रविवार, 29 दिसंबर 2013

नई तकनीकों से लैस होता कडकडडूमा कोर्ट




कडकडडूमा न्यायालय परिसर का प्रवेश द्वार


दिल्ली की सभी पांच जिला अदालत परिसरों में से कडकडडूमा न्यायालय , जिसमें वर्तमान में दिल्ली के तीन जिलों , पूर्वी , उत्तरपूर्वी और शाहदरा जिला , की अधीनस्थ अदालतें काम कर रही हैं , का विकास शुरू से ही एक आदर्श कोर्ट परिसर की तरह किया गया है । बहुत से नए प्रयोगों व शुरूआत के लिए न्यायिक सुधारों के इतिहास में पहले से ही अपनी ख्याति का परचम लहरा रहे इस न्यायालय परिसर में , देश का पहला ई कोर्ट , देश का पहला संवेदनशील गवाह कक्ष एवं परिसर , हरित न्यायालय परिसर आदि के अलावा यहां सांध्यकालीन अदालतें , नियमित लोक अदालतें , मध्यस्थता केंद्र , विधिक सेवा प्राधिकरण , दिल्ली न्यायिक अकादमी , ई कोर्ट शुल्क वितरण केंद्र , सुविधा एवं सूचना केंद्र जैसे अनेक प्रयास लगातार किए जा रहे हैं । अब इनका परिणाम भी दिखने लगा है ।


हाल ही में ऐसे कुछ और प्रयासों की शुरूआत की गई है । अदालत भवन के प्रवेश द्वार प्रांगण में स्थित "सुविधा एवं सूचना केंद्र" में अधिवक्ताओं व आम लोगों के लिए विभिन्न प्रयोजनों हेतु बनाई गई खिडकियां (काउंटर्स) को माइक एवं स्पीकर से जोडा गया है । वास्तव में इन खिडकियों में बाहर की तरह कतारों में खडे लोगों को भीतर बैठे कर्मचारी द्वारा कही गई या बताई गई कोई बात अथवा जानकारी सुनने में काफ़ी परेशानी होती थी । चूंकि इस तरह की बारह खिडकियां बिल्कुल साथ साथ होने के कारण सुनने में काफ़ी असुविधा होती थी । इस समस्या को दूर करने के लिए सभी बारह खिडकियों पर उच्च तकनीक वाले माइक तथा स्पीकर लगा दिए गए हैं जिससे अब आम लोगों व अधिवक्ताओं को आसानी से सुना व कहा जा सकता है । ज्ञात हो कि प्रवेश द्वार के साथ ही बनी हुई खिडकी संख्या दो "पूछताछ एवं सहायता खिडकी" है जहां से न सिर्फ़ अदालत में चल रहे किसी भी वाद , उसके पक्ष , तारीख आदि के बारे में जानकरी दी जाती है बल्कि अन्य सभी जानकारियां भी उपलब्ध कराई जाती हैं ।


इसके अलावा बहुत समय से प्रतीक्षित योजना "केस स्टेटस कंप्यूटर नोटिस बोर्ड" को भी हाल ही में स्थापित किया गया है । अदालत भवन में प्रवेश करते ही एक बडा कंप्यूटर नोटिस बोर्ड आम लोगों को दिखाई देगा ये कुछ इस तरह का जैसा आपने रेलवे स्टेशनों पर गाडियों की आवक जावक की सूचना हेतु लगा  देखा होगा । इस बोर्ड पर सभी अदालतों की कक्ष संख्या , उसके आगे उस समय उस अदालत में चल रही वाद संख्या एवं पक्षों का नाम प्रदर्शित होते हुए देखा जा सकेगा । वास्तव में इस कंप्यूटर बोर्ड को अदालत कक्षों में न्यायाधीश महोदय के साथ बैठे रीडर(पेशकार) के कंप्यूटर के साथ जोड दिया गया है ,किसी वाद की संख्या और पक्ष का नाम वहां टंकित करते ही इस सूचना बोर्ड पर वह प्रदर्शित होने लगेगा । ज्ञात हो कि कडकडडूमा अदालत परिसर में तीन जिला अदालतों के अधीन लगभग सौ अदालतें काम करती हैं जो पांच ब्लॉकों में विभाजित हैं । ऐसी ही एक सूचना पट्टिका अधिवक्ता चैंबर ब्लॉक्स में भी स्थापित कर दी जाएगी । इसका लाभ ये होगा कि अधिवक्ताओं सहित आम लोगों को भी इस बोर्ड पर प्रदर्शित सूचना से पता चल जाएगा कि अमुक अदालत में अभी अमुक संख्या के वाद की सुनवाई हो रही है । ज्ञात हो कि दिल्ली उच्च न्यायालय में ये व्यवस्था पहले से ही है ।


इसके अलावा भविष्य में अदालतों में आने वाली भीड और उसके कारण सुरक्षा व्यवस्था पर बढते हुए दबाव , गवाहों के साथ मारपीट की घटनाओं आदि को ध्यान में रखते हुए , मुख्य प्रवेश द्वार पर ही आम व्यक्तियों के लिए पास की व्यवस्था की शुरूआत की जाने वाली है । इससे यह लाभ होगा कि अनावश्यक ही अदालतों में भीड बढाने वाली संख्या को संतुलित एवं नियंत्रित किया जा सकेगा । उम्मीद है कि नित निरंतर प्रयोगों की इस रफ़्तार के साथ ही लोगों को त्वरित न्याय मिलने की रफ़्तार में भी तेज़ी आएगी


अगली पोस्ट :- फ़ैसलों और अदालत का वर्ष -2013

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

मृत्युदंड : फ़ैसले के बाद क्या ???




