसे महत्वपूर्ण बातें जो गौर करने वाली हैं वो ये कि , ये तय करने का अधिकार किसे है कि सार्वजनिक पद पर बैठे किस व्यक्ति के लिए कितने वेतन भत्ते को उचित या वाजिब /जरूरी वेतन माना जाए | हर विभाग में कार्यरत हर कर्मचारी और अधिकारी को अपने कार्यदायित्व के अनुसार अलग अलग संसाधन , और साधन की जरूरत पड़ती है जिसका आकलन करने के लिए अलग एजेंसीज होती हैं |इत्तेफाक से सभी , विधायक और सांसद नहीं होते | दूसरी अहम् बात जो इस वक्तव्य से सामने निकल कर आती है वो ये कि ,जिन्हें उनके अनुसार उचित वेतन और अन्य सहूलियतें नहीं मिलती हैं तो क्या उन्हें ये अधिकार मिल जाता है कि कम वेतन भत्तों को आधार बना कर वे अपनी बेईमानी और भ्रष्टाचार को उचित ठहराएं | यहाँ एक इस बात का उल्लेख करना भी ठीक होगा कि जिस दिल्ली पुलिस पर अक्सर स्वयं दिल्ली के मुख्य मंत्री तक भ्रष्ट होने का आरोप बारम्बार लगाते हैं वो भी अक्सर यही दलील देती है कि उनके पास संसाधनों की घोर कमी ही विभाग में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है | </div>
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अब ज़रा इससे इतर कुछ और तथ्य जो स्वयं मेरे कार्य क्षेत्र से जुडा हुआ है और संयोगवश इस पूरे प्रकरण के संदर्भ में उल्लेखनीय भी है | अभी दो दिनों पूर्व ही दिल्ली की अधीनस्थ न्यायालय के कर्मचारियों को पूरे आठ वर्षों बाद उनके वेतन की बकाया राशि (जो कि लगभग वेतन की आधी राशि के बराबर था )का भुगतान शुरू किया गया है | हालांकि कहानी तो पिछले बीस वर्षों से चल रही है | वर्ष 1987 में अधीनस्थ न्यायालय के कर्मचारियों द्वारा वेतन विसंगतियों को आधार बना कर और उसे दुरुस्त करने के लिए दायर की गयी गयी याचिका का निपटारा दिल्ली उच्च न्यायालय फिर अपील में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश द्वारा किये जाने के बावजूद भी येन केन प्रकारेण उनकी वेतन राशि को रोक कर रखा गया |</div>
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<br /> बार बार अदालतों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर चीख चीख कर चिल्लाता मीडीया , समाज , और अन्य लोगों के लिए शायद ही ये कोई खबर हो कि , अपने वेतन का आधा भाग लेकर गुजर बसर कर रहे कर्मचारी न तो आज तक इसके विरुद्ध कभी किसी असहयोग , आन्दोलन या हडताल के भागीदार बने न ही कभी कोई काम रोका | जब दूसरों को न्याय पाने दिलाने की जुगत में लगे कर्मचारियों तक का वेतन देने में दस दस बीस बीस वर्षों तक का विलम्ब हो और उनसे फिर भी पूरी ईमानदारी और निष्ठा से काम करने की अपेक्षा की जा सकती है तो फिर आखिर क्यों और कैसे दिल्ली के मुख्यमंत्री , ईमानदारी से काम करने के लिए बेतहाशा वेतन और संसाधन की अनिवार्यता को उचित ठहरा सकते हैं |फिलहाल वे सभी विभाग और उनमें काम करने वाले सारे कर्मचारी , जिनके यहाँ वेतन या संसाधनों का अभाव है या जान बूझ कर रख छोड़ा गया है वे यही प्रश्न करना चाह रहे हैं कि ....मुख्यमंत्री जी ..............तो क्या हम बेईमान हो जाएँ ????</div>
</div>
अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-81770894072008486742015-10-02T13:42:00.001+05:302015-10-02T13:42:37.982+05:30अजब गजब किस्से कचहरी के <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="http://www.delhidistrictcourts.nic.in/Citizen%20Charter/KKD_CC_files/image010.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://www.delhidistrictcourts.nic.in/Citizen%20Charter/KKD_CC_files/image010.jpg" height="251" width="400" /></a></div>
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यूं तो कचहरी में रोज़ ही एक नहीं बल्कि अनेक , किस्से कहानियां और दास्तानें ऐसी देखने सुनने को मिल जाती हैं कि उन्हें दर्ज करने लगूं तो पोस्ट निरंतर ही लिखने की जरूरत पड़ेगी और सोचता हूँ कि ऐसा हो भी जाए तो पिछले दिनों लगभग छूट चुकी ब्लौंगिंग में भी एक नियमितता आ जायेगी | खैर आज कानूनी मसलों , समस्याओं और गंभीर समाचारों से इतर कुछ मनोरंजक और दिलचस्प दो घटनाओं का ज़िक्र करने का मन है |</div>
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मेरी नियुक्ति इन दिनों , दिल्ली जिला न्यायालय के पूर्वी , उत्तर पूर्वी और शाहदरा जिला अदालतों के संयुक्त परिसर कडकड़डूमा न्यायालय के अभिलेखागार (दीवानी ) में बतौर अभिलेखपाल है | यहाँ तीनों जिलों की अदालतों द्वारा वर्ष २००३ से लेकर अब तक निष्पादित निस्तारित निर्णीत लगभग सत्तर हज़ार से अधिक वाद अभिलेख का देख रेख, परिचालन आदि का कार्य हम लोग करते हैं | इसी दौरान एक बेहद दिलचस्प बात सामने आयी | <br /><br />अदालतों से निर्णित वाद जब अभिलेखागार में संरक्षित होने के लिए आते हैं तो उन्हें उनके सभी ब्यौरे समेत पंजिका यानि रजिस्टर में दर्ज करने के बाद हम उसे एक विशिष्ट अभिलेख संख्या देते हैं जिन्हें उर्दू में "गोशवारा संख्या " कहा जाता है | ये गोशवारा संख्या समझिये कि अभिलेखागार में संरक्षित हर वाद का पता है जिसके अनुसार ही सत्तर हज़ार अभिलेखों या उससे भी अधिक निर्णीत वादों में से उसे आसानी से महज़ चंद सेकेंडों में निकाला जा सकता है | <br /><br />पिछले दिनों एक अधिवक्ता महोदय ऐसी ही एक निर्णीत वाद अभिलेख के निरीक्षण के लिए पधारे | उन्होंने जो गोशवारा संख्या बताई हमने जब उसके अनुसार फाईल को तलाशा तो हमें वह वहां नहीं मिली | हम परेशान हैरान कि आखिर ऐसा कैसे हुआ | हम अपने रजिस्टरों को खंगाल ही रहे थे कि इतने में अभिलेखागार में हमारे साथ नियुक्त सबसे पुराने सहकर्मी साथी आ पहुंचे | हमने उन्हें सारा माज़रा समझाया | सारा किस्सा सुनते ही उनके होठों पर एक मुस्कान तैर गयी | उन्होंने जो बताया आप भी सुनिए .........................<br /><br />उस वर्ष अभिलेखागार में दो बाबुओं नरेंद्र और मोहन की नियुक्ति थी | जाने जानकारी के अभाव में , या किसी और वजह से दोनों बाबुओं ने उस वर्ष एक ही जैसे गोशवारा नंबर बहुत सारी फाईलों को दे दिए | जब तक गलती समझ में आती बहुत देर हो चुकी थी सो उसका तोड़ निकाला गया ये कर के , जो गोशवारा नंबर नरेन्द्र बाबू ने दिए थे उन सबके साथ लग गया "N " और जो गोशवारा नंबर मोहन बाबू ने दिए थे उन पर लगा "M " तो आज तक भी वही एम् और एन चला आ रहा है और अब भी हम कभी कभी एन और एम् के चक्कर में फंस जाते हैं और फिर हर बार उसी किस्से को याद करके मुस्कुरा उठते हैं | <br /><br />दूसरा किस्सा ये रहा कि एक दिन एक अधिवक्ता एक फाईल का निरीक्षण करने पहुंचे | निरीक्षण के दौरान उस वाद में वादी/प्रतिवादी द्वारा संलग्न एक फोटो पर आ कर रुक गए | असल में दीवानी वाद जिनमें संपत्ति के आधिपत्य को लेकर प्रमाणस्वरूप उस दिन का अखबार हाथ में लेकर फोटो खिंचवा कर उसे वाद के साथ संलग्न कर देते हैं | तो उसी फोटो पर आकर वकील साहब रुक गए और फिर शुरू हुई कोशिशें उस अखबार पर दर्ज तारीख को पढने की | वाद फाईल को पढने पर भी छोटा सुराग तो मिल रहा था किन्तु ये पुख्ता तौर पर नहीं पता चल पा रहा था कि वो किस तारीख का अखबार था | वकील साहब समेत हम सब , पहले अपने चश्मों से , फिर मोबाईल से फोटो खींच कर उसे ज़ूम करके , मोबाइल में लैंस एप्प से , स्टेशनरी की दुकान से लेंस मंगवा के कुल मिला कर दर्ज़न भर कोशिशों के बाद सबने हथियार डाल दिए | बाद में तय हुआ कि वकील साहब उस फाईल में दर्ज आस पास की तिथियों के अखबार को सीधे अखबार के दफ्तर में जाकर पता करने की कोशिश करेंगे | </div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-56251360992829992652015-02-01T20:19:00.002+05:302015-05-10T18:15:10.498+05:30हां ! अब बदलने का समय आ गया है ..............<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhcppWQnsF0vGIR3nnAAhYdP5ogSaLDIijHu5EZidczPliRgOE8ur5PQsmRgiVyQvtMMhIZMAFHcwzE465-lzPHNE_UtjVH5Up4Gcavv0VGHO09AsWV4gE7ClE7hhepXfZF8d4LWddIrovf/s1600/1419590747742.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhcppWQnsF0vGIR3nnAAhYdP5ogSaLDIijHu5EZidczPliRgOE8ur5PQsmRgiVyQvtMMhIZMAFHcwzE465-lzPHNE_UtjVH5Up4Gcavv0VGHO09AsWV4gE7ClE7hhepXfZF8d4LWddIrovf/s1600/1419590747742.jpg" /></a></div>
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इन दिनों एक अजीब ही माहौल बना हुआ देश का , कहा जाए कि पूरा देश ही परिवर्तम मोड में है , मुझे लगता है कि यही वो समय है जब समाज के हर तबके , हर वर्ग , हर क्षेत्र से उन चुनिंदा लोगों को अब साहस के साथ सामने आना चाहिए जिनके मन और उद्देश्य में कहीं न कहीं कुछ बहुत ही प्रयोगधर्मी पनप रहा है । हम सब इस समाज की एक कडी हैं इसलिए ये बहुत जरूरी हो गया है कि हम अपना कल कैसा देखना चाहते हैं उसके लिए हमने आज से क्या और कितने प्रयास किए , विशेषकर गलतियों से सीखते हुए निरंतर उसमें सुधार की कोशिश । यहां मैं कभी कभी सोचता हूं कि पिछले सत्रह वर्षों में मैंने अदालतों की रफ़्तार को तो बढते देखा है मगर जाने क्यों मुकदमों के दबाव को पछाड नहीं पाता । </div>
