गुरुवार, 19 सितंबर 2019

न्यायपालिका पर उठते सवाल


पिछले कुछ समय से न्यायपालिका से जिस तरह की खबरें निकल कर सामने आ रही हैं वो कम से कम ये तो निश्चित रूप से ईशारा कर रही हैं कि , न्यायपालिका की प्रतिबद्धता और जनता के बीच बना हुआ उनके प्रति विश्वास अब पहले जैसा नहीं रह पायेगा | रहे भी कैसे एक के बाद एक नई नई घटनाएं ,आरोप ,व जैसी जानकारियां निकल कर आम लोगों के बीच पहुँच रही हैं वो न तो न्यायपालिका के लिए स्वस्थ परम्परा साबित होगी न ही देश की व्यवस्था के लिए |

पिछले वर्ष न्यायिक इतिहास में पहली बार देश की सबसे बड़ी अदालत के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों (जिनमे से एक आज प्रधान न्यायाधीश के रूप में कार्यरत हैं )ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पर मनमाने ढंग से काम करने और यहां तक कि महत्वपूर्ण मुकदमों को वरिष्ठ न्यायाधीशों को न सौंप कर कनिष्ठ न्यायाधीश को आवंटित किये जाने और ऐसी ही बहुत सारी असहमतियों को लेकर सभी न्यायमूर्तियों ने प्रेस कांफ्रेस की | यह अपनी तरह का पहला मामला था जब शीर्ष न्यायपालिका अपने अंदरूनी प्रशासनिक कलह को इस तरह से सार्वजनिक रूप से सबके सामने ले आई थी | हालांकि इससे पहले भी समय समय पर शीर्ष न्यायालय के कुछ वरिष्ठ न्यायाधीश बहुत से अलग मामलों पर असहमति जता चुके हैं | 


अभी कुछ दिनों पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति पर अपनी ही एक कर्मचारी के शोषण का मामला (जिस तरह से आनन फानन में बिना किसी ठोस न्यायिक प्रक्रिया के इस मामले को ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया वो भी खुद न्यायपालिका द्वारा ही वो न्यायपलिका के ऊपर सवाल उठाने के लिए काफी है ) ठंढा भी नहीं हुआ था कि अब फिर हाल ही में पटना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राकेश कुमार ने न्याय प्रशासन और उच्च न्यायपालिका में चल रही विसंगतियों की ओर खुले आम आरोप लगाए  हैं | 

जैसा कि पहले भी होता रहा है न्यायपालिका खुद अपनी साख स्वतंत्रता पर इसे किसी तरह का आघात मानते हुए तुरंत प्रभाव से पहले मामला उठाने वाले विद्वान न्यायाधीशों को ही किनारे लगा देती रही है (जस्टिस कर्णन व इस तरह के और भी बहुत सारे मामले देखे जा सकते हैं ) , तो इस मामले में भी सबसे पहला जो काम किया गया वो ये कि न्यायाधीश महोदय के काम काज का अधिकार ही उनसे वापस ले लिया गया | 

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि , ऐसे तमाम मामलों में प्रश्न उठाने वाले या आरोप लगाने वाले न्यायाधीशों पर तो कार्यवाही हो जाती है मगर इन आरोपों पर , इन विसंगतियों पर कभी भी न्यायपालिका खुद कोई ज़हमत उठाने की कोशिश नहीं करती | आज आम जनमानस में न्यायपालिका को लेकर जिस तरह का अविश्वास पैदा हुआ और बढ़ रहा है उसके लिए बहुत हद तक खुद न्यायपालिका जिम्मेदार  है | 








आखिर वो कौन से कारण हैं कि आज़ादी के बाद से अब तक लगातार मुकदमों में भी इज़ाफ़ा हो रहा है और उसी अनुपात में अपराधों में भी ??

इन मुकदमों को समाप्त किए  जाने व भविष्य में इनकी संख्या को नियंत्रित किए जाने को लेकर न्याय प्रशासन ने अब तक क्या और कितना ठोस काम किया है ये खुद न्यायपालिका को बताना चाहिए

देश में खुद को ईमानदारी ,कर्तव्यपरायणता , प्रतिबद्धता का पर्याय कहने बताने वाली न्यायपालिका देश में एक भी ऐसी अदालत नहीं बना पाई जो भ्रष्टाचार से मुक्त हो

न्यायपालिका में भी भाई -भतीजावाद ,भ्रष्टाचार , लालच ,कदाचार देश की किसी भी संस्था से रत्ती भर भी कम नहीं है और ये दिनों दिन बढ़ रहा है

अदालतें अब किसी तरह फैसला तो सूना रही हैं मगर न्याय करने व न्याय होने से वे कोसों दूर होती जा रही हैं

ऐसे बहुत सारे सवाल और मसले हैं जो सालों से न्यायपालिका के सामने उत्तर की बाट जोह रहे हैं