दिल्ली बलात्कार कांड के फ़ैसले के आने से पहले यदि किसी से भी पूछा जा रहा था कि वो इस अपराध के आरोपियों को क्या सज़ा पाते हुए देखना चाहते हैं तो दस में आठ व्यक्तियों का कहना था कि , उन्हें मौत की सज़ा मिलनी चाहिए । खुद गृह मंत्री तक भावावेश में एक विवादास्पद बयान दे गए कि मौजूदा कानूनों के तहत तो आरोपियों को सज़ा- ए -मौत का दंड ही दिया जाना चाहिए । जिस क्रूरतम तरीके से ये अपराध किया गया था उसी समय से दोषियों के खिलाफ़ एक और सिर्फ़ एक ही सज़ा , यानि फ़ांसी की पुरज़ोर मांग उठने लगी थी । किंतु कानून न तो जन भावनाओं पर चलता है न ही आवेश में आकर कोई फ़ैसला सुनाता है , हालांकि ऐसे अपराधों के लिए इससे पहले फ़ांसी की सज़ा न दी गई हो  । कुछ वर्षों पहले धनंजय चटर्जी नामक एक व्यक्ति को , बलात्कार और बलात्कार के बाद हत्या के आरोप में मृत्युदंड की सज़ा दी गई थी ।


अब जबकि दिल्ली बलात्कार कांड के छ: अपराधियों में से चार को फ़ांसी की सज़ा सुना दी गई है तो स्वाभाविक रूप से इसके बाद की परिस्थितियों पर भी नज़र डालना जरूरी हो जाता है ।  किसी भी अभियुक्त को जब निचली अदालत फ़ांसी की सज़ा सुनाती है तो एक महीने के अंदर ही केस फ़ाइल और न्यायिक आदेश को संबंधित उच्च न्यायलय की संपुष्टि या अनुमोदन के लिए प्रेषित कर दिया जाता है । यदि अदालत निचली अदालत के आदेश की संपुष्टि कर देती है तो अभियुक्त इस आदेश के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकता है । अंतिम आदेश के रूप में यदि सर्वोच्च न्यायालय भी इस अधिकतम सज़ा पर मुहर लगा देता है तो इसके बाद अभियुक्त राष्ट्रपति के समक्ष क्षमा याचिका दायर कर सकता है और इतना ही नहीं राष्ट्रपति द्वारा क्षमा याचिका को ठुकराए जाने के आधार को भी चुनौती देते हुए पुन: सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की जा सकती है । इन सभी चरणों के बाद भी यदि मौत की सज़ा ही बरकरार रहती है तो फ़िर न्यायालय एक नियत तारीख तय कर देती है , जिस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने के बाद .'warrent of death" अभियुक्त को फ़ांसी पर  उसके प्राण निकलने तक लटका कर उसे मृत्यु दंड दिया जाता है । यानि वर्तमान सज़ा इस लडाई की पहली सीढी या कहें कि पहली सफ़लता मानी जा सकती है ।


जहां तक इस मुकदमे के परिप्रेक्ष्य में बात की जाए तो इस सज़ा का सबसे बडा प्रभाव पडेगा उस बचे हुए नाबालिग आरोपी की सज़ा पर , वो भी उस स्थिति में जब सर्वोच्च न्यायालय में लंबित याचिका के फ़ैसले में "नाबालिग " की नई परिभाषा , इस आरोपी को भी अपने अंज़ाम तक पहुंचा सकेगी । दूसरा प्रभाव ये कि यदि ऊपरी अदालतों में किसी भी वजह से अधिकतम सज़ा को कम भी किया गया तो ये आजीवन कारावास से कम नहीं होगा , और यहां बताता चलूं कि अब सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1997 में गोपाल विनायक गोडसे बनाम महाराष्ट्र राज्य वाद में ये बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि आजीवन कारावास का पर्याय है मृत्यु तक कारावास । इस वाद में मौजूदा न्यायिक परिस्थितियों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि बेशक अपील दर अपील ये मुकदमा लंबा समय ले ले किंतु अंतिम परिणति तक पहुंचेगा अवश्य । और यदि समाज और संचार माध्यमों ने इसी तरह त्वरित न्याय पाने के लिए दबाव बनाए रखा तो नि: संदेह इसमें न्याय पाने के लिए धनंजय चटर्जी मामले की तरह लंबा समय नहीं लगेगा । इस फ़ैसले का एक तात्कालिक प्रभाव ये भी पडेगा कि अभी लंबित सभी ऐसे मुकदमों में न्यायाधीश इसी तरह की हिम्मत दिखा सकेंगे जो बेशक बहुत कम प्रतिशत ही सही मगर अपराधियों में एक तात्कालिक भय तो जरूर पैदा करेगा ।

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

दंडव्यवस्था पर एक बहस









दिल्ली बलात्कार कांड की अंतिम परिणति या कहा जाए कि भारतीय न्याय व्यवस्था जो कम से कम त्रिस्तरीय तो है ही , उसके पहले चरण का अंतिम फ़ैसला अब आने को है । इस वक्त देश और पूरे समाज की निगाहें इस फ़ैसले की ओर लगी हुई हैं । आरोपियों को सभी धाराओं में दोषी ठहराए जाने के बाद अब जबकि उनको दी जाने वाली सज़ा पर भी बहस हो चुकी है तो अगले कुछ घंटों के भीतर ही माननीय अदालत द्वारा ये भी तय कर दिया जाएगा कि उन्हें अभी मौजूद दो अधिकतम सज़ाओं के विकल्प "उम्रकैद या फ़ांसी" में से कौन सी सज़ा दी जाएगी । चूंकि ये वो अपराध था जिसने पूरे देश को न सिर्फ़ उद्वेलित किया बल्कि महिलाओं के विरूद्द होने वाले अपराध और उनके शोषण को रोकने के लिए  प्रस्तावित और बरसों से लंबित कानून को पारित करने में अहम भूमिका निभाई । सरकार ने आनन फ़ानन में दिवंगत न्यायाधीश जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति का भी गठन किया जिसने पूरे देश से इस मामले पर सुझाव और विचार मांग कर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की । इसी के मद्देनज़र कानूनों में बदलाव करके न सिर्फ़ दंड व्यवस्था को कठोर किया गया बल्कि बलात्कार जैसे अपराध की परिभाषा को और विस्तृत करके " यौन शोषण " कर दिया गया ।