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एक अदालत कर्मी के रूप में , कानून के एक विद्यार्थी के रूप में और निरंतर बदलती हुई न्यायिक व्यवस्थाओं के प्रत्यक्ष साक्षी होने के नाते हम और हमारे सहकर्मियों का अब ये एक दायित्व बन जाता है कि अब इस संस्थान को हम अपने अनुभव के आधार पर वो चुस्त व्यवस्था और प्रक्रियाएं सौंप के जाएं कि कल होकर आज से बीस या तीस साल बाद जब हम कार्यरत न हों तो लगे कि काश ये व्यवस्था उस समय ठीक होन शुरू की गई होती तो यकीनन ही आज हालात कुछ और होते । </div>
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न्यायालयों पर मुकदमों के बढते दबाव को हम अदालतकर्मी ही न सिर्फ़ बखूबी अपने कंधों पर महसूस करते हैं बल्कि अत्याधुनिक तकनीकों के साथ गजब का सामंजस्य बनाते हुए जरा भी बैकफ़ुट पर नहीं जाते । हैरानी इस बात को लेकर होती है कि जब हम अपने दफ़्तर के दबाव और कार्यबोझ को एकदम संवेदनशीलता के साथ उठा पा रहे हैं तो फ़िर आखिर हमारी ये कर्मठता उस समय क्यों और कहां चली जाती है जब बात खुद हम पर आती है । कहीं कोई संगठनात्मक ईकाई नहीं ,कोई प्रतिनिधित्व नहीं , कल्याणकारी योजनाएं तो दूर , सहकर्मी गण आपसे में भी शायद ही कभी एकत्र होकर आज तक बुनियादे समस्याओं से लेकर सुधारों की संभावनाओं पर विमर्श कर पाए हों । </div>
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काम बहुत विस्तृत और समयबद्ध होकर किए जाने की अपेक्षा रखता है । हम और हमारे जैसे अन्य सभी सहकर्मी अपने अनुभवों को साझा करते हुए विभिन्न स्तरों पर इन सभी अलग अलग तरह की समस्याओं , प्रक्रियात्मक कठिनाइयों , प्रशासनिक कार्यवाहियों , कल्याणकारी योजनाओं और प्रतिस्पर्धी वातावरण को तैयार किए जाने जैसे अनेक क्षेत्रों के लिए कार्य कर सकते हैं । </div>
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मैं अपने पिछले कार्यालयीय अनुभव के आधार पर न्याय प्रशासन की प्रक्रियात्मक कार्यवाहियों को जितनी बारीकी से परख रहा हूं उतनी ही बारेकी से उन्हें समुचित रूप से दक्ष किए जा सकने के प्रयासों और प्रयोगों पर भी कार्य कर रहा हूं । छोटे छोटे कई भागों में बंटी हुई ये रिपोर्ट एक मेगा प्रोजेक्ट रिपोर्ट के रूप में सर्वोच्च स्तर तक विमर्श और आकलन हेतु प्रस्तुत की जा सके यही मेरा प्रयास होगा । </div>
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आगामी पोस्टों में मैं विस्तार से अपनी योजनाओं का खुलासा करूंगा .....और चाहूंगा कि न सिर्फ़ आम पाठक बल्कि सहकर्मी मित्र भी पढ कर न सिर्फ़ मार्गदर्शन करें बल्कि सुझाव व विचार भी दें ...साथ और स्नेह का आकांक्षी ............</div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-28675459106391531112014-11-24T21:22:00.002+05:302014-11-24T21:22:21.297+05:30मुकदमेबाज़ी बनाम मध्यस्थता(व्यावसायिक वाद संदर्भ) : एक टिप्पणी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<u><i><b>मध्यस्थता को स्वीकारने की युक्तियुक्तता </b></i></u></div>
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<a href="https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRjoPABw3PhEFe04D2BDd6B08B34hu_VTGhIvd-1lTcCj8IQkDG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="112" src="https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRjoPABw3PhEFe04D2BDd6B08B34hu_VTGhIvd-1lTcCj8IQkDG" width="320" /></a></div>
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मध्यस्थता, व्यावसायिक विवादों के निपटान की तीव्र गति से विकसित होती विवाद निस्तारण तकनीक है क्योंकि यह विवाद निपटान प्रक्रिया को गति देता है । यह विवादित पक्षों को विवाद निपटाने के लिए अपने व्यावसायिक सलाहकारों की सहायता लेने को सशक्त सलाहकारों की सहायता लेने को सशक्त करता है ताकि वे स्वेच्छा से परस्पर स्वीकृत निदान या समझौते पर स्वयं पहुंच सकें । </div>
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मध्यस्थता हेतु ल्कोई विवाद उपयुक्त है अथवा नहीं , इस निर्णय पर पहुंचने के लिए निम्नलिखित तत्वों की सहायता ली जा सकती है । अधिकांश मामलों में प्राथमिक कारण यह है कि विवादित पक्ष , त्वरित समाधान द्वारा आपसी हितों को साझा करते हुए एक दूसरे से वाणिज्यिक संबंध कायम रखना चाहते हैं । मुकदमेबाज़ी के व्ययसाध्य , लंबा खिंचने वाला था अनिश्चिति होने के कारण दोनों पक्ष मध्यस्थता को प्राथमिकता/वरीयता देते हैं । और न ही दोनों पक्ष ऐसे किसी विवाद से उत्पन्न मुकदमेबाज़ी से जुडी प्रख्याति में पडना चाहते हैं ।</div>
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मध्यस्थता एक मंच प्रदान करता है , पक्षों को प्रोत्साहित कर स्वयं निर्णयन का , उनकी आवश्यकताओं व हितों की पहचान करने का , सभी पक्षों की आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के विकल्प उत्पन्न करता है , हितों की पूर्ति को विस्तृत करके , अपने स्वयं के नतीज़ों का निर्माण करने का । मध्यस्थता दोनों पक्षों के संबंधों /रिश्तों को लक्ष्य बनाता है । दोनों पक्षों को , मान्यता व सशक्तता की एक प्रक्रिया द्वारा ,साथ ही उस रूप में , जिसमें , वे एक दूसरे से संबंधित हों , स्वीकृति व सहमति की सुविधा प्रदान करता है । दूसरे शब्दों में दोनों पक्षों के बीच संवाद का विकास करना ही उद्देश्य है । </div>
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जो भी हो , मध्यस्थता का चुनाव पक्षों की सोच को बदलने में सहायता करता है । यह दोनों पक्षों के लिए एक दूसरे के साथ आकर विवाद के विषय में एक दूसरे का मत जानने व संभाव्य रूप से उन्हें परस्पर स्वीकार्य निर्णय बिंदु तक पहुंचने के लिए प्रोत्साहित करता है ॥ </div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-53557088714484188942014-11-14T20:17:00.000+05:302014-11-14T20:17:38.808+05:30बदलती न्यायिक व्यवस्थाएं - एक विमर्श <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYLPdUYYopYSLmLff_n9IIOupac39meVmz87YiH2lj-9WIQO8Ryz3T37a5vWKMojAvijq-L57PpZ5YDgc2_0Ia54vMGHc2Ouhz9CZx_ytOf5YDOY3clXk3iFEG96V10-bKcS4yiR3tIPlq/s1600/justice.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYLPdUYYopYSLmLff_n9IIOupac39meVmz87YiH2lj-9WIQO8Ryz3T37a5vWKMojAvijq-L57PpZ5YDgc2_0Ia54vMGHc2Ouhz9CZx_ytOf5YDOY3clXk3iFEG96V10-bKcS4yiR3tIPlq/s1600/justice.jpg" /></a></div>
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देश की प्रशासनिक संरचना को तय करते समय जिस बात का ध्यान सबसे अधिक रखा गया था वह बात थी शासन व्यवस्था के तीनों अंगों के बीच कार्य व शक्ति का पृथ्क्करण व सबसे ज्यादा इनके बीच समान संतुलन । चाहे अनचाहे, गाहे-बेगाहे ये तीनों ही राज्य के प्रशासनिक ढांगे को स्थाई व दुरूस्त रखने के लिए आमने-सामने आते ही रहते हैं । पिछले कुछ वर्षों में विधायिका द्वारा लिए गए अहितकर निर्णय या कानूनों के निर्माण में व्याप्त खामियां , राजनीति, व राजनीतिज्ञों का गिरता स्तर , अपराध व भ्रष्टाचार में संलिप्तता आदि ने न्यायपालिका को अधिक मुखर या कहें कि अति सक्रियता का अवसर दे दिया । </div>
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इसका एक दुष्परिणाम ये निकला कि न्यायपालिका जिस पर विवादों के निपटान की अहम जिम्मेदारी थी उसने राज्य संचालकों के लिये दिशा निर्देशन की भूमिका भी विवशत: अपने कंधों पर उठा ली । और शायद यही सबसे बडी वजह रही कि पिछले सिर्फ़ एक दशक में न्यायपालिका में शीर्ष स्तर से लेकर निचले स्तर तक समाज में व्याप्त हर कुरीति व बुराई का समावेश देखने को मिल गया ॥ </div>
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शीर्ष न्यायिक अधिकारियों पर भ्रष्टाचार में संलिप्तता से लेकर यौन अपराध किए जाने तक के आरोप लगे । मामला सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं रहा बल्कि विख्यात व प्रतिष्ठित न्यायविदों की आपसी छींटाकशी ने आम लोगों के सामने बहुत सी अप्रिय बातें ला दीं । न्यायपालिका में बुरी तरह पैठ बना चुका भाई भतीजावाद , लॉबिंग, अवकाश प्राप्ति के पश्चात किसी पद पर पदारुढ होने/किए जाने की संभावना के मद्देनज़र सरकार के प्रति नरम दृष्टिकोण आदि ने यह जता दिया था कि न्यायपालिका की विश्वसनीयता व निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए वहां भी सुधार की आवश्यकता है , विशेषकर न्यायपालिका के प्रशासन क्षेत्र में ॥ </div>
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हालांकि ऐसा नहीं था कि विधायिका या सरकार इस ओर कोई कदम नहीं उठा रही थी । पूर्व की सरकारों ने जहां " अखिल भारतीय न्यायिक सेवा आयोग" तथा "judges accountability bill" ज़ज़ेस अकाउंटिबिलिटी बिल पर कार्य व प्रस्ताव किया था । वहीं नवगठित सरकार भी इस दिशा में कई नई संकल्पनाओं व विकल्पों पर कार्य शुरू कर चुकी है । वर्तमान सरकार ने सबसे पहले उन कानूनों की छंटाई का काम अपने जिम्मे लिया जो बरसों पुराने होने के साथ साथ आउटडेटेड यानि औचित्यहीन हो गए थे ॥ </div>
