रविवार, 13 अगस्त 2017

ट्रैफिक चालान को हलके में लेना पड सकता है भारी


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मित्र राजेश सरोहा की एक रिपोर्ट नवभारत टाईम्स दिल्ल्ली 


हाल ही  में खबरनवीस मित्र राजेश सरोहा ने नवभारत टाईम्स दिल्ली संस्करण में ये खबर प्रमुखता से प्रकाशित की | आंकड़े बता रहे हैं कि ट्रैफिक , लगातार होती सड़क दुर्घटनाओं और इनमें हो रहे इजाफे के बावजूद लोग बाग़ न तो ट्रैफिक नियमों को ही गंभीरता से ले रहे हैं और न ही इनके दुष्परिणामों से खुद को बचा रहे हैं या बचाने को लेकर गंभीर हैं | सरकार ,पुलिस प्रशासन व अदालत तक इन ट्रैफिक नियमों की अवहेलना और उल्लंघन की बढ़ती प्रवृत्ति से परेशान होने के बावजूद कुछ भी कारगर नहीं कर सकने को लेकर विवश सी जान पड रही हैं |

 इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है ये प्रकाशित खबर जो ये बता और दर्शा रही है कि नियमों का उल्लंघन जहां आम जन ने अपनी आदत बना ली है वहीं दण्डित और नियमित करने वाली संस्थाओं ने सिर्फ जुर्माने से भारी भरकम राशि जमा करना अपनी इतिश्री | 



लेकिन बात अब उतनी भी आसान नहीं रही है और आम लोगों की आदत को सुधारने और कम से कम इन चालानों को बहुत हलके में लेने की प्रवृत्ति को रोकने के लिए अब अदालतों ने नई प्रणालियों और नए दंड पर काम करना शुरू कर दिया है |


अमूमन तौर पर ट्रैफिक चालानों को निष्पादित या आम तौर पर जिसे भुगतना कहते हैं , करने का एक तरीका यह है कि चालान पर्ची पर दिए गए नियत समय तारीख व अदालत के समक्ष , सभी कागजातों के साथ उपस्थित होकर , अदालत द्वारा सुनाये गए जुर्माने की रकम को भर कर दोषमुक्त हुआ जाता है | यदि किसी को लगता है कि उसका चालान गलत या गलती से काटा गया है तो उसे ये अदालत में साबित करना होता है , अपने पक्ष को रखने के लिए अपने द्वारा प्रस्तुत सबूतों गवाहों को अदालत के सामने पेश करके , पूरी वाद वाली कारवाई अपनाई जाती है | 

अब बदलाव के बाद , सबसे पहली बात , वाहन चालाक चालान कटते ही आया आरोपी की श्रेणी में और वाहन मालिक सह आरोपी | यानि सरकार  द्वारा निर्धारित  कानूनों  को  तोड़ने के दोषी पाया  जाने वाला व्यक्ति | 

अगली बात यदि ट्रैफिक नियमों में से किसी की अवहेलना की गयी है या उसे तोड़ा गया है , जैसे रेड लाईट जम्पिंग , नशे की हालत में ड्राईविंग , एम्बुलेंस को रास्ता न देना तो इन अपराधों के लिए तो आपको आरोपी बनाया ही जाएगा साथ ही साथ , गाडी से सम्बंधित सभी कागज़ात वो भी बिलकुल दुरुस्त न होने की स्थति में मौके पर गाडी को जब्त करने के अलावा अदालत उन सभी के लिए आपको दंड और जुर्माना कर सकती नहीं , अब अदालतें     दंड भी दे रही हैं और जुर्माना भी कर रही हैं | 