इस विशेष मुकदमे से इतर इससे पहले भी ऐसे मौके आते रहे हैं जब फ़ांसी और उम्रकैद की सज़ा पर न सिर्फ़ बहस उठ खडी हुई बल्कि पिछले दिनों तो दिल्ली की एक अदालत ने एक सप्ताह में ही पांच मुजरिमों को सीधे फ़ांसी की सज़ा सुनाई है । ज्ञात हो कि बलात्कार के मुजरिमों को फ़ांसी की सज़ा , धनंजय चटर्जी के  मुकदमे और उसे मिली फ़ांसी की सज़ा के समय से शुरू हुई थी , खासकर ये बात कि किसी सज़ा को सुनाए जाने से उसे परिणति तक पहुंचने में यानि उसे फ़ांसी मिलने में 13 वर्षों का लंबा समय लगा था । उस समय के बाद अनेक मुकदमों में जब जब भी किसी को फ़ांसी की सज़ा सुनाई गई हर बार इस अधिकतम सज़ा पर एक बहस उठ खडी होती रही है ।


दंड : विधिशास्त्र के अनुसार यदि निचोड में कहा जाए तो सामाजिक व्यवस्था के लिए जो कानून निर्मित किए जाते हैं उनके उल्लंघन को रोकने के लिए भय के रूप में जो शारीरिक , मानसिक , आर्थिक, या सामाजिक कष्ट पहुंचाया जाता है , वह दंड कहलाता है । दंड के विभिन्न सिद्धान्तों में मुख्यत: चार सिद्धान्तों को स्वीकार किया गया है , जो प्रतिरोधात्मक , प्रतिशोधात्मक , निरोधात्मक , या सुधारात्मक सिद्धान्त कहलाते हैं । आधुनिक युग में एक नए सिद्धान्त उपचारत्मक सिद्धान्त को भी मान्यता दी गई है । विश्व के सभी देशों ने इन्हीं दंड सिद्धातों में से कोई न कोई सिद्धांत अपनाया व लागू किया हुआ है । किंतु इन सिद्धान्तों के प्रयोग और उनके अनुसार दी गई सज़ाओं से अपराध में कितनी कमी आई या कि सज़ा का अपराधियों में कितना भय बैठा इसका आकलन करने का शायद ही कभी प्रयास किया गया हो ।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो प्राचीन काल में भारत में मुख्यत: चार प्रकार की दंड व्यवस्थाएं प्रचलित थीं

वाकदंड या चेतावनी
प्रायश्चित
अर्थदंड
कारावास, मृत्युदंड , बध-दंड या अंग विच्छेद ।



कालांतर में अमानवीय दंड प्रथाओं के स्थान पर सुधारात्मक दंड व्यवस्था की ओर भारतीय विधि का झुकाव हुआ । किंतु इसके बावजूद भी चूंकि भारतीय विधि एक लिखित और इस कारण सीमित विधि की श्रेणी में आती थी इसलिए तय अपराधों के लिए एक नियत तय सज़ा को देने की  व्यवस्था ही बहाल रखी गई ।   हालांकि पिछले दो दशकों में भारतीय विधिक व्यवस्थाओं में तेज़ी से बदलाव देखने को मिले हैं और प्रयोग के तौर पर ही सही किंतु उन नई दंड प्रणालियों , जैसे सामाजिक संस्थानों में सेवा देना , आरोपियों पर अर्थदंड लगाकर उस राशि से पीडितों को सहायता देने आदि को भी आज़माया जाने लगा है ।

अब इस मुकदमे के संदर्भ में यदि इस क्रूरतम अपराध के लिए भारतीय कानून में उपलब्ध दो अधिकतम विकल्पों - आजीवन कारावास और मृत्युदंड के बीच विमर्श किया जाए तो बेशक एक आम नागरिक और देश के समाज की भावना के अनुरूप मैं सोचूं तो यकीनन मुझे भी यही लगेगा कि फ़ांसी से कम कोई सज़ा इस जघन्य अपराध के लिए नाकाफ़ी साबित होगी । किंतु जब लंबी न्यायिक प्रक्रियाओं और पहले से ही फ़ांसी की सज़ा पाए अभियुक्तों की लंबी कतार देखता हूं तो मेरा संदेह और भी पुख्ता हो जाता है कि काश भारत भी उन अन्य पश्चिमी और कुछ और देशों की तरह "अपराध आधारित सज़ा " की व्यवस्था को अपना पाता तो ही ऐसे मामलों में न्याय पाने जैसा लग सकता है । ज्ञात हो कि एक उदाहरण से इसे ऐसा समझा जा सकता है कि श्रीलंका में एक व्यक्ति जिसने अपनी 67 वर्षीय मां के साथ बलात्कार किया था उसे अदालत ने 260 वर्षों की सज़ा सुनाई थी , ऐसी ही अकल्पनीय सज़ाएं पश्चिमी देशों में भी सुनाई जाती रही हैं । अभी हाल ही में किसी अभियुक्त की जेल में मौत हुई जिसे नौ सौ वर्षों की सज़ा सुनाई गई थी । इसका मंतव्य सिर्फ़ इतना संदेश देना होता है कि अपराध की गंभीरता को देखते हुए उसकी सज़ा इतनी अधिक बनती है बेशक अपरधी की उम्र उससे बहुत कम ही क्यों न हो ।

कल इस समय तक इस मुकदमे का फ़ैसला आ चुका होगा , फ़िर इस बहस को आगे बढाएंगे ..जो आजीवन कारावास और  मृत्युदंड ..के बीच आगे बढेगी ..................