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ऐसे लगभग छ : सौ से अधिक छोटे बडे कानूनों का अध्ययन करके उन्हें परिवर्तित या समाप्त/निरस्त करने की योजना प्रस्तावित है । यहां यह उल्लेख करना दिलचस्प होगा कि अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई एक याचिका पर न्यायालय ने ऐसे ही पूर्व में निरस्त किए जा चुके एक कानून के प्रयोग पर हैरानी जताते हुए सरकार से स्थिति स्पष्ट करने के को कहा है ॥ </div>
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सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति व पदोन्नति की प्रचलित कोलेजियम प्रणाली में आमूल चूल परिवर्तन की ओर भी वर्तमान सरकार कदम बढा चुकी है । पिछले कुछ समय से इस कोलेजियम व्यवस्था पर येन केन कारणों से प्रश्नचिन्ह लग रहे थे । कई पूर्व न्यायाधीशों ने भी समय समय पर इस व्यवस्था पर टीका टिप्पणी करके अपना असंतोष व्यक्त किया है । नई व्यवस्था में न्यायाधीशों के एकाधिकार की स्थिति को बदलने का प्रयास किया गया है । </div>
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इसके अलावा नई सरकार ने देश भर में बहुत सारी अदालतों के गठन की योजना, विवाद निपटान की गैर न्यायिक व्यवस्थाओं के विकल्प व संभावनाओं पर कार्य योजना, अदालतों को पूरी तरह डिजिटलाइज़्ड करके पारदर्शी बनाना, गरीबों व निशक्तों को न्याय सुलभ कराने के लिए कई नई व्यवस्थाओं व योजनाओं पर कार्य किया जा रहा है ॥ </div>
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विधायिका द्वारा न्यायिक व्यवस्थाओं में ऐसे परिवर्तनों के प्रयास पर न्यायपालिका ने चेताया है कि न्यायपालिका की शक्तियों में किसी भी तरह के अंकुश लगाने या उसमें कमी करने की किसी भी कोशिश को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा , किंतु यहां न्यायपालिका को भी खुद ये आत्ममंथन करना होगा कि आखिर क्यों नहीं वो सुधार / विकल्प अपनाए जाएं जो अंतत: न्यायपालिका को ही चुस्त दुरूस्त करेंगे । न्यायपालिका यूं भी अपने न्यायिक कार्यों के बोझ से पहले ही ग्रस्त है ऐसे में यदि न्यायपालिका के प्रशासनिक क्षेत्र में सुधार और कसाव के लिए विधायिका अच्छे उद्देश्य से कोई परिवर्तन करती है तो बिना जांचे परखे उसे नकारना या समय से पहले ही उसकी आलोचना/विश्लेषण करना ठीक नहीं होगा ॥ इन परिवर्तनों का क्या और कितना प्रभाव पडेगा ये तो आने वाला समय ही बताएगा किंतु फ़िलहाल तो सकारात्मक परिणामों की ओर ही आशान्वित रहा जाना चाहिए ॥ </div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-87948041682134049122014-01-31T19:36:00.001+05:302014-01-31T19:36:24.034+05:30उम्र और अपराध पर न्यायिक विमर्श <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<img alt="http://thecalibre.in/wp-content/uploads/2013/02/juvenile-justice.jpg" class="decoded" height="158" src="http://thecalibre.in/wp-content/uploads/2013/02/juvenile-justice.jpg" width="400" /><br />
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<a href="http://kort-kachahri.blogspot.in/2013/09/blog-post_13.html" target="_blank"><span style="background-color: #351c75;">मेरे इस प्र<span style="background-color: #351c75;"><span></span></span>श्न पर </span> <span style="color: purple;"> </span></a><span style="color: purple;"><a href="http://kort-kachahri.blogspot.in/2013/08/blog-post_31.html" target="_blank">विधिक शास्त्रार्थ की प्रक्रिया</a></span> माननीय उच्चतम न्यायालय में प्रारंभ हो चुकी है । हालांकि सुनवाई में न्यायालय ने ये तो फ़िलहाल स्पष्ट कर ही दिया है कि इस मामले में वसंत विहार बलात्कार कांड में सज़ा भुगत रहे किशोर की सज़ा और मुकदमे पर विचार नहीं किया जाएगा । <br />
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<b>वास्तव में विधि को विभिन्न आयामों में परिभषित करने का गौरवपूर्ण कार्य सिर्फ़ सर्वोच्च न्यायालय के जिम्मे होता है । समाज के परिवर्तित हो रहे रूप से निकलने वाले बदलावों को सभ्यता के लिए उचित अनुचित की कसौटी पर कसकर उन्हें अपनाए जाने या ठुकराए जाने का विधिक प्रमाणपत्र जारी करता है सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला । अभी हाल ही में ऐसे दो बडे सामाजिक बदलावों की मान्यता के लिए उसे न्यायपालिका की कसौटी पर कसने का प्रयास किया गया था । जहां लिव-इन-रिलेशनशिप को वैधानिक दर्ज़ा मिल गया वहीं समलैंगिकता प्रतिबंधित ही रही । </b></div>
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कानून के छात्र के रूप में जब भारतीय दंड संहिता , अपराधशास्त्र एवं दंड
प्रशासन को पढते हुए "किशोर और अपराध" को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है ।कानून में "किशोर अपराध" को पढते हुए एक सबसे अहम बात ये समझ आई कि जहां उसके किशोर वय को परिभाषित करने के लिए उसकी आयुमात्र को आधार माना गया है वहीं जब उसके अपराध निर्धारण का निर्णय किया जाता है तो उसमें आधार बनता है किए गए अपराध और उसके फ़लस्वरूप घटने वाले परिणाम के बारे में अपराध करने वाले किशोर की समझ । </div>
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वर्तमान कानूनी स्थिति ऐसी है कि सात वर्ष से कम आयु के शिशु द्वारा किया गया अपराध उस शिशु के लिए दंडनीय नहीं नाना जाता है क्योंकि उस आयु तक शिशु की समझ सामान्यतया अपराध के रूप में अपने कृत्य की समझने , लायक मानसिक परिपक्वता नहीं होती है । सात से बारह वर्ष की आयु के किशोरों द्वारा कारित कृत्य भी अपराध नहीं माना जाएगा । यदि कारित कृत्य के प्रति उस किशोर की समझ मानसिक अपरिपक्वता प्रमाणित हो जाए । 7 से 12 वर्ष के बीच के केवल उन बालकों को संरक्षण के योग्य माना जाना चाहिए जिनका बौद्धिक स्तर अपवाद स्वरूप रूप से अपरिपक्व है । </div>
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<b>वर्ष 2000 के नए व वर्तमान में लागू नवीन किशोर न्याय (बालकों की देखरेख एवं संरक्षण ) अधिनियम के पारित हो जाने के परिणाम स्वरूप बालक और बालिकाएं दोनों ही किशोर माने जाने की आयु 18 वर्ष कर दी गई जबकि इसके पूर्व यह आयु बालकों के लिए 16 वर्ष तथा बालिकाओं के लिए 18 वर्ष थी । इसका एक त्वरित परिणाम ये निकला कि वर्ष 2001-2002 में किशोर अपराध के आंकडे में अचानक ही 14 % की वृद्धि दर्ज़ की गई । यानि स्पष्ट था कि उम्र सीमा बढाने अपराध और अपराधियों की संख्या में ईज़ाफ़ा देखने को मिला था । </b><br /><br />जहां तक न्यायपालिका द्वारा इस उम्र और अपराध पर न्यायिक दृष्टिकोण स्पष्ट करने की बात है तो ये कोई पहला अवसर नहीं है जब न्यायपालिका के समक्ष ऐसी परिस्थितियां आई हैं कि जब उसे उम्र और अपराध या उम्र के साथ जुडे किसी सामाजिक प्रश्न को स्थापित और मानक विधिक नियमों कानूनों की कसौटी पर कसना होता है वो भी बिना उसके मानवीय पहलू और न्याय के प्रथम सिद्धांत कि "न्याय सिर्फ़ होना नहीं चाहिए बल्कि न्याय होते हुए स्पष्टत: महसूस भी होना चाहिए । " की अनदेखी किए बगैर ।<br /><br /> तीन वर्ष पहले ही सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दिल्ली के एक स्कूली छात्र और छात्रा का ऐसा युगल सामने आया जिन्होंने आपसी सहमति से प्रेम विवाह कर लिया था , जबकि पुत्री के पिता द्वारा पुलिस में अपनी पुत्री के अपहरण आदि का मुकदमा दायर कर दिया था । इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले में दिए तर्कों के आधार पर उन दोनों अवयस्क युगल के विवाह को पूरी तरह कानूनी करार दिया । वास्तव में न्यायालय ने किशोरी की उम्र , मानसिक परिपक्वता , शारीरिक विकास और समझ आदि के आधार पर ये माना था कि चूंकि बालिका दिल्ली जैसे महानगर में पल बढ व शिक्षा पा रही है एवं ग्रामीण परिवेश की हम उम्र किसी बालिका से ज्यादा सजग व सचेत दिखाई जान पडती है । इस फ़ैसले पर उस समय कई सामाजिक संगठनों ने असहमति भी जताई थी । <br /><br /><b>अब देखना ये है कि वर्ष 2000 से लागू इस कानून पर न्यायपालिका का क्या रुख रहेगा , हमें ये भी ध्यान रखना होगा कि दामिनी बलात्कार कांड के बाद सरकार द्वारा उठाए गए कदमों में से एक और बहुत ही अहम , <a href="http://ajaykumarjha.com/archives/2676" target="_blank">जस्टिस वर्मा कमेटी का गठन </a>, उसकी अनुशंसा और उसमें किशोरों की उम्र सीमा में किसी भी तरह के फ़ेरबदल से इंकार का नज़रिया । बहरहाल जो भी हो , आंकडे बताते हैं कि किशोर अपराध के मामले में पश्चिमी देशों की स्थिति ज्यादा बुरी है । </b></div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-49848136200749798732013-12-29T19:01:00.001+05:302013-12-29T19:01:25.516+05:30नई तकनीकों से लैस होता कडकडडूमा कोर्ट <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://www.delhidistrictcourts.nic.in/Citizen%20Charter/KKD_CC_files/image010.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="http://www.delhidistrictcourts.nic.in/Citizen%20Charter/KKD_CC_files/image010.jpg" height="251" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">कडकडडूमा न्यायालय परिसर का प्रवेश द्वार </td></tr>
