शुक्रवार, 29 जून 2012

किसी का बीच सडक जाना , अच्छा नहीं होता





मेरी नियुक्ति पिछले कुछ सालों से मोटर वाहन दुर्घटना न्यायाधिकरण में है । शुरू से आदत रही है कि जहां भी काम करो वहां उस काम को समझ के रोज़ उसे बेहतर करने का प्रयास करना चाहिए , और इस प्रयास में जो भी अच्छा मिलता जा रहा ज्ञान वो आपके लिए बोनस है । इस वर्तमान कानूनी दायरे में आज शहर का इतना बडा समाज प्रभावित है , मुझे देख कर हैरानी  हुई थी पहले पहल । लेकिन फ़िर लगभग रोज़ सुबह शाम अखबारों में सडक दुर्घटनाओं , रोड रेज के समाचार देखने पढने को मिलने लगे और दिल्ली की सडकों पर लोगों में ट्रैफ़िक सैंस के प्रति घोर लापरवाही देखी तो मुझे यकीन हो गया कि स्थिति ठीक ऐसी ही और इससे भी बदतर ही होगी हकीकत में भी ।


राजधानी दिल्ली के हालात ऐसे हो गए हैं कि , रोजाना  सडक दुर्घटनाओं की गिनती में ईज़ाफ़ा होता रहता है , जिसे सीधे  सीधे आटीओ चौराहे पर लगे दुर्घटना हताहत संख्या सूचक पट्टिका पर भी देखा जा सकता है । राजधानी दिल्ली की पुलिस को अलग से मोटवर बाहन दुर्घटना सैल का गठन करना पड गया । न्यायिक प्रक्रियाओं में , विशेषकर मुआवजे का भुगतान निर्धारण व भुगतान तीव्र गति से करने के लिए दुर्घटना सूचना रिपोर्ट ,को  प्राथमिकी के अडतालीस घंटों के अंदर जांच अधिकारी को अदालत में जमा करनी होती है और इसके एक माह के भीतर भीतर दुर्घटना की विस्तृत रिपोर्ट अदालत में जमा करनी होती है । अदालतों को निर्देश दिया जाता रहा है समय समय पर कि वे इन मुकदमों का निपटारा जल्द से जल्द किया करें । आंकडे बताते हैं कि मुकदमों के निस्तारण में तेज़ी आई है , लेकिन दुर्घटना की दर के अनुपात में ये बहुत ही धीमा है ।इसकी वजह एक से अधिक हैं जिन्हें आप इस पोस्ट में देख सकते हैं



चूंकि मुआवजा न्यायाधिकरण/पंचाट सिर्फ़ दुर्घटना में पीडित के मुआवजे का निर्धारण करता है इसलिए दीवानी प्रकृति की न्यायिक प्रकिया चलती है । अपने अनुभव के आधार पर मैंने आपको बताया था कि किसी दुर्घटना होने के समय और उसके बाद किन किन बातों का ध्यान रखना चाहिए , । एक कर्मचारी से अलहदा जब मैं वहां पीडितों और उनके साथ आए घरवालों को या मृतकों के आश्रितों का दर्द देखता हूं , उनकी सूनी आंखें और वेदना देखता हूं , तो मुझे सच में ही भीतर से क्रोध आता ये जानकर कि ये जो दूसरी तरफ़ बडे आराम से वकील के पीछे खडे वाहन चालक और वाहन मालिक खडे हैं इनकी ज़रा सी लापरवाही ने एक पूरे परिवार को एक पूरी नस्ल को बर्बाद कर दिया और उस परिवार की आने वाली नस्ल के विकास के  रास्ते को बंद कर दिया है । विशेषकर उन मामलों में जहां , चालक ने शराब पीकर दुर्घटना की हो , या फ़िर नकली लाइसेंस के सहारे चलाते हुए बडे टैंकर ,टैंपो , और ट्रक बसों तक से बडी दुर्घटनाओं को अंजाम दिया हो ।