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

देश के पहले "संवेदनशील गवाह परिसर " की शुरूआत






इन दिनों मेरी नियुक्ति , दिल्ली की पूर्वी ,उत्तर-पूर्वी व शाहदरा जिले की संयुक्त जिला अदालत परिसर , कडकडडूमा कोर्ट में है । दिल्ली में वर्तमान में कार्यरत पांच जिला अदालत परिसरों , तीस हज़ारी न्यायालय , पटियाला हाऊस न्यायालय , रोहिणी न्यायालय , साकेत न्यायालय एवं कडकडडूमा न्यायालय में , कडकडडूमा न्यायालय परिसर को ये गौरव प्राप्त है कि इसका विकास एक आदर्श न्याय परिसर के रूप में हुआ और किया जा रहा है ।



1993 में जब इस न्याय परिसर की स्थापना हुई थी तब से लेकर अपने आज तक के सफ़र में इस न्यायपरिसर को एक आदर्श न्यायायालय परिसर के रूप में विकसित किए जाने के अथक प्रयास अब भी जारी हैं । देश की दूसरी और राज्य की पहली न्यायिक अकादमी की स्थापना , देश के पहले ई न्यायालय की स्थापना , हरित न्याय परिसर की स्थापना , बाल गवाह न्यायालय की स्थापना , के साथ ही मध्यस्थता केंद्र , सुविधा एवं सूचना केंद्र , विधिक सहायता प्राधिकरण की स्थापना , स्थाई लोक अदालतों की स्थापना , सांध्य कालीन अदालतों की स्थापना जैसे जाने कितने ही नवीन न्यायिक प्रयोंगों को शुरू किए जाने के लिए विख्यात हुए इस न्यायालय परिसर ने इतने ही कम समय में देश की विधिक परिसरों में एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है ।


एक बार फ़िर एक अदभुत और नए प्रयोग के लिए तैयार इस न्यायालय परिसर में , कल यानि ११ सितंबर २०१३ को शाम पांच बजे ,माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश महोदय देश के पहले "संवेदनशील गवाह परिसर " की शुरूआत करने जा रहे हैं । यह परिसर न्यायालय भवन के सबसे ऊपरी तल यानि सातवें तल पर स्थापित किया गया है । "संवेदनशील न्याय परिसर "  की संकल्पना , माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने चर्चित बेस्ट बेकरी कांड में दी थी और गवाहों की सुरक्षा पर सरकार का ध्यान खींचा था । इसके साथ ही इसके तुरंत बाद , जेसिका लाल हत्याकांड के दो अहम गवाहों ,श्याम मुंशी  और प्रेम सागर मिनोचा के मुकरने और इस पर संज्ञान लेकर उन दोनों गवाहों पर मुकदमा दर्ज़ किए जाने के निर्देश देते समय दिल्ली उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को गवाहों की समुचित सुरक्षा हेतु नई कार्ययोजना पर काम करने का निर्देश जारी किया था ।


माननीय जिला एवं सत्र न्यायाधीश दिल्ली , ने तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की एक समिति बनाई जिसने "संवेदनशील गवाह परिसर" की स्थापना में अहम भूमिका निभाई । इस गवाह कक्ष की कुछ विशेषताओं में एक सबसे बडी और खास ये है कि इसमें गवाह कक्ष और न्याय कक्ष के बीच एक लंबी ऐसा पारदर्शी आईने सरीखी दीवार होती है जहां से गवाह तो आरोपी का सामना किए बिना और उससे बिना डर अपनी गवाही दर्ज़ करा सकता है । अवयस्क गवाह , बालिकाओं , युवतियों , , महिलाओं , विशेषकर शोषण के मुकदमों में जहां कि आरोपियों से आमना सामना उनकी मनोस्थिति पर प्रभाव डालता है वहां इस तरह की गवाही प्रक्रिया नि;संदेह बहुत प्रभावी साबित होगी । इसके अलावा वीडियो कांफ़्रेंसिग के जरिए भी गवाही कराने का पूरा इंतज़ाम रखा गया है । ज्ञात हो कि न्यायिक क्षेत्र में नई तकनीकों का उपयोग त्वरित व अचूक न्याय के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किए जाने की शुरूआत पिछले एक दशक में ही हुई और इसके क्रांतिकारी सकारात्मक परिणाम देखने को मिले हैं । उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायिक क्षेत्र में ऐसे अभिनव प्रयोग अपने दूरगामी प्रभाव छोडने में सफ़ल होंगे ।  