</tbody></table>
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<br />दिल्ली की सभी पांच जिला अदालत परिसरों में से कडकडडूमा न्यायालय , जिसमें वर्तमान में दिल्ली के तीन जिलों , पूर्वी , उत्तरपूर्वी और शाहदरा जिला , की अधीनस्थ अदालतें काम कर रही हैं , का विकास शुरू से ही एक आदर्श कोर्ट परिसर की तरह किया गया है । बहुत से नए प्रयोगों व शुरूआत के लिए न्यायिक सुधारों के इतिहास में पहले से ही अपनी ख्याति का परचम लहरा रहे इस न्यायालय परिसर में , देश का पहला ई कोर्ट , देश का पहला संवेदनशील गवाह कक्ष एवं परिसर , हरित न्यायालय परिसर आदि के अलावा यहां सांध्यकालीन अदालतें , नियमित लोक अदालतें , मध्यस्थता केंद्र , विधिक सेवा प्राधिकरण , दिल्ली न्यायिक अकादमी , ई कोर्ट शुल्क वितरण केंद्र , सुविधा एवं सूचना केंद्र जैसे अनेक प्रयास लगातार किए जा रहे हैं । अब इनका परिणाम भी दिखने लगा है । <br /><br /><br />हाल ही में ऐसे कुछ और प्रयासों की शुरूआत की गई है । अदालत भवन के प्रवेश द्वार प्रांगण में स्थित "सुविधा एवं सूचना केंद्र" में अधिवक्ताओं व आम लोगों के लिए विभिन्न प्रयोजनों हेतु बनाई गई खिडकियां (काउंटर्स) को माइक एवं स्पीकर से जोडा गया है । वास्तव में इन खिडकियों में बाहर की तरह कतारों में खडे लोगों को भीतर बैठे कर्मचारी द्वारा कही गई या बताई गई कोई बात अथवा जानकारी सुनने में काफ़ी परेशानी होती थी । चूंकि इस तरह की बारह खिडकियां बिल्कुल साथ साथ होने के कारण सुनने में काफ़ी असुविधा होती थी । इस समस्या को दूर करने के लिए सभी बारह खिडकियों पर उच्च तकनीक वाले माइक तथा स्पीकर लगा दिए गए हैं जिससे अब आम लोगों व अधिवक्ताओं को आसानी से सुना व कहा जा सकता है । ज्ञात हो कि प्रवेश द्वार के साथ ही बनी हुई खिडकी संख्या दो "पूछताछ एवं सहायता खिडकी" है जहां से न सिर्फ़ अदालत में चल रहे किसी भी वाद , उसके पक्ष , तारीख आदि के बारे में जानकरी दी जाती है बल्कि अन्य सभी जानकारियां भी उपलब्ध कराई जाती हैं । <br /><br /><br /><b>इसके अलावा बहुत समय से प्रतीक्षित योजना "केस स्टेटस कंप्यूटर नोटिस बोर्ड" को भी हाल ही में स्थापित किया गया है । अदालत भवन में प्रवेश करते ही एक बडा कंप्यूटर नोटिस बोर्ड आम लोगों को दिखाई देगा ये कुछ इस तरह का जैसा आपने रेलवे स्टेशनों पर गाडियों की आवक जावक की सूचना हेतु लगा देखा होगा । इस बोर्ड पर सभी अदालतों की कक्ष संख्या , उसके आगे उस समय उस अदालत में चल रही वाद संख्या एवं पक्षों का नाम प्रदर्शित होते हुए देखा जा सकेगा । वास्तव में इस कंप्यूटर बोर्ड को अदालत कक्षों में न्यायाधीश महोदय के साथ बैठे रीडर(पेशकार) के कंप्यूटर के साथ जोड दिया गया है ,किसी वाद की संख्या और पक्ष का नाम वहां टंकित करते ही इस सूचना बोर्ड पर वह प्रदर्शित होने लगेगा । ज्ञात हो कि कडकडडूमा अदालत परिसर में तीन जिला अदालतों के अधीन लगभग सौ अदालतें काम करती हैं जो पांच ब्लॉकों में विभाजित हैं । ऐसी ही एक सूचना पट्टिका अधिवक्ता चैंबर ब्लॉक्स में भी स्थापित कर दी जाएगी । इसका लाभ ये होगा कि अधिवक्ताओं सहित आम लोगों को भी इस बोर्ड पर प्रदर्शित सूचना से पता चल जाएगा कि अमुक अदालत में अभी अमुक संख्या के वाद की सुनवाई हो रही है । ज्ञात हो कि दिल्ली उच्च न्यायालय में ये व्यवस्था पहले से ही है । </b><br /><br /><br />इसके अलावा भविष्य में अदालतों में आने वाली भीड और उसके कारण सुरक्षा व्यवस्था पर बढते हुए दबाव , गवाहों के साथ मारपीट की घटनाओं आदि को ध्यान में रखते हुए , मुख्य प्रवेश द्वार पर ही आम व्यक्तियों के लिए पास की व्यवस्था की शुरूआत की जाने वाली है । इससे यह लाभ होगा कि अनावश्यक ही अदालतों में भीड बढाने वाली संख्या को संतुलित एवं नियंत्रित किया जा सकेगा । उम्मीद है कि नित निरंतर प्रयोगों की इस रफ़्तार के साथ ही लोगों को त्वरित न्याय मिलने की रफ़्तार में भी तेज़ी आएगी <br /><br /><br /><b>अगली पोस्ट :- फ़ैसलों और अदालत का वर्ष -2013</b></div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-14058785652177771232013-09-13T22:56:00.000+05:302013-09-13T22:56:46.663+05:30मृत्युदंड : फ़ैसले के बाद क्या ???<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcStEVJiuPewdIxq3qOxhJqYKePu5whoMB77knOVm3uFo8Udl1l7aw" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcStEVJiuPewdIxq3qOxhJqYKePu5whoMB77knOVm3uFo8Udl1l7aw" /></a></div>
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दिल्ली बलात्कार कांड के फ़ैसले के आने से पहले यदि किसी से भी पूछा जा रहा था कि वो इस अपराध के आरोपियों को क्या सज़ा पाते हुए देखना चाहते हैं तो दस में आठ व्यक्तियों का कहना था कि , उन्हें मौत की सज़ा मिलनी चाहिए । खुद गृह मंत्री तक भावावेश में एक विवादास्पद बयान दे गए कि मौजूदा कानूनों के तहत तो आरोपियों को सज़ा- ए -मौत का दंड ही दिया जाना चाहिए । जिस क्रूरतम तरीके से ये अपराध किया गया था उसी समय से दोषियों के खिलाफ़ एक और सिर्फ़ एक ही सज़ा , यानि फ़ांसी की पुरज़ोर मांग उठने लगी थी । किंतु कानून न तो जन भावनाओं पर चलता है न ही आवेश में आकर कोई फ़ैसला सुनाता है , हालांकि ऐसे अपराधों के लिए इससे पहले फ़ांसी की सज़ा न दी गई हो । कुछ वर्षों पहले धनंजय चटर्जी नामक एक व्यक्ति को , बलात्कार और बलात्कार के बाद हत्या के आरोप में मृत्युदंड की सज़ा दी गई थी । <br />
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अब जबकि दिल्ली बलात्कार कांड के छ: अपराधियों में से चार को फ़ांसी की सज़ा सुना दी गई है तो स्वाभाविक रूप से इसके बाद की परिस्थितियों पर भी नज़र डालना जरूरी हो जाता है । किसी भी अभियुक्त को जब निचली अदालत फ़ांसी की सज़ा सुनाती है तो एक महीने के अंदर ही केस फ़ाइल और न्यायिक आदेश को संबंधित उच्च न्यायलय की संपुष्टि या अनुमोदन के लिए प्रेषित कर दिया जाता है । यदि अदालत निचली अदालत के आदेश की संपुष्टि कर देती है तो अभियुक्त इस आदेश के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकता है । अंतिम आदेश के रूप में यदि सर्वोच्च न्यायालय भी इस अधिकतम सज़ा पर मुहर लगा देता है तो इसके बाद अभियुक्त राष्ट्रपति के समक्ष क्षमा याचिका दायर कर सकता है और इतना ही नहीं राष्ट्रपति द्वारा क्षमा याचिका को ठुकराए जाने के आधार को भी चुनौती देते हुए पुन: सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की जा सकती है । इन सभी चरणों के बाद भी यदि मौत की सज़ा ही बरकरार रहती है तो फ़िर न्यायालय एक नियत तारीख तय कर देती है , जिस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने के बाद .'warrent of death" अभियुक्त को फ़ांसी पर उसके प्राण निकलने तक लटका कर उसे मृत्यु दंड दिया जाता है । यानि वर्तमान सज़ा इस लडाई की पहली सीढी या कहें कि पहली सफ़लता मानी जा सकती है । <br />
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<b>जहां तक इस मुकदमे के परिप्रेक्ष्य में बात की जाए तो इस सज़ा का सबसे बडा प्रभाव पडेगा उस बचे हुए नाबालिग आरोपी की सज़ा पर , वो भी उस स्थिति में जब सर्वोच्च न्यायालय में लंबित याचिका के फ़ैसले में "नाबालिग " की नई परिभाषा , इस आरोपी को भी अपने अंज़ाम तक पहुंचा सकेगी । दूसरा प्रभाव ये कि यदि ऊपरी अदालतों में किसी भी वजह से अधिकतम सज़ा को कम भी किया गया तो ये आजीवन कारावास से कम नहीं होगा , और यहां बताता चलूं कि अब सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1997 में गोपाल विनायक गोडसे बनाम महाराष्ट्र राज्य वाद में ये बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि आजीवन कारावास का पर्याय है मृत्यु तक कारावास । इस वाद में मौजूदा न्यायिक परिस्थितियों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि बेशक अपील दर अपील ये मुकदमा लंबा समय ले ले किंतु अंतिम परिणति तक पहुंचेगा अवश्य । और यदि समाज और संचार माध्यमों ने इसी तरह त्वरित न्याय पाने के लिए दबाव बनाए रखा तो नि: संदेह इसमें न्याय पाने के लिए धनंजय चटर्जी मामले की तरह लंबा समय नहीं लगेगा । इस फ़ैसले का एक तात्कालिक प्रभाव ये भी पडेगा कि अभी लंबित सभी ऐसे मुकदमों में न्यायाधीश इसी तरह की हिम्मत दिखा सकेंगे जो बेशक बहुत कम प्रतिशत ही सही मगर अपराधियों में एक तात्कालिक भय तो जरूर पैदा करेगा । </b></div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-53615560483377875342013-09-12T22:41:00.001+05:302013-09-12T22:41:28.519+05:30दंडव्यवस्था पर एक बहस <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrxO2JTb0l74biZpRj5YFkRhv7S63puMmuSThcl5HUokQDXHAk5KhDPzIsNen34OM5EWmXtu43U2sIn2zhrXBdAWcFOBWgpZmL99MDtLYwJIglndA2MVVxWbMjPjXCBsM7jaDP5-79KcPW/s1600/%E0%A4%A6%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrxO2JTb0l74biZpRj5YFkRhv7S63puMmuSThcl5HUokQDXHAk5KhDPzIsNen34OM5EWmXtu43U2sIn2zhrXBdAWcFOBWgpZmL99MDtLYwJIglndA2MVVxWbMjPjXCBsM7jaDP5-79KcPW/s640/%E0%A4%A6%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0.jpg" width="427" /></a></div>
