जैसा कि मैंने आपको अपनी पिछली पोस्ट में बताया था कि इन दिनों दिल्ली न्यायिक सेवा , दिल्ली न्यायिक अकादमी और दिल्ली अधीनस्थ न्यायालयों में भर्ती की प्रक्रिया शुरू हो गई है ॥ आज आपको नीचे दिए गए कुछ लिंक्स के माध्यम से बता रहा हूं कि इनके लिए इच्छुक व्यक्ति , कहां से कैसे और कब अपने आवेदन भर सकते हैं ॥ इन लिंक्स के माध्यम से आप सीधे उन साईटस पर जाकर आवेदन पत्र डाऊनलोड कर सकते हैं साथ ही इन भर्ती प्रक्रिया के बारे में विस्तार से जाना जा सकता है : -
सबसे पहले बात करते हैं दिल्ली न्यायिक सेवा के लिए निकले आवेदनों की । यहां ये बताता चलूं कि दिल्ली न्यायिक सेवा के तहत दो तरह की भर्ती प्रक्रिया होती है ॥एक दिल्ली न्यायिक सेवा के लिए और दूसरी दिल्ली उच्च न्यायिक सेवा ॥सीधे शब्दों में कहें तो ...प्रथम श्रेणी दंडाधिकारी हेतु और ॥सत्र न्यायाधीश हेतु ....इस बारे में आपको पूरी जानकारी यहां मिल सकती है ॥ ...........तथा यहां भी ........
दूसरी तरफ़ आवेदन मंगाए हैं दिल्ली न्यायिक अकादमी नें जो अभी अस्थाई रूप से दिल्ली की कडकडकडूमा कोर्ट में चालित है ...और स्थाई रूप से दिल्ली के द्वारका क्षेत्र में निर्माणाधीन है ॥ इस संस्था ने अपने कार्यालय के लिए ....उच्च स्तर के अधिकारी से लेकर ...लिपिक और अन्य चतुर्थ श्रेणी वर्ग तक के लिए आवेदन आमंत्रित किए हैं ......इनके बारे में ...यहां से जानकारी ली जा सकती है ......। आवेदन पत्र भी यहीं मिल जाएंगे ॥
तीसरी भर्ती निकली है दिल्ली अधीनस्थ न्यायालयों मे कनिष्ठ श्रेणी लिपिकों की ....जिनकी पदों की संख्या लगभग २५० के करीब है । इस संबंध में विस्तार से सूचना हालांकि ....५ दिसंबर के ...रोजगार समाचार में भी प्रकाशित हुआ है ॥किंतु इसकए अलावा यदि आप चाहें तो इसकी सूचना यहां भी मिल सकती है ॥
रविवार, 6 दिसंबर 2009
दिल्ली की न्यायिक सेवाओं में भर्ती की जानकारी /सूचना
मंगलवार, 24 नवंबर 2009
दिल्ली अधीनस्थ न्यायालय में भारी भर्तियों की घोषणा
पिछले कुछ समय से जब जब अदालतों पर बोझ बढने की बात उठती रही है तब तब खुद न्यायपालिका ने भी इस बात को माना और कहा है कि देश में आज बहुत बडे पैमाने पर नये अदालत गठित किये जाने की जरूरत है ।इस बिंदु पर कई बार सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की अकर्मठता और इस मुद्दे की उपेक्षा किये जाने को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं । राज्य सरकारों के साथ केंद्र सराकार भी इस दिशा में उतनी संजीदगी से सोच और कर नहीं रही है जितनी कि जरूरत है ॥ मगर दिल्ली की अधीनस्थ अदालतों में इस दिशा में जरूर ही बहुत तेजी से काम हो रहा है ॥
पिछले कुछ वर्षों से लगातार प्रति वर्ष , न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति , एक के बाद एक नई नई जिला अदालतों और विशेष अदालतों का गठन, कर्मचारियों की भर्ती, नयी नयी योजनाएं आदि सफ़लतपूर्वक चल रहा है । इसी क्रम में प्राप्त सूचना के अनुसार ॥इस समय दिल्ली की अधीनस्थ अदालतों मे न्यायिक अधिकारियों के लिए रिक्तियां , दिल्ली न्यायिक अकादमी के लिए कर्मचारियों और अधिकारियों की रिक्तियां और संभवत: अगले सप्ताह लगभग पांच सौ कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए रिक्तियां घोषित की गई हैं । इन पदों , इनकी योग्यताओं, आवेदन भरने का सारा विवरण और भर्ती परीक्षा का सारा विवरण आदि अगली पोस्टों के माध्यम से बताने का प्रयास करूंगा ॥
तो ये खबर अदालत के साथ साथ रोजगार की तलाश और उसके प्रयास में लगे सभी लोगों के लिये काम की होगी ऐसा मेरा विश्वास है ....यदि कोई त्वरित जानकारी या सहायता चाहिये तो आप बेशक और बेझिझक मुझे फ़ोनिया सकते हैं जी .....