हैरानी और दुख की बात तो ये है कि खुद सरकार ने अपने अधीन चलने वाली सरकारी गाडियों के लिए साधरणतया बीमे की छूट ले रखी होती है इस दलील के साथ कि दुर्घटना में मुआवजे आदि का भुगतान खुद सरकार वहन कर लेगी । जब मुकदमों के दौरान उनकी असंवेदनशीलता के कारण उन पर भारी जुर्माना भी लगता रहता है अक्सर । उत्तर प्रदेश , उत्तरांचल आदि राज्यों के परिवहन विभाग तो इतने सुस्त और लापरवाह होते हैं कि मुआवजे के आदेशे के बावजूद पीडित की मुआवजा राशि तब तक नहीं जमा कराई जाती जब तक वसूली आदेश भेजा जाए । अभी छ; महीने पूर्व ही मेरठ की लाइसेंसिंग अथॉरिटी को पूरी तरह से सील कर दिया गया क्योंकि वहां प्रतिदिन लगभग एक हज़ार नकली लाइसेंस बना कर जारी कर दिए जाते थे । पुलिस और जांच एजेंसियां अभी अन्वेषण में लगी हुई हैं ।


बीमा कंपनियों का रवैया भी बहुत टालमटोल वाला रहता है जो अनुचित है । आजकल नकली बीमा पॉलिसियों का मामला भी काफ़ी देखने में आ रहा है । माननीय उच्च न्यायालय दिल्ली के आदेश के बाद से पुलिस हर ऐसे मामले में जांच करके प्राथमिकी दर्ज़ कर रही है जहां उसे नकली लाइसेंस और बीमे का पता चलता है । अब सबसे जरूरी बात , इस स्थिति को कोई बदल सकता है तो वो हैं हम और आप , हमारा पूरा समाज । हमें ट्रैफ़िक नियमों का सम्मान और उनके पालन की आदत डालनी होगी , नावालिगों और अप्रशिक्षित लोगों के हाथों में गाडियों की कमान सौंपने की आदत छोडनी होगी , शराब पीकर चलाने की आदत को बदलना होगा , गाडी के सभी कागज़ातों , विशेषकर बीमा को अनिवार्य करना होगा । इसके साथ ही चूंकि हम इस दुर्घटना के लिए खुद ही जिम्मेदार हैं और इसके पीडित भी हम ही हैं । इसलिए जो एक काम जरूर कर सकते हैं वो है दुर्घटना यदि हो गई है तो जल्दी जल्दी पीडित को चिकित्सा सहायता और उसके मुआवजे का भुगतान ।

सोचिए कि किसी के घर का चिराग बीस साल की जवानी में , अपनी पत्नी , बच्चे , बूढे मां पिता और छोटे भाइ बहनों को छोडकर असमय चला जाता और फ़िर उस परिवार को अगले कुछ या शायद बहुत सालों तक मुआवजे के लिए अदालत के धक्के खाते रहने पर उस परिवार पर क्या गुज़रती होगी । लगभग पचास साथ प्रतिशत दुर्घटनाओं के लिए शराब पीकर गाडी चलाना , लापरवाही और तेज़ रफ़्तार से चलाना , ट्रैफ़िक नियमों की अनदेखी और खराब सडकें ही जिम्मेदार होती हैं । मुझे तो रोज़ यही लगता है कि ...किसी का बीच सडक जाना अच्छा नहीं होता ..मौत के लिए कम से कम ,किसी को ,चौराहा कोई मयस्सर न हो ॥

बुधवार, 13 जून 2012

न्याय होना ही नहीं , होते हुए महसूस होना चाहिए




कई दिनों से इस ब्लॉग पर पोस्ट नहीं आई थी , और मेरे बहुत चाहने के बावजूद भी मैं इस पर कोई पोस्ट अपडेट नहीं कर पा रहा था बावजूद इसके कि बिना नियमित लिखने के भी इस ब्लॉग पर हमेशा ही पाठकों की संख्या ज्यादा रहती है , मैं कोताही बरत जाता हूं , खैर तो जब  ब्लॉग बुलेटिन पर युवा ब्लॉगर अनुज शेखर सुमन ने से प्रश्न उठाया , और अपनी पोस्ट में भी इसे सामने रखा ,और वहां टिप्पणी  स्वरूप उन्हें जो विधि से जुडे हुए हों से कुछ कहने की अपेक्षा हुई तो मुझे लगा कि अब इस मुद्दे पर अपनी बात रखनी चाहिए । चूंकि बात विस्तार से लिखने वाली थी इसलिए पोस्ट पर ही कही जा सकती थी