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दिल्ली
बलात्कार कांड की अंतिम परिणति या कहा जाए कि भारतीय न्याय व्यवस्था जो कम
से कम त्रिस्तरीय तो है ही , उसके पहले चरण का अंतिम फ़ैसला अब आने को है ।
इस वक्त देश और पूरे समाज की निगाहें इस फ़ैसले की ओर लगी हुई हैं ।
आरोपियों को सभी धाराओं में दोषी ठहराए जाने के बाद अब जबकि उनको दी जाने
वाली सज़ा पर भी बहस हो चुकी है तो अगले कुछ घंटों के भीतर ही माननीय
अदालत द्वारा ये भी तय कर दिया जाएगा कि उन्हें अभी मौजूद दो अधिकतम सज़ाओं
के विकल्प "उम्रकैद या फ़ांसी" में से कौन सी सज़ा दी जाएगी । चूंकि ये वो
अपराध था जिसने पूरे देश को न सिर्फ़ उद्वेलित किया बल्कि महिलाओं के
विरूद्द होने वाले अपराध और उनके शोषण को रोकने के लिए प्रस्तावित और
बरसों से लंबित कानून को पारित करने में अहम भूमिका निभाई । सरकार ने आनन
फ़ानन में दिवंगत न्यायाधीश जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति का भी
गठन किया जिसने पूरे देश से इस मामले पर सुझाव और विचार मांग कर अपनी
रिपोर्ट प्रस्तुत की । इसी के मद्देनज़र कानूनों में बदलाव करके न सिर्फ़ दंड व्यवस्था को कठोर किया गया बल्कि बलात्कार जैसे अपराध की परिभाषा को और विस्तृत करके " यौन शोषण " कर दिया गया । </div>
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इस विशेष मुकदमे से इतर इससे पहले भी ऐसे मौके आते रहे हैं जब फ़ांसी और उम्रकैद की सज़ा पर न सिर्फ़ बहस उठ खडी हुई बल्कि पिछले दिनों तो दिल्ली की एक अदालत ने एक सप्ताह में ही पांच मुजरिमों को सीधे फ़ांसी की सज़ा सुनाई है । ज्ञात हो कि बलात्कार के मुजरिमों को फ़ांसी की सज़ा , धनंजय चटर्जी के मुकदमे और उसे मिली फ़ांसी की सज़ा के समय से शुरू हुई थी , खासकर ये बात कि किसी सज़ा को सुनाए जाने से उसे परिणति तक पहुंचने में यानि उसे फ़ांसी मिलने में 13 वर्षों का लंबा समय लगा था । उस समय के बाद अनेक मुकदमों में जब जब भी किसी को फ़ांसी की सज़ा सुनाई गई हर बार इस अधिकतम सज़ा पर एक बहस उठ खडी होती रही है । <br /><br /><br /><b>दंड : विधिशास्त्र के अनुसार यदि निचोड में कहा जाए तो सामाजिक व्यवस्था के लिए जो कानून निर्मित किए जाते हैं उनके उल्लंघन को रोकने के लिए भय के रूप में जो शारीरिक , मानसिक , आर्थिक, या सामाजिक कष्ट पहुंचाया जाता है , वह दंड कहलाता है । दंड के विभिन्न सिद्धान्तों में मुख्यत: चार सिद्धान्तों को स्वीकार किया गया है , जो प्रतिरोधात्मक , प्रतिशोधात्मक , निरोधात्मक , या सुधारात्मक सिद्धान्त कहलाते हैं । आधुनिक युग में एक नए सिद्धान्त उपचारत्मक सिद्धान्त को भी मान्यता दी गई है । विश्व के सभी देशों ने इन्हीं दंड सिद्धातों में से कोई न कोई सिद्धांत अपनाया व लागू किया हुआ है । किंतु इन सिद्धान्तों के प्रयोग और उनके अनुसार दी गई सज़ाओं से अपराध में कितनी कमी आई या कि सज़ा का अपराधियों में कितना भय बैठा इसका आकलन करने का शायद ही कभी प्रयास किया गया हो । </b><br /><br />भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो प्राचीन काल में भारत में मुख्यत: चार प्रकार की दंड व्यवस्थाएं प्रचलित थीं <br /><br />वाकदंड या चेतावनी <br />प्रायश्चित<br />
अर्थदंड<br />
कारावास, मृत्युदंड , बध-दंड या अंग विच्छेद । <br /><br /><br /><br />कालांतर में अमानवीय दंड प्रथाओं के स्थान पर सुधारात्मक दंड व्यवस्था की ओर भारतीय विधि का झुकाव हुआ । किंतु इसके बावजूद भी चूंकि भारतीय विधि एक लिखित और इस कारण सीमित विधि की श्रेणी में आती थी इसलिए तय अपराधों के लिए एक नियत तय सज़ा को देने की व्यवस्था ही बहाल रखी गई । हालांकि पिछले दो दशकों में भारतीय विधिक व्यवस्थाओं में तेज़ी से बदलाव देखने को मिले हैं और प्रयोग के तौर पर ही सही किंतु उन नई दंड प्रणालियों , जैसे सामाजिक संस्थानों में सेवा देना , आरोपियों पर अर्थदंड लगाकर उस राशि से पीडितों को सहायता देने आदि को भी आज़माया जाने लगा है । <br /><br />अब इस मुकदमे के संदर्भ में यदि इस क्रूरतम अपराध के लिए भारतीय कानून में उपलब्ध दो अधिकतम विकल्पों - आजीवन कारावास और मृत्युदंड के बीच विमर्श किया जाए तो बेशक एक आम नागरिक और देश के समाज की भावना के अनुरूप मैं सोचूं तो यकीनन मुझे भी यही लगेगा कि फ़ांसी से कम कोई सज़ा इस जघन्य अपराध के लिए नाकाफ़ी साबित होगी । किंतु जब लंबी न्यायिक प्रक्रियाओं और पहले से ही फ़ांसी की सज़ा पाए अभियुक्तों की लंबी कतार देखता हूं तो मेरा संदेह और भी पुख्ता हो जाता है कि काश भारत भी उन अन्य पश्चिमी और कुछ और देशों की तरह "अपराध आधारित सज़ा " की व्यवस्था को अपना पाता तो ही ऐसे मामलों में न्याय पाने जैसा लग सकता है । ज्ञात हो कि एक उदाहरण से इसे ऐसा समझा जा सकता है कि श्रीलंका में एक व्यक्ति जिसने अपनी 67 वर्षीय मां के साथ बलात्कार किया था उसे अदालत ने 260 वर्षों की सज़ा सुनाई थी , ऐसी ही अकल्पनीय सज़ाएं पश्चिमी देशों में भी सुनाई जाती रही हैं । अभी हाल ही में किसी अभियुक्त की जेल में मौत हुई जिसे नौ सौ वर्षों की सज़ा सुनाई गई थी । इसका मंतव्य सिर्फ़ इतना संदेश देना होता है कि अपराध की गंभीरता को देखते हुए उसकी सज़ा इतनी अधिक बनती है बेशक अपरधी की उम्र उससे बहुत कम ही क्यों न हो । <br /><br />कल इस समय तक इस मुकदमे का फ़ैसला आ चुका होगा , फ़िर इस बहस को आगे बढाएंगे ..जो आजीवन कारावास और मृत्युदंड ..के बीच आगे बढेगी ..................</div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-57823973415060746332013-09-10T21:02:00.001+05:302013-09-10T21:05:53.145+05:30देश के पहले "संवेदनशील गवाह परिसर " की शुरूआत <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="http://www.delhidistrictcourts.nic.in/Citizen%20Charter/KKD_CC_files/image010.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="250" src="http://www.delhidistrictcourts.nic.in/Citizen%20Charter/KKD_CC_files/image010.jpg" width="400" /></a></div>
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इन दिनों मेरी नियुक्ति , दिल्ली की पूर्वी ,उत्तर-पूर्वी व शाहदरा जिले की संयुक्त जिला अदालत परिसर , कडकडडूमा कोर्ट में है । दिल्ली में वर्तमान में कार्यरत पांच जिला अदालत परिसरों , तीस हज़ारी न्यायालय , पटियाला हाऊस न्यायालय , रोहिणी न्यायालय , साकेत न्यायालय एवं कडकडडूमा न्यायालय में , कडकडडूमा न्यायालय परिसर को ये गौरव प्राप्त है कि इसका विकास एक आदर्श न्याय परिसर के रूप में हुआ और किया जा रहा है । </div>
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1993 में जब इस न्याय परिसर की स्थापना हुई थी तब से लेकर अपने आज तक के सफ़र में इस न्यायपरिसर को एक आदर्श न्यायायालय परिसर के रूप में विकसित किए जाने के अथक प्रयास अब भी जारी हैं । देश की दूसरी और राज्य की पहली न्यायिक अकादमी की स्थापना , देश के पहले ई न्यायालय की स्थापना , हरित न्याय परिसर की स्थापना , बाल गवाह न्यायालय की स्थापना , के साथ ही मध्यस्थता केंद्र , सुविधा एवं सूचना केंद्र , विधिक सहायता प्राधिकरण की स्थापना , स्थाई लोक अदालतों की स्थापना , सांध्य कालीन अदालतों की स्थापना जैसे जाने कितने ही नवीन न्यायिक प्रयोंगों को शुरू किए जाने के लिए विख्यात हुए इस न्यायालय परिसर ने इतने ही कम समय में देश की विधिक परिसरों में एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है । <br />
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एक बार फ़िर एक अदभुत और नए प्रयोग के लिए तैयार इस न्यायालय परिसर में , कल यानि ११ सितंबर २०१३ को शाम पांच बजे ,माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश महोदय देश के पहले "संवेदनशील गवाह परिसर " की शुरूआत करने जा रहे हैं । यह परिसर न्यायालय भवन के सबसे ऊपरी तल यानि सातवें तल पर स्थापित किया गया है । "संवेदनशील न्याय परिसर " की संकल्पना , माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने चर्चित बेस्ट बेकरी कांड में दी थी और गवाहों की सुरक्षा पर सरकार का ध्यान खींचा था । इसके साथ ही इसके तुरंत बाद , जेसिका लाल हत्याकांड के दो अहम गवाहों ,श्याम मुंशी और प्रेम सागर मिनोचा के मुकरने और इस पर संज्ञान लेकर उन दोनों गवाहों पर मुकदमा दर्ज़ किए जाने के निर्देश देते समय दिल्ली उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को गवाहों की समुचित सुरक्षा हेतु नई कार्ययोजना पर काम करने का निर्देश जारी किया था । <br />