शनिवार, 7 नवंबर 2009
यदि तलाक लेना है तो ( दैनिक ट्रिब्यून के स्तंभ कानून कचहरी मे प्रकाशित आलेख )
शुक्रवार, 6 नवंबर 2009
बुरे फ़ंसे वकील साहेब....ऐसा भी होता है ।
कहते हैं कि कभी कभी चालें उलटी भी पड जाया करती हैं ...या यूं कहें कि शिकारी अपने जाल में खुद ही फ़ंस जाते हैं ...या ये कि किसी एक जगह से बचने के अनजाने में किया गया कोई काम उसे दूसरी जगह फ़ंसा देता है और ऐसी स्थिति जब बनती है तो क्या हाल होता है , आप खुद देखिये ।मामला दिल्ली उच्च न्यायालय का है ,दरअसल हुआ ये कि एक व्यक्ति ने दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर एक मुकदमे में एक अर्जी दाखिल कर के कोर्ट के एक आदेश को वापस लेने या स्थगन देने का अनुरोध किया । उसने अपनी दलील में कारण ये दिया कि सुनवाई वाले दिन, वो और उसका वकील किसी कारण से शहर से बाहर थे सो अदालत मे उपस्थित नहीं हो सके । इसी के अनुरूप हलफ़नामे के साथ प्रार्थना पत्र दायर किया गया । और इस कारण अदालत ने उनके खिलाफ़ एक पक्षीय फ़ैसला सुना दिया था । मामला यहां तक तो ठीक था , और इस बाबत सूचनार्थ दूसरे पक्ष को भी नोटिस भेजा गया ।अब दूसरे पक्ष की जानिये , दूसरे पक्ष ने सूचना का अधिकर के तहत उच्च न्यायालय रजिस्ट्रार कार्यालय से जानकारी मांगी कि क्या उस दिन उस व्यक्ति और उनके वकील क्या किसी भी मुकदमे में दूसरी किसी अदालत में उपस्थित हुए थे । बस जो जवाब मिला उसने दूसरे पक्ष के लिये मुसीबतें बढा दी। दूसरे पक्ष ने मय सबूत ये साबित कर दिया कि हलफ़नामा झूठा दायर किया गया है और वो व्यक्ति और उनके वकील साहब उस दिन न सिर्फ़ अदालत में उपस्थित थे बल्कि अदालत में किसी अन्य मुकदमे में उनकी हाजिरी भी दर्ज है ।अदालत ने महापंजीयक उच्च न्यायालय को निर्देश दिया कि दोनों ( मुवक्किल और उनके अधिवक्ता ) के खिलाफ़ सी आर पी सी की धारा 195 के तहत शिकायत दाखिल की जाए । इतना ही नहीं अधिवक्ता द्वारा झूठे हलफ़नामे दिये जाने को गंभीरता से लेते हुए ..बार काउंसिल से उनके लाईसेंस को रद्द किये जाने की सिफ़ारिश की और साथ साथ 25 हजार का जुर्माना भी ठोंक दिया...।हम क्या कहते ..बस यही निकला ..ओह बुरे फ़ंसे वकील साहब ।
बुधवार, 28 अक्टूबर 2009
सडक दुर्घटनाओं पर गंभीर होती अदालतें...