रविवार, 8 सितंबर 2013

दिल्ली की जिला अदालत ने सुनाया हिंदी भाषा में पहला निर्णय






अब से लगभग चार या पांच वर्ष पहले ,  जिला अदालत में हिंदी के उपयोग , उसके प्रचार और प्रोत्साहन के लिए एक मुख्य केंद्रीय क्रियान्वयन समिति बनाई गई । इसने अपने स्तर से बहुत सारे अनेक कार्य ऐसे किए जो नि:संदेह ही तारीफ़ के काबिल थे , जिनमें से एक थी जिला अदालत की साइट को हिंदी में बनाना । वर्ष में दो तीन बार स्वतंत्रता दिवस , तथा अन्य ऐसे ही मौकों पर कवि सम्मेलन आदि का आयोजन ,  न्यायिक अधिकारियों की मासिक पत्रिका "अभिव्यक्ति" का हिंदी में प्रकाशन आदि अनेक छोटे बडे प्रयास किए गए जिसने धीरे धीरे ही सही मगर दिल्ली की जिला अदालतों में हिंदी की शुरूआत तो कर ही । सभी परिपत्र एवं अन्य पत्राचार में भी हिंदी ने दखल देना प्रारंभ कर दिया । 
.
किंतु इस सबके बावजूद और बावजूद इसके कि कभी कभार एक आध याचिका या किसी याचिका का उत्तर हिंदी में दायर हुआ , कभी भी आमजनों के लिए कोई बडा ऐसा काम नहीं हुआ जिसके लिए ये कहा जा सके कि जिला अदालत द्वारा हिंदी में किया गया ये कार्य आम जनता के लिए काफ़ी उपयोगी साबित हुआ है । सभी जिला अदालतों में हिंदी में कार्य के संचालन की देख रेख के लिए एक एक कर्मचारी की नियुक्ति की नीति के तहत मुझे पूर्वी एवं उत्तर पूर्वी अदालत की जिम्मेदारी दी गई , किंतु वो भी एक अतिरिक्त प्रभार के रूप में , ज़ाहिर तौर पर ये किसी खानापूर्ति जैसा था । पिछले दो सालों में न तो मुझे कोई कार्य सौंपा गया न ही मेरे द्वारा दिए गए या भेजे गए सुझावों पर कभी ध्यान दिया गया । और तो और मेरे अथक प्रयासों के बाद भी मुझे अपने कंप्यूटर पर हिंदी स्थापित करने में भी घोर उदासीनता दिखाई दी । मेरी नियुक्ति इन दिनों  " सत्र न्यायालय ज़मानत विभाग " में है जहां फ़ुर्सत के नाम पर कभी एक ग्लास पानी और चाय पीने का समय मिल जाए तो बहुत है , वाली स्थिति है । 
.
ऐसे समय में मुझे बुलावा आया जिला अदालत के पारिवारिक अदालत के न्यायाधीश महोदय का , यहां मैं ये एक दिलचस्प बात बता दूं कि न्यायाधीश महोदय , जिनका नाम श्री ए.एस जयचंद्रा है , मूलत: दक्षिण भारतीय हैं , उन्होंने अपने कक्ष में मुझे बुलाकर कहा , आप वही हैं न जो पत्र पत्रिकाओं के लिए आलेख वैगेरह भी लिखते हैं । मैंने हामी भर दी । उन्होंने अपने एक निर्णय की प्रति जो अंग्रेजी में टंकित थी एवं उसका एक कच्चा पक्का सा अनुवाद या ड्राफ़्ट जो हिंदी भाषा में हस्तलिखित था मेरे हाथों में पकडाते हुए कहा । इस पर नज़र डाल कर बताएं कि इसमें क्या और कितना दोष है । मैंने सरसरी तौर पर देख कर बताया कि इसमें सुधार की काफ़ी गुंजाईश है । चूंकि ये पत्र या कोई परिपत्र नहीं था बल्कि एक न्यायिक निर्णय था इसलिए मैंने बिना जल्दबाज़ी के कार्य करते हुए उनसे चौबीस घंटे का समय लिया । न्यायाधीश महोदय ने मुझे ताकीद की , कि मैं इसमें प्रचलित उर्दू शब्दों , जैसे तलाक , सुपुर्द , फ़ैसला , आदि के विकल्प के रूप में हिंदी के शब्द या संस्कृत के शब्द का प्रयोग करूं । और दूसरी बात ये कि , ये अंग्रेजी निर्णय का सीधे सीधे अनुवाद न हो बल्कि ये सरल भाषा में लिखा गया एक न्यायिक निर्णय हो ।  
>


मैंने अंग्रेजी भाषा में लिखे ड्राफ़्ट को ध्यानपूर्वक पढा और हिंदी भाषा में लिखे उनके ड्राफ़्ट को भी ।मामला एक हिंदू युगल दंपत्ति के वैवाहिक विच्छेद का था जो अपनी आपसी सहमति से इस निर्णय पर पहुंचे थे । इस युगल दंपत्ति की दो संतान भी थीं । आदेश में दोनों पक्षों के बयान , उपलब्ध तथ्यों के आधार पर , हिंदू विवाह अधिनियम के अनुच्छेद 13 ब (1) के तहत विवाह विच्छेद को विधिक मान्यता दे दी गई ।  घर पहुंचा तो कंप्यूटर महाशय बीमार पड चुके थे । चूंकि मैं उस निर्णय को अगले दिन उन्हें सौपने का आश्वासन दे चुका था और इसी कारण से उस मुकदमे का निर्णय अगले दिन तक के लिए टाल दिया गया था , इसलिए जैसे तैसे करके मैंने उसे टाइप करके उसका प्रिंट लेकर अगले दिन न्यायाधीश महोदय के सामने प्रस्तुत कर दिया ।


उस दिन यानि 07/09/2013, को न्यायाधीश महोदय के हस्ताक्षर होने के बाद , ये दिन और ये निर्णय दिल्ली जिला अदालत के इतिहास का एक नया अध्याय बन गया जब हिंदी ने आधिकारिक रूप से न्यायिक कार्यवाही में दखल दे दी । अब उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में इस पहल को आगे भी एक राह मिलेगी और हिंदी को एक मुकाम । 