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<b>माननीय जिला एवं सत्र न्यायाधीश दिल्ली , ने तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की एक समिति बनाई जिसने "संवेदनशील गवाह परिसर" की स्थापना में अहम भूमिका निभाई । इस गवाह कक्ष की कुछ विशेषताओं में एक सबसे बडी और खास ये है कि इसमें गवाह कक्ष और न्याय कक्ष के बीच एक लंबी ऐसा पारदर्शी आईने सरीखी दीवार होती है जहां से गवाह तो आरोपी का सामना किए बिना और उससे बिना डर अपनी गवाही दर्ज़ करा सकता है । अवयस्क गवाह , बालिकाओं , युवतियों , , महिलाओं , विशेषकर शोषण के मुकदमों में जहां कि आरोपियों से आमना सामना उनकी मनोस्थिति पर प्रभाव डालता है वहां इस तरह की गवाही प्रक्रिया नि;संदेह बहुत प्रभावी साबित होगी । इसके अलावा वीडियो कांफ़्रेंसिग के जरिए भी गवाही कराने का पूरा इंतज़ाम रखा गया है । ज्ञात हो कि न्यायिक क्षेत्र में नई तकनीकों का उपयोग त्वरित व अचूक न्याय के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किए जाने की शुरूआत पिछले एक दशक में ही हुई और इसके क्रांतिकारी सकारात्मक परिणाम देखने को मिले हैं । उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायिक क्षेत्र में ऐसे अभिनव प्रयोग अपने दूरगामी प्रभाव छोडने में सफ़ल होंगे । </b> </div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-12575487299624151122013-09-08T20:43:00.001+05:302013-09-08T20:43:08.374+05:30दिल्ली की जिला अदालत ने सुनाया हिंदी भाषा में पहला निर्णय <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<img src="http://delhidistrictcourts.nic.in/hindi/images/law-school.jpg" /><br /><br /></div>
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अब से लगभग चार या पांच वर्ष पहले , जिला अदालत में हिंदी के उपयोग , उसके प्रचार और प्रोत्साहन के लिए एक मुख्य केंद्रीय क्रियान्वयन समिति बनाई गई । इसने अपने स्तर से बहुत सारे अनेक कार्य ऐसे किए जो नि:संदेह ही तारीफ़ के काबिल थे , जिनमें से एक थी<b><i><u> <a href="http://delhidistrictcourts.nic.in/hindi/index_h.htm" target="_blank">जिला अदालत की साइट को हिंदी में बनाना</a></u></i></b> । वर्ष में दो तीन बार स्वतंत्रता दिवस , तथा अन्य ऐसे ही मौकों पर कवि सम्मेलन आदि का आयोजन , न्यायिक अधिकारियों की मासिक पत्रिका "अभिव्यक्ति" का हिंदी में प्रकाशन आदि अनेक छोटे बडे प्रयास किए गए जिसने धीरे धीरे ही सही मगर दिल्ली की जिला अदालतों में हिंदी की शुरूआत तो कर ही । सभी परिपत्र एवं अन्य पत्राचार में भी हिंदी ने दखल देना प्रारंभ कर दिया । </div>
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किंतु इस सबके बावजूद और बावजूद इसके कि कभी कभार एक आध याचिका या किसी याचिका का उत्तर हिंदी में दायर हुआ , कभी भी आमजनों के लिए कोई बडा ऐसा काम नहीं हुआ जिसके लिए ये कहा जा सके कि जिला अदालत द्वारा हिंदी में किया गया ये कार्य आम जनता के लिए काफ़ी उपयोगी साबित हुआ है । सभी जिला अदालतों में हिंदी में कार्य के संचालन की देख रेख के लिए एक एक कर्मचारी की नियुक्ति की नीति के तहत मुझे पूर्वी एवं उत्तर पूर्वी अदालत की जिम्मेदारी दी गई , किंतु वो भी एक अतिरिक्त प्रभार के रूप में , ज़ाहिर तौर पर ये किसी खानापूर्ति जैसा था । पिछले दो सालों में न तो मुझे कोई कार्य सौंपा गया न ही मेरे द्वारा दिए गए या भेजे गए सुझावों पर कभी ध्यान दिया गया । और तो और मेरे अथक प्रयासों के बाद भी मुझे अपने कंप्यूटर पर हिंदी स्थापित करने में भी घोर उदासीनता दिखाई दी । मेरी नियुक्ति इन दिनों " सत्र न्यायालय ज़मानत विभाग " में है जहां फ़ुर्सत के नाम पर कभी एक ग्लास पानी और चाय पीने का समय मिल जाए तो बहुत है , वाली स्थिति है । </div>
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ऐसे समय में मुझे बुलावा आया जिला अदालत के पारिवारिक अदालत के न्यायाधीश महोदय का , यहां मैं ये एक दिलचस्प बात बता दूं कि न्यायाधीश महोदय , जिनका नाम श्री ए.एस जयचंद्रा है , मूलत: दक्षिण भारतीय हैं , उन्होंने अपने कक्ष में मुझे बुलाकर कहा , आप वही हैं न जो पत्र पत्रिकाओं के लिए आलेख वैगेरह भी लिखते हैं । मैंने हामी भर दी । उन्होंने अपने एक निर्णय की प्रति जो अंग्रेजी में टंकित थी एवं उसका एक कच्चा पक्का सा अनुवाद या ड्राफ़्ट जो हिंदी भाषा में हस्तलिखित था मेरे हाथों में पकडाते हुए कहा । इस पर नज़र डाल कर बताएं कि इसमें क्या और कितना दोष है । मैंने सरसरी तौर पर देख कर बताया कि इसमें सुधार की काफ़ी गुंजाईश है । चूंकि ये पत्र या कोई परिपत्र नहीं था बल्कि एक न्यायिक निर्णय था इसलिए मैंने बिना जल्दबाज़ी के कार्य करते हुए उनसे चौबीस घंटे का समय लिया । न्यायाधीश महोदय ने मुझे ताकीद की , कि मैं इसमें प्रचलित उर्दू शब्दों , जैसे तलाक , सुपुर्द , फ़ैसला , आदि के विकल्प के रूप में हिंदी के शब्द या संस्कृत के शब्द का प्रयोग करूं । और दूसरी बात ये कि , ये अंग्रेजी निर्णय का सीधे सीधे अनुवाद न हो बल्कि ये सरल भाषा में लिखा गया एक न्यायिक निर्णय हो । </div>
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मैंने अंग्रेजी भाषा में लिखे ड्राफ़्ट को ध्यानपूर्वक पढा और हिंदी भाषा में लिखे उनके ड्राफ़्ट को भी ।<b>मामला एक हिंदू युगल दंपत्ति के वैवाहिक विच्छेद का था जो अपनी आपसी सहमति से इस निर्णय पर पहुंचे थे । इस युगल दंपत्ति की दो संतान भी थीं । आदेश में दोनों पक्षों के बयान , उपलब्ध तथ्यों के आधार पर , हिंदू विवाह अधिनियम के अनुच्छेद 13 ब (1) के तहत विवाह विच्छेद को विधिक मान्यता दे दी गई । </b>घर पहुंचा तो कंप्यूटर महाशय बीमार पड चुके थे । चूंकि मैं उस निर्णय को अगले दिन उन्हें सौपने का आश्वासन दे चुका था और इसी कारण से उस मुकदमे का निर्णय अगले दिन तक के लिए टाल दिया गया था , इसलिए जैसे तैसे करके मैंने उसे टाइप करके उसका प्रिंट लेकर अगले दिन न्यायाधीश महोदय के सामने प्रस्तुत कर दिया ।<br /><br /></div>
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उस दिन यानि 07/09/2013, को न्यायाधीश महोदय के हस्ताक्षर होने के बाद , ये दिन और ये निर्णय दिल्ली जिला अदालत के इतिहास का एक नया अध्याय बन गया जब हिंदी ने आधिकारिक रूप से न्यायिक कार्यवाही में दखल दे दी । अब उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में इस पहल को आगे भी एक राह मिलेगी और हिंदी को एक मुकाम । </div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com24tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-31353854920554910262013-08-31T23:16:00.000+05:302013-08-31T23:16:30.063+05:30फ़ैसले के बाद भी माकूल सज़ा के विकल्प ( संदर्भ दिल्ली बलात्कार कांड फ़ैसला) <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="http://images.jagran.com/Delhigangrape_B_11072013.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" height="201" src="http://images.jagran.com/Delhigangrape_B_11072013.jpg" width="400" /></a><br />
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आखिरकार उस अपराध का पहला फ़ैसला आ ही गया जिसने भारत के इतिहास में पहली बार आम लोगों को इतना झकझोर दिया था कि वे सीधा रायसीना की पहाडियों की छाती रौंद कर देश के कानून निर्माताओं को ललकारने पर उतारू हो गया थे । दिल्ली के कुख्यात बलात्कार कांड में एक मासूम युवती का बेहरहमी से बलात्कार करके उसके शरीर को इतना प्रताडित किया कि लाख कोशिशों के बावजूद उसकी जान तक नहीं बचाई जा सकी । इस कांड में पकडे गए आरोपियों को जब कानूनी प्रक्रिया के तहत अदालती कार्रवाई के लिए प्रस्तुत किया गया तो जैसा कि किसी भी आरोपी को गिरफ़्तार करते समय पुलिस निर्धारित नियमों का पालन करती है , जिसमें से एक होता है आरोपी की उम्र जिसके अनुसार ही उसपर मुकदमा चलाया जाता है । </div>
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आरोपी की उम्र का निर्धारण या उल्लेख पुलिस को उसे चार्ज़शीट करते हुए इसलिए करना होता है क्योंकि यदि अभी की निर्धारित उम्र , जो कि अठारह वर्ष है , से कम पाए जाने पर वह मुकदमा , जुवेनाइल जस्टिस एक्ट , 1986 के तहत जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड यानि किशोर अपराध समिति की अधिकारिता में आता है । यहां ये बताना ठीक होगा कि ऐसा बोर्ड , जिसके प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट एक प्रथम श्रेणी दंडाधिकारी होते हैं उनके साथ ही बोर्ड में अन्य विविध क्षेत्रों के अन्य सदस्य भी मामले को सुनते हैं । इस कानून के तहत , किसी भी किशोर अपराधी को दोषी पाए जाने पर अधिकतम तीन वर्ष की सज़ा सुनाई जाती है तथा उसे ये सज़ा किसी कारागार में न बिताकर सुधार गृह में बितानी होती है । इसके पीछे विधिक और सामाजिक विद्वजनों का तर्क ये था कि चूंकि कम उम्र में किए गए अपराध के लिए भविष्य में उसे सुधरने और समाज की मुख्य धारा में लाए जाने का अवसर दिया जाना चाहिए , इसलिए यही उसका उचित उपाय है । </div>