अदालत में भी अब एक तारीख पर आरोपी को मुक्त नहीं किया जाता है | अपनी गलती मानने की स्थिति में आरोपी को एक प्रार्थना पत्र दाखिल करना होगा | अदालत उसे विचारार्थ संज्ञान में लेकर अगली तारीख से पहले परिवहन विभाग , पुलिस व अन्य सभी    सम्बंधित  एजेंसियों  से  पूर्व में  दोषी या  कहिये  कि   कोई लंबित  चालान  आदि  की पूरी रिपोर्ट  तलब  की जाती है |  नियत दिन व्  समय पर जांच अधिकारी  खुद    उपस्थित होकर इस  बात की जानकारी  अदालत को देती   हैं  | 

अब दंड और जुर्माने की बात  ..अब  अधिकतम जुर्माना ...या न्यूनतम जुर्माने राशि की  आधी रकम ..जुर्माने के रूप  में  चुकाने  के अलावा अदालतें ..पंद्रह दिनों की कैद , पंद्रह दिनों तक अस्पताल या सुधार गृहों में सेवा , ट्रैफिक पुलिस का सहयोग  व व्यावसायिक  वाहनों  के  केस  में  उन्हें  पंद्रह  दिनों का प्रशिक्षण  जैसी दंड व्यवस्था को अपना रही हैं  | इनके अलावा कुछ नए प्रयोगों के तौर  पर ..एक निश्चित धन राशि प्रधानमंत्री राहत  कोष या    आरोपी की माता बहन  व बेटी के नाम से बैंक  में  जमा कराने का निर्देश  देकर आरोपियों को अपनी गलती का एहसास व जिम्मेदारियों को समझने का अवसर दे रही हैं  | 

यानि लब्बो लुआब ये कि , यदि आप ट्रैफिक नियमों को  गंभीरता से न लेकर  महज़ खानापूर्ति करने की आदत पाले बैठे हैं तो फिर यकीनन ही अपना धन , समय , प्रतिष्ठा व उर्जा को दांव पर लगाने की भूल कर रहे हैं जो देर सवेर खुद पलट कर आपके  लिए अधिक  नुकसानदायक साबित होगी 

शुक्रवार, 2 जून 2017

छलावा साबित हो रही हैं त्वरित न्यायालय की परिकल्पना





कुछ दिनों पूर्व छपी एक खबर के अनुसार , हाल ही में नई राष्ट्रीय महिला नीति के प्रस्तावित मसौदे   में महिलाओं को त्वरित न्याय दिलवाने के उद्देश्य से विशेष अदालतें (जिन्हें "नारी अदालत "कहा  जाएगा )कि गठन का  सुझाव  दिया गया है | सकारात्मक दृष्टिकोण से इस  खबर  के  दो अच्छे  पहलू  हैं |पहला ये कि सरकार व् प्रशासन समाज में महिलाओं की बदलती हुई  स्थिति  व् परिदृश्य के कारण महिलाओं के लिए एक नई राष्ट्रीय नीति लाने को तत्पर हुई  |और दूसरा ये कि अपने इस प्रयास में  गंभीरता दिखाते हुए महिलाओं को त्वरित न्याय दिलाने के उद्देश्य से उनके लिए विशेष अदालतों के गठन की कवायद | किन्तु ,

एक नागरिक , और विशेषकर सरकारी मुलाजिम , इत्तेफाकन अदालत ही मेरा कार्यक्षेत्र होने के कारण भी , मेरी पहली और आख़िरी प्रतिक्रया यही होगी , कि , नहीं इससे कहीं कुछ भी नहीं बदलेगा , कुछ भी नहीं | कम से कम ये वो उपाय नहीं हैं जो अपने उद्देश्य को पूरा करने में सफल हो पायेंगे , विशेषकर तब जब आप सालों से उन्हें आजमा रहे हैं और दुखद स्थिति ये है कि दिनोंदिन महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध में क्रूरता का स्तर अब पहले से कहीं अधिक है और ये लगातार हर क्षण बढ़ रहा है | यूं किसी भी नए प्रयास या ऐसी किसी कोशिश का नकारात्मक आकलन उचित नहीं माना जाना चाहिए | मगर अफ़सोस यही है कि , प्रायोगिक रूप से ये परिणामदायक उपाय नहीं साबित होंगे |