शनिवार, 31 अगस्त 2013

फ़ैसले के बाद भी माकूल सज़ा के विकल्प ( संदर्भ दिल्ली बलात्कार कांड फ़ैसला)







आखिरकार उस अपराध का पहला फ़ैसला आ ही गया जिसने भारत के इतिहास में पहली बार आम लोगों को इतना झकझोर दिया था कि वे सीधा रायसीना की पहाडियों की छाती रौंद कर देश के कानून निर्माताओं को ललकारने पर उतारू हो गया थे । दिल्ली के कुख्यात बलात्कार कांड में एक मासूम युवती का बेहरहमी से बलात्कार करके उसके शरीर को इतना प्रताडित किया कि लाख कोशिशों के बावजूद उसकी जान तक नहीं बचाई जा सकी । इस कांड में पकडे गए आरोपियों को जब कानूनी प्रक्रिया के तहत अदालती कार्रवाई के लिए प्रस्तुत किया गया तो जैसा कि किसी भी आरोपी को गिरफ़्तार करते समय पुलिस निर्धारित नियमों का पालन करती है , जिसमें से एक होता है आरोपी की उम्र जिसके अनुसार ही उसपर मुकदमा चलाया जाता है । 

आरोपी की उम्र का निर्धारण या उल्लेख पुलिस को उसे चार्ज़शीट करते हुए इसलिए करना होता है क्योंकि यदि अभी की निर्धारित उम्र , जो कि अठारह वर्ष है , से कम पाए जाने पर वह मुकदमा , जुवेनाइल जस्टिस एक्ट , 1986  के तहत जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड यानि किशोर अपराध समिति की अधिकारिता में आता है । यहां ये बताना ठीक होगा कि ऐसा बोर्ड , जिसके प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट एक प्रथम श्रेणी दंडाधिकारी होते हैं उनके साथ ही बोर्ड में अन्य विविध क्षेत्रों के अन्य सदस्य भी मामले को सुनते हैं । इस कानून के तहत , किसी भी किशोर अपराधी को दोषी पाए जाने पर अधिकतम तीन वर्ष की सज़ा सुनाई जाती है तथा उसे ये सज़ा किसी कारागार में न बिताकर सुधार गृह में बितानी होती है । इसके पीछे विधिक और सामाजिक विद्वजनों का तर्क ये था कि चूंकि कम उम्र में किए गए अपराध के लिए भविष्य में उसे सुधरने और समाज की मुख्य धारा में लाए जाने का अवसर दिया जाना चाहिए , इसलिए यही उसका उचित उपाय है । 

इस बलात्कार कांड में जब एक आरोपी के नाबालिग होने का दावा आरोपी ने किया तो उसकी निर्धारित तय सज़ा , जो कि आज उसे सुनाई गई , यानि अधिकतम तीन वर्ष , के मद्देनज़र इसका तीव्रतम विरोध इसलिए हुआ क्योंकि इसी नाबालिग आरोपी ने पीडिता युवती के साथ सबसे बर्बर व्यवहार , इतना कि ईलाज़ कर रहे डाक्टरों की टीम को खुद कहना पडा कि ऐसा नृशंस व्यवहार उन्होंने पहले नहीं देखा , किया था । इसी समय कुछ संगठनों एवं लोगों ने बरसों पुराने जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में निर्धारित उम्र सीमा को घटाने की मांग उठाई क्योंकि खुद पुलिस का मानना था कि अपराध में किशोरों की बढती संलिप्तता के कारण ऐसा किया जाना जरूरी है । 

इसी समय सरकार की तरफ़ से दो कार्य किए गए । पहला था देश भर के पुलिस अधिकारियों की बैठक जिन्होंने जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत तय उम्र सीमा को कम किए जाने की सिफ़ारिश की । दूसरा था बलात्कार को लेकर सरकार द्वारा बनाए और बदले जा रहे कानून के संदर्भ और सुझाव के लिए गठित जस्टिस वर्मा समिति जिसे भी इस मुद्दे पर राय देनी थी । लेकिन जस्टिस वर्मा समिति ने पुलिस और लोगों की उठती मांग के विपरीत इसी उम्र को सही ठहराया । फ़लस्वरूप सरकार यौन शोषण के लिए परिवर्तित किए गए कानून में इसे कम नहीं कर सकी । विधिज्ञ बताते हैं कि सरकार चाहती तो जस्टिस वर्मा समिति की सिफ़ारिश के विपरीत जाकर इस उम्र को कम कर सकती थी किंतु इस स्थिति में उसे वैश्विक न्याय प्रचलनों और मानवाधिकार नियमों के खिलाफ़ जाने का खतरा उठाना पडता । 



इसका परिणाम ये हुआ कि दिल्ली बलात्कार कांड के इस सबसे ज्यादा खतरनाक आरोपी जिसने खुद के नाबालिग होने का दावा किया उसे किसी सख्त सज़ा मिलने की संभावनाओं पर पानी फ़िरता दिखा । चूंकि आरोपी ने अपने दावे के पक्ष में विद्यालय का प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया जिसे उस विद्यालय के प्रधानाचार्य ने सत्यापित किया , और इस स्थिति में पुलिस के मात्र एक मात्र विकल्प बचा था आरोपी के इस दावे को झुठलाने के लिए उसका ossification test ( एक ऐसी चिकित्सकीय वैज्ञानिक जांच जिसे आम तौर पर हड्डी जांच से उम्र तय करने वाली जांच कहा जाता है ) कराया जाए , किंतु कानूनन ऐसा तब हो सकता था जब आरोपी द्वारा अपने नाबालिग होने के लिए प्रस्तुत साक्ष्य अदालत को संदेहास्पद लगे , किंतु बदकिस्मती से इस मुकदमें में ऐसा नहीं हुआ । 