राजधानी दिल्ली में दिनोंदिन बढती सडक दुर्घटनाओं पर अदालतों ने बहुत ही गंभीर रुख अख्तियार कर लिया है। अभी हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर की गई एक याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने राजधानी में बढ रही दुर्घटनाओं के मद्देनज़र . निचली अदालतों, पुलिस अधिकारियों, न्यायिक अधिकारियों , न्यायिक प्रक्रियाओं को एक साथ ही बहुत से निर्देश दिये हैं। अब तक चली आ रही व्यवस्था के तहत , दुर्घटना के बाद पुलिस सिर्फ़ एक ही तरह का मुकदमा दर्ज़ करती है ।और प्राथमिकी , चोटिल या म्रत व्यक्ति की चिकित्सकीय रिपोर्ट आदि की प्रति मोटर वाहन दुर्घटना क्लेम पंचाट में जमा कर दी जाती है। जहां से इच्छित व्यक्ति , जो भी क्लेम करना चाहता है तो उस प्रति को प्राप्त कर मुकदमा दायर करता है।इस वर्तमान व्यवस्था में दो बहुत ही बडी खामियां थी । पहली तो ये कि जानकारी के अभाव में आम लोगों को पता ही नहीं चल पाता है कि उनके क्लेम के लिये सबसे जरूरी कागजात पंचाट में जमा हैं । दूसरा ये कि यदि किसी तरह से उन्हें पता चल भी जाता है तो उसे प्राप्त करने की जद्दोजहद पीडित के लिये बहुत ही कठिन होता है। न्यायालय ने इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए नयी व्यवस्था शुरू की है। नए निर्देशों मे से जो प्रमुख हैं वे इस प्रकार हैं।अब किसी भी दुर्घटना के बाद मोटर वाहन दुर्घटना अधिनियम के धारा १५८ (६) के तहत पुलिस अधिकारियों को आदेश दिया गया है कि संबंधित कागजातों को जमा करने के बाद , पंचाट न्यायालय उन्हें एक निश्चित तारीख देते हैं जिस तारीख पर उन्हें संबंधित सभी पक्षों,,यानि दावाकार, चोटिल या म्रत व्यक्ति, ..दूसरे पक्ष के चालक, वाहन के मालिक और इंश्योरेंस कंपनी की उपस्थिति सुनिश्चित करे। इसका अर्थ ये हुआ कि अब सारी जिम्मेदारी पुलिस पर डाली गयी है ताकि कोई भी पीडित मुआवजे से वंचित न रहे । इसका दूसरा लाभ ये हो रहा है कि जैसे ही सभी पक्ष उपस्थित हो जाते हैं , पंचाट अपनी पहल करते हुए उन्हीं जांच प्रक्रियाओं को दावा याचिका के रूप में परिवर्तित करके उन्हें मुआवजा दिलवा देती हैं। इससे जहां त्वरित न्याय का उद्देश्य पूरा हो रहा है वहीं , वकील, मुकदमे आदि के खर्च से भी पीडित को छुटकारा मिल जाता है ।राजधानी में हो रही दुर्घटनाओं मे सबसे अधिक ,दुर्घटनाओं के लिये कुख्यात हो चुकी ्दिल्ली की ब्लू लाईन बसों के परिचालन, से संबंधित कई दिशा निर्देशों और समय समय पर कई कानूनों के बावजूद स्थिति में बहुत ज्यादा फ़र्क नहीं पडता देख..न्यायालय ने नए आदेशों के तहत ये आज्ञा दी कि अब किसी भी ऐसी दुर्घटना में जिसमें कोई गंभीर रूप से कोई घायल होगा उसमें पचास हजार की राशि....और यदि किसी की दुर्घटना में ही मौत हो जाती है तो उसमें एक लाख रुपए की रकम ..संबंधित बस के मालिक को अदालत में जमा करवानी होगी ..इस राशि के जमा किये बगैर ..वाहन को पुलिस के जब्तीकरण से नहीं छोडा जाएगा । सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि इस राशि को बिना विलंब के ..पीडित को दिये जाने की व्यवस्था की जाएगी।इसके अलावा सभी दुर्घटना वादों, दावा याचिकाओं, न्यायिक व्यवस्थाओ,प्रक्रियाओं और इससे जुडे तमाम पहलुओं पर उच्च न्यायालय निरंतर निगाह रखे हुए है। सबसे अच्छी बात ये है कि इन नयी व्यवस्थाओं के सकारात्मक परिणाम भी दिखने लगे हैं॥