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इस बलात्कार कांड में जब एक आरोपी के नाबालिग होने का दावा आरोपी ने किया तो उसकी निर्धारित तय सज़ा , जो कि आज उसे सुनाई गई , यानि अधिकतम तीन वर्ष , के मद्देनज़र इसका तीव्रतम विरोध इसलिए हुआ क्योंकि इसी नाबालिग आरोपी ने पीडिता युवती के साथ सबसे बर्बर व्यवहार , इतना कि ईलाज़ कर रहे डाक्टरों की टीम को खुद कहना पडा कि ऐसा नृशंस व्यवहार उन्होंने पहले नहीं देखा , किया था । इसी समय कुछ संगठनों एवं लोगों ने बरसों पुराने जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में निर्धारित उम्र सीमा को घटाने की मांग उठाई क्योंकि खुद पुलिस का मानना था कि अपराध में किशोरों की बढती संलिप्तता के कारण ऐसा किया जाना जरूरी है । </div>
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इसी समय सरकार की तरफ़ से दो कार्य किए गए । पहला था देश भर के पुलिस अधिकारियों की बैठक जिन्होंने जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत तय उम्र सीमा को कम किए जाने की सिफ़ारिश की । दूसरा था बलात्कार को लेकर सरकार द्वारा बनाए और बदले जा रहे कानून के संदर्भ और सुझाव के लिए गठित जस्टिस वर्मा समिति जिसे भी इस मुद्दे पर राय देनी थी । लेकिन जस्टिस वर्मा समिति ने पुलिस और लोगों की उठती मांग के विपरीत इसी उम्र को सही ठहराया । फ़लस्वरूप सरकार यौन शोषण के लिए परिवर्तित किए गए कानून में इसे कम नहीं कर सकी । विधिज्ञ बताते हैं कि सरकार चाहती तो जस्टिस वर्मा समिति की सिफ़ारिश के विपरीत जाकर इस उम्र को कम कर सकती थी किंतु इस स्थिति में उसे वैश्विक न्याय प्रचलनों और मानवाधिकार नियमों के खिलाफ़ जाने का खतरा उठाना पडता । </div>
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इसका परिणाम ये हुआ कि दिल्ली बलात्कार कांड के इस सबसे ज्यादा खतरनाक आरोपी जिसने खुद के नाबालिग होने का दावा किया उसे किसी सख्त सज़ा मिलने की संभावनाओं पर पानी फ़िरता दिखा । चूंकि आरोपी ने अपने दावे के पक्ष में विद्यालय का प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया जिसे उस विद्यालय के प्रधानाचार्य ने सत्यापित किया , और इस स्थिति में पुलिस के मात्र एक मात्र विकल्प बचा था आरोपी के इस दावे को झुठलाने के लिए उसका ossification test ( एक ऐसी चिकित्सकीय वैज्ञानिक जांच जिसे आम तौर पर हड्डी जांच से उम्र तय करने वाली जांच कहा जाता है ) कराया जाए , किंतु कानूनन ऐसा तब हो सकता था जब आरोपी द्वारा अपने नाबालिग होने के लिए प्रस्तुत साक्ष्य अदालत को संदेहास्पद लगे , किंतु बदकिस्मती से इस मुकदमें में ऐसा नहीं हुआ । </div>
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जैसे जैसे मुकदमा आगे बढता गया इसके संभावित फ़ैसले को भांपते हुए इसे रोकने और आरोपी को सख्मुत सज़ा दिलाने के उद्देश्य के लिए जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड को इस मुकदमे का फ़ैसला सुनाने के लिए अपील की याचिका दायर की गई जिसे स्वाभाविक रूप से उच्च अदालत ने खारिज़ कर दिया । मुकदमा चला और पुलिस द्वारा चार्ज़शीट कुल बारह धाराओं में से ग्यारह में उसे दोषी ठहराते हुए आज तीन वर्ष की अधिकतम सज़ा सुना दी । </div>
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<b>अब सवाल ये है कि अब जबकि जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने अपना फ़ैसला वो भी निर्धारित अधिकतम सज़ा सुना ही दी है तो अपील के लिए क्या गुंजाईश बचती है ?? किंतु भारतीय कानून इतना विस्तृत और बहुस्तरीय है कि विकल्प निकल ही आता है । सर्वोच्च न्यायालय ने जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड को इस मुकदमे का फ़ैसला सुनाने से रोकने की याचिका तो को तो खारिज़ कर दिया किंतु इसके साथ ही इस कानून के तहत "नाबालिग" की परिभाषा तय करने संबंधी प्रार्थना स्वीकार कर ली जिस पर निर्णय आना अभी बांकी है । कानून के ज्ञाता भलीभांति जानते हैं कि यदि सर्वोच्च न्यायालय ने नाबालिग की परिभाषा को तय करने में विशेषकर मुकदमे के संदर्भ में कोई नया फ़ैसला सुना दिया जैसा कि सर्वोच्च अदालत पहले भी कर चुकी है तो ये न सिर्फ़ इस मुकदमे के इस आरोपी को उसके अंज़ाम ,जो उस बदली हुई परिस्थिति में मौत भी हो सकती है को , तक पहुंचा देगा बल्कि अदालतों को इस मौजूदा कानून के तहत ही इतनी शक्ति दे देगा कि वो मुकदमे के हालात को देखकर फ़ैसला सुना सकेंगी ।<br /><br /></b></div>
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<b>ज्ञात हो कि सर्वोच्च अदालत ने कुछ वर्षों पहले एक मुकदमें जिसमें दो नाबालिगों ने घर से भागकर आपस में विवाह कर लिया था को न सिर्फ़ पूरी तरह वैध ठहराया बल्कि अपने तर्कों और विश्लेषण से ये भी साबित किया कि चूंकि उनकी शरीरिक और मानसिक क्षमता व परिपक्वता ऐसी है इसलिए ,उन्हें अठारह वर्ष से कम उम्र होने के बावजूद भी नाबालिग नहीं माना जा सकता । इसलिए अभी ये कहना कि न्याय के लिए लडी गई लडाई व्यर्थ हो गई , या इस फ़ैसले से अपराधियों के ,विशेषकर किशोर अपराधियों के , खासकर आतंकियों के हौसले बुलंद हो सकते हैं , थोडी सी जल्दबाज़ी होगी । ध्यान रहे कि अभी इस मामले से जुडे अन्य आरोपियों पर न्यायालय का फ़ैसला आना बांकी है जिसके बाद इस नाबालिग आरोपी ,जिसका अपराध बांकी अन्य आरोपियों से ज्यादा गंभीर माना जा रहा है , की कम सज़ा पर नि:संदेह न्यायविदों की भी पूरी नज़र होगी । एक अच्छी बात ये है कि अभी इस आरोपी को कम से कम ढाई वर्ष तक सुधार गृह में ही रहना होगा और इस बीच न्यायपालिका इस मुद्दे पर किसी ठोस नतीज़े पर पहुंच जाएगी , ये उम्मीद की जानी चाहिए । </b></div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-61963315879706388952013-08-22T20:52:00.000+05:302013-08-22T20:52:32.841+05:30महिलाओं के हक में , मुखर होती अदालतें <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYLPdUYYopYSLmLff_n9IIOupac39meVmz87YiH2lj-9WIQO8Ryz3T37a5vWKMojAvijq-L57PpZ5YDgc2_0Ia54vMGHc2Ouhz9CZx_ytOf5YDOY3clXk3iFEG96V10-bKcS4yiR3tIPlq/s1600/justice.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYLPdUYYopYSLmLff_n9IIOupac39meVmz87YiH2lj-9WIQO8Ryz3T37a5vWKMojAvijq-L57PpZ5YDgc2_0Ia54vMGHc2Ouhz9CZx_ytOf5YDOY3clXk3iFEG96V10-bKcS4yiR3tIPlq/s1600/justice.jpg" /></a></div>
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<br /><br /><br />अभी हाल ही में न्यायपालिका ने ऐसे दो अहम फ़ैसले सुनाए जो दिनोंदिन महिलाओं के प्रति बढ रही हिंसा और हमलों के मद्देनज़र दूरगामी प्रभाव वाले साबित होंगे । पिछले दिनों विभिन्न फ़ैसलों से अदालतें जिस तरह से महिलाओं की सुरक्षा व संरक्षण में मुखर हुई हैं वह नि:संदेह स्वागतयोग्य कदम है । समाचार सूत्रों के अनुसार सर्वोच्च अदालत भी इस मसले पर बेहद गंभीर और संवेदनशील रुख अपना रही है । हालिया फ़ैसलों में अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि महिलाओं की सुरक्षा के र्पति न सिर्फ़ न्यायपालिका खुद गंभीर है बल्कि उसके रूख से ये भी स्पष्ठ है कि वो सरकार और प्रशासन को भी इस दिशा में विभिन्न योजनाओं व कानूनों का निर्माण्के लिए प्रेरित करने की ओर अग्रसर है । </div>
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<br /><br />पिछले कुछ समय से महिलाओं व युवतियों के चेहरे तथा शरीर पर तेज़ाब से हमले की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है । कहीं एकतरफ़ा प्रेम से उपजी निराशा में तो कहीं किसी मानसिक कुंठा से ग्रस्त होकर महिलाओं के चेहरे पर तेजाब डालने जैसे घृणित अपराध पर चाह कर भी सरकार प्रशासन रोक नहीं लगा पा रहा था । अभी हाल ही में ऐसी ही एक वारादात को मुंबई रेलवे स्टेशन पर अंजाम दिया गया जिसके परिणाम में देश की एक बेटी जो सेना में अपनी सेवा देने पहुंची थी, की मौत हो गई । इससे पहले भी इस तरह की बहुत सारी घटनाएं होती रही हैं जिनमें किसी तरह अपना जीवन बचा सकी युवतियों का भविष्य अंधकार में चला गया । इन घटनाओं के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक वस्तु की खुलेआम बेरोक-टोक बिक्री । इसी दिशा में सरकार द्वारा नियम कानून बनाने के लिए दिशा-निर्देश जारी करने हेतु दायर याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए सरकार ने देश भर में तेज़ाब की बिक्री के मानक तय करने के लिए सरकार को आदेश दिया । इस आदेश के मद्देनज़र कुछ राज्यों ने इस पर अमल करना भी दुकानों पर खुलेआम तेज़ाब की बिक्री पर रोक लगाते हुए अब खरीदने वाले के लिए अपनी पहचान की राज्य सरकार ने भी तेज़ाब की दुकानों व गोदामों पर छापा मारकर अवैध तेज़ाब को ज़ब्त कर लिया । <br /><br /><br />इसके अलावा कानून में संशोधन करके तेज़ाब हमले के लिए निर्धारित दंड को और अधिक कठोर बना दिया गया है । यदि इन सब पर सरकार व प्रशासन गंभीरतापूर्वक कार्य करें तो स्थिति में बदलाव की उम्मीद की जा सकती है । किंतु इसके अलावा एक जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य इस परिप्रेक्ष्य में किया जाना अभी बाकी है वो है तेज़ाबी हमले से पीडित युवतियों/महिलाओं की सुरक्षा, संरक्षण व उनके भविष्य के लिए उपाय करना । <br /><br /><br />महिलाओं के हक में दूसरा जो अहम फ़ैसला आया है वो बलात्कार से पीडित युवतियों/महिलाओं के लिए सामाजिक कल्याण व सुरक्शह के लिए सरकार की आलोचना व सिस दिशा में नई व्यवस्था करने के लिए निर्देश । ज्ञात