जैसे जैसे मुकदमा आगे बढता गया इसके संभावित फ़ैसले को भांपते हुए इसे रोकने और आरोपी को सख्मुत सज़ा दिलाने के उद्देश्य के लिए जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड को इस मुकदमे का फ़ैसला सुनाने के लिए अपील की याचिका दायर की गई जिसे स्वाभाविक रूप से उच्च अदालत ने खारिज़ कर दिया । मुकदमा  चला और पुलिस द्वारा चार्ज़शीट कुल बारह धाराओं में से ग्यारह में उसे दोषी ठहराते हुए आज तीन वर्ष की अधिकतम सज़ा सुना दी । 


अब सवाल ये है कि अब जबकि जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने अपना फ़ैसला वो भी निर्धारित अधिकतम सज़ा सुना ही दी है तो अपील के लिए क्या गुंजाईश बचती है ?? किंतु भारतीय कानून इतना विस्तृत और बहुस्तरीय  है कि विकल्प निकल ही आता है । सर्वोच्च न्यायालय ने जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड को इस मुकदमे का फ़ैसला सुनाने से रोकने की याचिका तो को तो खारिज़ कर दिया किंतु इसके साथ ही इस कानून के तहत  "नाबालिग" की परिभाषा तय करने संबंधी प्रार्थना स्वीकार कर ली जिस पर निर्णय आना अभी बांकी है । कानून के ज्ञाता भलीभांति जानते हैं कि यदि सर्वोच्च न्यायालय ने नाबालिग की परिभाषा को तय करने में विशेषकर मुकदमे के संदर्भ में कोई नया फ़ैसला सुना दिया जैसा कि सर्वोच्च अदालत पहले भी कर चुकी है तो ये न सिर्फ़ इस मुकदमे के इस आरोपी को उसके अंज़ाम ,जो उस बदली हुई परिस्थिति में मौत भी हो सकती है को , तक पहुंचा देगा बल्कि अदालतों को इस मौजूदा कानून के तहत ही इतनी शक्ति दे देगा कि वो मुकदमे के हालात को देखकर फ़ैसला सुना सकेंगी ।


ज्ञात हो कि सर्वोच्च अदालत ने कुछ वर्षों पहले एक मुकदमें  जिसमें दो नाबालिगों ने घर से भागकर आपस में विवाह कर लिया था को न सिर्फ़ पूरी तरह वैध ठहराया बल्कि अपने तर्कों और विश्लेषण से ये भी साबित किया कि चूंकि उनकी शरीरिक और मानसिक क्षमता व परिपक्वता ऐसी है इसलिए ,उन्हें अठारह वर्ष से कम उम्र होने के बावजूद भी नाबालिग नहीं माना जा सकता । इसलिए अभी ये कहना कि न्याय के लिए लडी गई लडाई व्यर्थ हो गई , या इस फ़ैसले से अपराधियों के ,विशेषकर किशोर अपराधियों के , खासकर आतंकियों के हौसले बुलंद हो सकते हैं , थोडी सी जल्दबाज़ी होगी । ध्यान रहे कि अभी इस मामले से जुडे अन्य आरोपियों पर न्यायालय का फ़ैसला आना बांकी है जिसके बाद इस नाबालिग आरोपी ,जिसका अपराध बांकी अन्य आरोपियों से ज्यादा गंभीर माना जा रहा है , की कम सज़ा पर नि:संदेह न्यायविदों की भी पूरी नज़र होगी । एक अच्छी बात ये है कि अभी इस आरोपी को कम से कम ढाई वर्ष तक सुधार गृह में ही रहना होगा और इस बीच न्यायपालिका इस मुद्दे पर किसी ठोस नतीज़े पर पहुंच जाएगी  , ये उम्मीद की जानी चाहिए । 


गुरुवार, 22 अगस्त 2013

महिलाओं के हक में , मुखर होती अदालतें




अभी हाल ही में न्यायपालिका ने ऐसे दो अहम फ़ैसले सुनाए जो दिनोंदिन महिलाओं के प्रति बढ रही हिंसा और हमलों के मद्देनज़र दूरगामी प्रभाव वाले साबित होंगे । पिछले दिनों विभिन्न फ़ैसलों से अदालतें जिस तरह से महिलाओं की सुरक्षा व संरक्षण में मुखर हुई हैं वह नि:संदेह स्वागतयोग्य कदम है । समाचार सूत्रों के अनुसार सर्वोच्च अदालत भी इस मसले पर बेहद गंभीर और संवेदनशील रुख अपना रही है । हालिया फ़ैसलों में अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि महिलाओं की सुरक्षा के र्पति न सिर्फ़ न्यायपालिका खुद गंभीर है बल्कि उसके रूख से ये भी स्पष्ठ है कि वो सरकार और प्रशासन को भी इस दिशा में विभिन्न योजनाओं व कानूनों का निर्माण्के लिए प्रेरित करने की ओर अग्रसर है ।