ये है वो खबर जिस पर प्रतिक्रियास्वरूप ये बहस उठाई गई है






इस फ़ैसले और उसके निहितार्थ पर बहस करने से पहले कुछ तथ्यों को जान लेना समीचीन होगा शायद ।अभी कुछ समय पहले माननीय उच्च न्यायालय ने ऐसे ही एक मुकदमे का निपटारा करते हुए एक तेरह चौदह वर्षीय बालिका के प्रेम विवाह को उचित ठहराया था । और गौरतलब बात ये है कि उस समय भी उठे ऐसे ही प्रश्नों और शंकाओं  को दरकिनार करने के लिए विस्तारपूर्वक वो कारण बताए थे न्यायिक फ़ैसले ने जिनके द्वारा ये सिद्ध किया गया था कि उक्त वाद में ,शहरी वो भी राजधानी के शहरी समाज की एक उन्नत और आधुनिक परिवार की न सिर्फ़ शिक्षित बल्कि मानसिक रूप से और शारीरिक रूप में भी सक्षम बालिका थी । इसीलिए अदालत ने माना कि सुदूर गांव में रहने वाली और वहां  के परिवेश के अनुरूप ऐसा न हो किंतु राजधानी के परिवेश में पलीबढी एक बालिका इतनी तो सक्षम है ही कि अपना भला बुरा सोच समझ सके और इसीलिए , बस इन्हीं विशेष कारणों से उस विवाह को वैध ठहराया गया था ।


दूसरी और बडी दलील ये थी कि , यदि आरोपी को , इस अपराध की दंडात्मक सजा ही सुनाई जाए तो फ़िर भी पीडिता जो कि अब उसके साथ अपना जीवन बिताने को तैयार है एवं इसके लिए ही खुद ही प्रार्थना कर रही हो तो भारतीय दंड विधान के दंडात्मक चरित्र के अलग जाकर इस तरह के फ़ैसले दिए जाना एक स्वागत योग्य कदम है ।अब कुछ खास बात इस खबर पर , मेरे ख्याल से न्यायालीय आदेशों की रिपोर्टिंग करने वाले खबरनवीसों को ज्यादा समझदार और ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए । ऊपर छपी खबर का शीर्षक होना चाहिए था "अदालत ने नाबालिग के विवाह को वैध ठहराया " आशय स्पष्ट कि , एक विवाह जिसमें कोई एक पक्ष नाबालिग था या थी , उसे अदालत ने अपने फ़ैसले से वैध ठहराया है । इस शीर्षक का निहितार्थ ये निकल रहा है मानो अदालत ने मुस्लिम बालिकाओं के लिए पंद्रह वर्ष की वैवाहिक आयु को सही माना है । कितना बडा अंतर आ जाता है प्रस्तुतिकरण और रिपोर्टिंग से इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है । खबर से स्पष्ट है कि पीडित युवती ने ही खुद इस बाबत प्रार्थना की थी और अदालत ने न्याय होने ही नहीं न्याय महसूस होने के सिद्धांत पर चलते हुए ये फ़ैसला सुनाया । 


अभी कुछ समय पूर्व इसी तरह एक फ़ैसले में आए विचारों को लेकर खूब बहस हुई थी और इसमें भी अदालती आदेशों की समाचारीय रिपोर्टिंग ने पाठकों और आम लोगों के सामने ,मामले को कुछ और ही बना कर या बिल्कुल ठीक ठीक नहीं  रखा था ।