हो कि पिछले कुछ समय में देश में बलात्कार के बढते मामलों ने सरकार, समाज व अदालतों का ध्यान इस ओर खींचा है । अदालतों ने समय-समय पर अपने फ़ैसलों में इस घृणित अपराध से जुडे सभी पहलुओं पर निर्देश देकर सरकार व प्रशासन को इस दिशा में कार्य काने हेतु बाध्य किया है । इसी परिप्रेक्ष्य में देश भर में बलात्कार के मुकदमों का गठन । इसके साथ ही महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्थाओं द्वारा पीडिताओं को अधिक आर्थिक सहायता , स्वावलंबन सुरक्षा व संरक्षण हेतु योजनाओं की भी मांग उठाई जाती रही है । <br /><br /><br />ज्ञात हो कि पिछले दिनों ,दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी राज्य सरकार को ऐसा कोष बनाए जाने का आदेश दिया था जिससे पीडिताओं को एक माह के अंदर ही अंतरिम सहायता व मुकदमे के खर्च आदि के लिए आर्थिक सहायता मुहैय्या कराई जा सके । नए फ़ैसलों में अब अदालतें सज़ा सुनाते समय मुजरिमों पर लगाए जा रहे जुर्माने की राशि का एक हिस्सा भी पीडित शिकायतकर्ता को दिए जाने का आदेश दे रही है। किंतु माननीय सरोवोच्च न्यायालय के ताज़ा निर्णय से बलात्कार पीडिताओं के सामाजिक कल्याण व सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार द्वारा उठाए जाने का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा । <br /><br /><br />भारतीय समाज के तेज़ी से बदल रहे परिवेश, रहन सहन में बढता उपभोक्तावाद, यौनिक स्वछंदता, लिव-इन-रिलेशनशिप , नशे व अपराध का बढता चलन आदि ने समाज को विशेषकर शहरी समाज को महिलाओं के प्रति अधिक क्रूर, गैर जिम्मेदार व संवेदनहीन बना दिया है । पाश्चात्य देशों से आयातित परंपरा के रूप में लिव-इन-रिलेशनशिप जैसी मान्यताओं को अपनाया तो जा रहा है किंतु रिश्तों के टूटने से उपजी परिस्थितियों में बलात्कार और शोषण आदि के मुकदमे तथा ऐसे रिश्तों से उत्पन्न संतानों का भविष्य व जिम्मेदारी उठाने जैसी स्थितियों से निपटने केल इए इन सबको सामाजिक दृष्टिकोण से देखना भी आवश्यक होगा । <br /><br /><br />निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि मौजूदा परिस्थितियों में न्यायपालिका ने यदि जनमानस के प्रति अपने विश्वास को बनाए रखा है तो उसकी एक बडी वजह ये भी है कि जिन कानूनों , जिन नीतियों , जिन उपायों , योजनाओं की उपेक्षा वो सरकार , अपने जनप्रतिनिधियों व प्रशासन से लगाए रहती है वो उन्हें न्यायपालिका के फ़ैसलों और उसके रूख में दिखाई दे जाती हैं । इन फ़ैसलों और इसके बाद इनके अमलीकरण से निकली योजनाओं व कानूनों का क्या कितना प्रभाव पडेगा ये तो भविष्य की बात है मगर इतना तो जरूर कहा जा सकता है कि न्यायपालिका के दोनों ही फ़ैसले बहुत ही सही समय पर आए हैं और जल्द से जल्द इनका अनुपालन राष्ट्रीय/राजकीय स्तर पर होना चाहिए । <br /><br /></div>
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अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5752275418670186552.post-48229865277850014662012-06-29T17:02:00.000+05:302012-06-29T17:02:05.123+05:30किसी का बीच सडक जाना , अच्छा नहीं होता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="http://nozesolo.files.wordpress.com/2007/11/car-ax.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://nozesolo.files.wordpress.com/2007/11/car-ax.jpg" width="320" /></a></div>
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मेरी नियुक्ति पिछले कुछ सालों से मोटर वाहन दुर्घटना न्यायाधिकरण में है । शुरू से आदत रही है कि जहां भी काम करो वहां उस काम को समझ के रोज़ उसे बेहतर करने का प्रयास करना चाहिए , और इस प्रयास में जो भी अच्छा मिलता जा रहा ज्ञान वो आपके लिए बोनस है । इस वर्तमान कानूनी दायरे में आज शहर का इतना बडा समाज प्रभावित है , मुझे देख कर हैरानी हुई थी पहले पहल । लेकिन फ़िर लगभग रोज़ सुबह शाम अखबारों में सडक दुर्घटनाओं , रोड रेज के समाचार देखने पढने को मिलने लगे और दिल्ली की सडकों पर लोगों में ट्रैफ़िक सैंस के प्रति घोर लापरवाही देखी तो मुझे यकीन हो गया कि स्थिति ठीक ऐसी ही और इससे भी बदतर ही होगी हकीकत में भी ।<br /><br /><br /><i><b>राजधानी दिल्ली के हालात ऐसे हो गए हैं कि , रोजाना सडक दुर्घटनाओं की गिनती में ईज़ाफ़ा होता रहता है , जिसे सीधे सीधे आटीओ चौराहे पर लगे दुर्घटना हताहत संख्या सूचक पट्टिका पर भी देखा जा सकता है । राजधानी दिल्ली की पुलिस को अलग से मोटवर बाहन दुर्घटना सैल का गठन करना पड गया । न्यायिक प्रक्रियाओं में , विशेषकर मुआवजे का भुगतान निर्धारण व भुगतान तीव्र गति से करने के लिए दुर्घटना सूचना रिपोर्ट ,को प्राथमिकी के अडतालीस घंटों के अंदर जांच अधिकारी को अदालत में जमा करनी होती है और इसके एक माह के भीतर भीतर दुर्घटना की विस्तृत रिपोर्ट अदालत में जमा करनी होती है । अदालतों को निर्देश दिया जाता रहा है समय समय पर कि वे इन मुकदमों का निपटारा जल्द से जल्द किया करें । आंकडे बताते हैं कि मुकदमों के निस्तारण में तेज़ी आई है , लेकिन दुर्घटना की दर के अनुपात में ये बहुत ही धीमा है ।</b></i>इसकी वजह एक से अधिक हैं जिन्हें आप <a href="http://kort-kachahri.blogspot.in/2011/04/blog-post.html" target="_blank">इस पोस्ट में देख सकते हैं </a>।<br /><br /><br /><br />चूंकि मुआवजा न्यायाधिकरण/पंचाट सिर्फ़ दुर्घटना में पीडित के मुआवजे का निर्धारण करता है इसलिए दीवानी प्रकृति की न्यायिक प्रकिया चलती है । अपने अनुभव के आधार पर मैंने आपको बताया था कि <a href="http://kort-kachahri.blogspot.in/2011/05/blog-post_17.html" target="_blank">किसी दुर्घटना होने के समय और उसके बाद किन किन बातों का ध्यान रखना चाहिए </a>, । एक कर्मचारी से अलहदा जब मैं वहां पीडितों और उनके साथ आए घरवालों को या मृतकों के आश्रितों का दर्द देखता हूं , उनकी सूनी आंखें और वेदना देखता हूं , तो मुझे सच में ही भीतर से क्रोध आता ये जानकर कि ये जो दूसरी तरफ़ बडे आराम से वकील के पीछे खडे वाहन चालक और वाहन मालिक खडे हैं इनकी ज़रा सी लापरवाही ने एक पूरे परिवार को एक पूरी नस्ल को बर्बाद कर दिया और उस परिवार की आने वाली नस्ल के विकास के रास्ते को बंद कर दिया है । विशेषकर उन मामलों में जहां , चालक ने शराब पीकर दुर्घटना की हो , या फ़िर नकली लाइसेंस के सहारे चलाते हुए बडे टैंकर ,टैंपो , और ट्रक बसों तक से बडी दुर्घटनाओं को अंजाम दिया हो । <br /><br />हैरानी और दुख की बात तो ये है कि खुद सरकार ने अपने अधीन चलने वाली सरकारी गाडियों के लिए साधरणतया बीमे की छूट ले रखी होती है इस दलील के साथ कि दुर्घटना में मुआवजे आदि का भुगतान खुद सरकार वहन कर लेगी । जब मुकदमों के दौरान उनकी असंवेदनशीलता के कारण उन पर भारी जुर्माना भी लगता रहता है अक्सर । उत्तर प्रदेश , उत्तरांचल आदि राज्यों के परिवहन विभाग तो इतने सुस्त और लापरवाह होते हैं कि मुआवजे के आदेशे के बावजूद पीडित की मुआवजा राशि तब तक नहीं जमा कराई जाती जब तक वसूली आदेश भेजा जाए । अभी छ; महीने पूर्व ही मेरठ की लाइसेंसिंग अथॉरिटी को पूरी तरह से सील कर दिया गया क्योंकि वहां प्रतिदिन लगभग एक हज़ार नकली लाइसेंस बना कर जारी कर दिए जाते थे । पुलिस और जांच एजेंसियां अभी अन्वेषण में लगी हुई हैं ।<br /><br /><br />बीमा कंपनियों का रवैया भी बहुत टालमटोल वाला रहता है जो अनुचित है । आजकल नकली बीमा पॉलिसियों का मामला भी काफ़ी देखने में आ रहा है । माननीय उच्च न्यायालय दिल्ली के आदेश के बाद से पुलिस हर ऐसे मामले में जांच करके प्राथमिकी दर्ज़ कर रही है जहां उसे नकली लाइसेंस और बीमे का पता चलता है । अब सबसे जरूरी बात , इस स्थिति को कोई बदल सकता है तो वो हैं हम और आप , हमारा पूरा समाज । हमें ट्रैफ़िक नियमों का सम्मान और उनके पालन की आदत डालनी होगी , नावालिगों और अप्रशिक्षित लोगों के हाथों में गाडियों की कमान सौंपने की आदत छोडनी होगी , शराब पीकर चलाने की आदत को बदलना होगा , गाडी के सभी कागज़ातों , विशेषकर बीमा को अनिवार्य करना होगा । इसके साथ ही चूंकि हम इस दुर्घटना के लिए खुद ही जिम्मेदार हैं और इसके पीडित भी हम ही हैं । इसलिए जो एक काम जरूर कर सकते हैं वो है दुर्घटना यदि हो गई है तो जल्दी जल्दी पीडित को चिकित्सा सहायता और उसके मुआवजे का भुगतान । <br /><br /><i><b>सोचिए कि किसी के घर का चिराग बीस साल की जवानी में , अपनी पत्नी , बच्चे , बूढे मां पिता और छोटे भाइ बहनों को छोडकर असमय चला जाता और फ़िर उस परिवार को अगले कुछ या शायद बहुत सालों तक मुआवजे के लिए अदालत के धक्के खाते रहने पर उस परिवार पर क्या गुज़रती होगी । लगभग पचास साथ प्रतिशत दुर्घटनाओं के लिए शराब पीकर गाडी चलाना , लापरवाही और तेज़ रफ़्तार से चलाना , ट्रैफ़िक नियमों की अनदेखी और खराब सडकें ही जिम्मेदार होती हैं । मुझे तो रोज़ यही लगता है कि ...किसी का बीच सडक जाना अच्छा नहीं होता ..मौत के लिए कम से कम ,किसी को ,चौराहा कोई मयस्सर न हो ॥ </b></i></div>
</div>अजय कुमार झाhttp://www.blogger.com/profile/16451273945870935357noreply@blogger.com2