पिछले कुछ समय से महिलाओं व युवतियों के चेहरे तथा शरीर पर तेज़ाब से हमले की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है । कहीं एकतरफ़ा प्रेम से उपजी निराशा में तो कहीं किसी मानसिक कुंठा से ग्रस्त होकर महिलाओं के चेहरे पर तेजाब डालने जैसे घृणित अपराध पर चाह कर भी सरकार प्रशासन रोक नहीं लगा पा रहा था । अभी हाल ही में ऐसी ही एक वारादात को मुंबई रेलवे स्टेशन पर अंजाम दिया गया जिसके परिणाम में देश की एक बेटी जो सेना में अपनी सेवा देने पहुंची थी, की मौत हो गई । इससे पहले भी इस तरह की बहुत सारी घटनाएं होती रही हैं जिनमें किसी तरह अपना जीवन बचा सकी युवतियों का भविष्य अंधकार में चला गया । इन घटनाओं के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक वस्तु की खुलेआम बेरोक-टोक बिक्री । इसी दिशा में सरकार द्वारा नियम कानून बनाने के लिए दिशा-निर्देश जारी करने हेतु दायर याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए सरकार ने देश भर में तेज़ाब की बिक्री के मानक तय करने के लिए सरकार को आदेश दिया । इस आदेश के मद्देनज़र कुछ राज्यों ने इस पर अमल करना भी दुकानों पर खुलेआम तेज़ाब की बिक्री पर रोक लगाते हुए अब खरीदने वाले के लिए अपनी पहचान की राज्य सरकार ने भी तेज़ाब की दुकानों व गोदामों पर छापा मारकर अवैध तेज़ाब को ज़ब्त कर लिया ।


इसके अलावा कानून में संशोधन करके तेज़ाब हमले के लिए निर्धारित दंड को और अधिक कठोर बना दिया गया है । यदि इन सब पर सरकार व प्रशासन गंभीरतापूर्वक कार्य करें तो स्थिति में बदलाव की उम्मीद की जा सकती है । किंतु इसके अलावा एक जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य इस परिप्रेक्ष्य में किया जाना अभी बाकी है वो है तेज़ाबी हमले से पीडित युवतियों/महिलाओं की सुरक्षा, संरक्षण व उनके भविष्य के लिए उपाय करना ।


महिलाओं के हक में दूसरा जो अहम फ़ैसला आया है वो बलात्कार से पीडित युवतियों/महिलाओं के लिए सामाजिक कल्याण व सुरक्शह के लिए सरकार की आलोचना व सिस दिशा में नई व्यवस्था करने के लिए निर्देश । ज्ञात हो कि पिछले कुछ समय में देश में बलात्कार के बढते मामलों ने सरकार, समाज व अदालतों का ध्यान इस ओर खींचा है । अदालतों ने समय-समय पर अपने फ़ैसलों में इस घृणित अपराध से जुडे सभी पहलुओं पर निर्देश देकर सरकार व प्रशासन को इस दिशा में कार्य काने हेतु बाध्य किया है । इसी परिप्रेक्ष्य में देश भर में बलात्कार के मुकदमों का गठन । इसके साथ ही महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्थाओं द्वारा पीडिताओं को अधिक आर्थिक सहायता , स्वावलंबन सुरक्षा व संरक्षण हेतु योजनाओं की भी मांग उठाई जाती रही है ।


ज्ञात हो कि पिछले दिनों ,दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी राज्य सरकार को ऐसा कोष बनाए जाने का आदेश दिया था जिससे पीडिताओं को एक माह के अंदर ही अंतरिम सहायता व मुकदमे के खर्च आदि के लिए आर्थिक सहायता मुहैय्या कराई जा सके । नए फ़ैसलों में अब अदालतें सज़ा सुनाते समय मुजरिमों पर लगाए जा रहे जुर्माने की राशि का एक हिस्सा भी पीडित शिकायतकर्ता को दिए जाने का आदेश दे रही है। किंतु माननीय सरोवोच्च न्यायालय के ताज़ा निर्णय से बलात्कार पीडिताओं के सामाजिक कल्याण व सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार द्वारा उठाए जाने का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा ।


भारतीय समाज के तेज़ी से बदल रहे परिवेश, रहन सहन में बढता उपभोक्तावाद, यौनिक स्वछंदता, लिव-इन-रिलेशनशिप , नशे व अपराध का बढता चलन आदि ने समाज को विशेषकर शहरी समाज को महिलाओं के प्रति अधिक क्रूर, गैर जिम्मेदार व संवेदनहीन बना दिया है । पाश्चात्य देशों से आयातित परंपरा के रूप में लिव-इन-रिलेशनशिप जैसी मान्यताओं को अपनाया तो जा रहा है किंतु रिश्तों के टूटने से उपजी परिस्थितियों में बलात्कार और शोषण आदि के मुकदमे तथा ऐसे रिश्तों से उत्पन्न संतानों का भविष्य व जिम्मेदारी उठाने जैसी स्थितियों से निपटने केल इए इन सबको सामाजिक दृष्टिकोण से देखना भी आवश्यक होगा ।


निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि मौजूदा परिस्थितियों में न्यायपालिका ने यदि जनमानस के प्रति अपने विश्वास को बनाए रखा है तो उसकी एक बडी वजह ये भी है कि जिन कानूनों , जिन नीतियों , जिन उपायों , योजनाओं की उपेक्षा वो सरकार , अपने जनप्रतिनिधियों व प्रशासन से लगाए रहती है वो उन्हें न्यायपालिका के फ़ैसलों और उसके रूख में दिखाई दे जाती हैं । इन फ़ैसलों और इसके बाद इनके अमलीकरण से निकली योजनाओं व कानूनों का क्या कितना प्रभाव पडेगा ये तो भविष्य की बात है मगर इतना तो जरूर कहा जा सकता है कि न्यायपालिका के दोनों ही फ़ैसले बहुत ही सही समय पर आए हैं और जल्द से जल्द इनका अनुपालन राष्ट्रीय/राजकीय स्तर पर होना चाहिए ।