नीतियाँ नियम क़ानून , पहले इनकी ही  बात करते हैं | इस देश में लिखित क़ानून का प्रावधान ब्रिटिश राज़ से शुरू हुआ था बहुत सी नई परिकल्पनाओं की तरह  |और  ये  सिलसिला  जो  शुरू  हुआ  तो  फिर  हास्यास्पद रूप से  हम बहुत  कम उन  देशों  में शामिल  हैं  जो  लगातार कानून पे क़ानून ,रोज़ बनाए  जाते  नियम  कायदे  और  बिना किसी ठोस कार्यप्रणाली और ब्लूप्रिंट के घोषित की जाने वाली नीतियाँ | सबसे बड़े हैरत की बात ये है कि पूर्व में बने लागू किये कानूनों का आकलन विश्लेषण उनका प्रभाव और परिणाम ऐसी बातों को गौण विषय ही समझा गया है और शायद यही एक वजह ये भी है कि आम लोगों में भी क़ानून और अदालत जाने पहुँचने की आदत शुमार हो चली है , ये किसी भी दृष्टिकोण से अच्छी स्थति नहीं है


जिस देश में जितने अधिक क़ानून होते हैं इसका मतलब उस देश का समाज उतना उदंड और कानून का द्रोही होता है .किसी विधिवेत्ता ने इसी बात को बखूबी ऐसे लिखा था | अब बात त्वरित अदालतों की संकल्पना की जो बहुत से कारणों की वजह से वैसा  ही अपेक्षित  परिणाम  नहीं  दे  पाया  जैसा विशेष अदालतों के मामले में हुआ है | और इसकी कुछ वजहें भी हैं | आसान भाषा में समझा  जाए तो  महिला अदालत , परिवार न्यायालय , हरित ट्रिब्यूनल , बाल न्यायालय ...जैसी परिकल्पनाओं के पीछे एक जैसे विधिक विचार बिन्दुओं वाले वादों को एक विशेष न्यायालय में सुनवाई का अवसर देना , निस्तारण , सम्बंधित मशीनरी का बेहतर उपयोग और अन्य कई कारण , होता है | सरकार द्वारा संसद में इसका प्रावधान करते समय , प्रशासन की मंशा रहती है कि , विशिष्ट अदालतों और त्वरित अदालतों का गठन या स्थापना  विशेष रूप से किया जाना चाहिए | किन्तु एक नई अदालत के लिए एक न्यायिक अधिकारी के साथ कम से कम दस कर्मचारी के पूरे सेट अप की अनिवार्य आवश्यकता का फौरी हल न होने के कारण , मौजूदा न्यायाधीशों व् कार्यरत कर्मचारियों में से ही एक तदर्थ व्यवस्था की जाती है | इसका परिणाम ये निकलता है कि इस नई विशेष अदालत की व्यवस्था स्थाई और सुचारू होने तक वो भी अन्य अदालतों के समान ही , अपनी पूरी शक्ति से कार्य करने के बावजूद भी , मुकदमों के बोझ से जूझती सी लगती हैं |

देश की वो तबका जो न्याय व्यवस्था  के होते हुए  भी  लगातार  शोषित  होता रहा  है  उनमें दुनिया  की  आधी  आबादी  भी  है  , विडंबना है कि मेरे गृह जिले में १२ वर्ष की एक किशोरी को पारिवारिक दुश्मनी के शिकार के रूप में व्याभिचार के बाद हत्या और उसके शव को जला तक दिए जाने का नृशंश अपराध जब आंदोलित किये हुए है तो ये एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह देश की क़ानून व्यवस्था और खासकर अपराधियों के कभी भी कम न हो पाए मनोबल के लिए समाज याची से ज्यादा याचक बना दिखता है | यह नैसर्गिक न्याय के नियम के विरूद्ध है |


......देश की अदालतों में मुकदमों का बढ़ते  बोझ के लिए व्यवस्था को अब बिलकुल अगल और नए सिरे से सोचना होगा