सोमवार, 26 अक्टूबर 2009
मीडिया ट्रायल पर नकेल कसने की तैयारी
पिछले कुछ समय से , जब से मीडिया में तेज से तेज खबर दिखाने-सुनाने की होड की परंपरा की शुरूआत हुई है तब से मीडिया ,रिपोर्टिंग करने में, समाचारों को प्रस्तुत करने में , और घटना दुर्घटना के कारणों-परिणामों तक पहुंच जाने में ज्यादा ही गैर जिम्मेदार और लापरवाह हो गयी है। अन्य सभी जगहों पर तो फ़िर भी जानबूझ कर की गई इन गल्तियों, भूलों को एक हद तक क्षम्य माना जा सकता है किंतु अदालती मुकदमों में ये बहुत ही निर्णायक और कम से कम दिशा भटकाने वाले तो हो ही जाते हैं । अदालतों के बार बार आगाह किये जाने के बाद और कई बार कठोर चेतावनी दिये जाने के बाद, शायद व्यावसायिक लाभ के लोभ में मीडिया खुद को संयमित और नियंत्रित नहीं कर पा रही है ।किंतु अब ऐसा नहीं होगा।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में इस तथाकथित मीडिया ट्रायल पर नकेल कसने हेतु पहल कदम बढा दिया है । दरअसल अभी हाल ही में उच्च न्यायालय में विवादित पुलिस एनकाउंटर बटाला हाउस प्रकरण में मीडिया के पास कुछ अपराधियों के बयान की की पूरी सूचना लीक होने की बात पर विरोध जताते हुए न्यायालय से अनुरोध किया गया था कि , मीडिया द्वारा संवेदनशील मामलों में ऐसी लापरवाही दिखाने को प्रतिबंधित किया जाए। इसके साथ ही इस याचिक में पुलिस अधिकारियों द्वारा घटनाओं, अपराधों, के बाद प्रेस कांफ़्रेस बुला कर सभी बातों के खुलासे और विशेषकर अपराध और अपराधी के बारे में निर्णायक बयान जारी किये जाने को लेकर भी आपत्ति उठाई गयी थी। ज्ञात हो कि आरुषी मर्डर केस में ऐसी ही एक प्रेस कांफ़्रेंस में उत्तर प्रदेश पुलिस के सर्वोच्च पुलिस अधिकारी तक द्वारा इतन बचकाना बयान और कहानी सुनाई गयी कि बाद में उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने उन अधिकारी को वहां से हटा कर उसकी भरपाई की। और पुलिस के उस तथाकथित जांच का क्या परिणाम निकला , यह किसी से छुपा नहीं है।माननीय उच्च न्यायालय ने प्रेस कांउसिल औफ़ इंडिया से आग्रह किया है कि ,इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए, अपने पत्रकारों को इस हेतु पर्याप्त प्रशिक्षण देने की व्यवस्था करे ताकि जो भी लोग न्यायालय से जुडी कार्यवाही की रिपोर्टिंग करते हैं, आपराधिक घटनाओं की सूचना एकत्र करते हैं, उन्हें प्रस्तुत करते हैं। उन तमाम लोगों को इस बात का पूरा इल्म होना चाहिये कि इसका परिणाम क्या हो सकता है। इसके साथ ही पुलिस प्रशाशन को भी ये निर्देश दिये गये हैं कि वे भी अपने अधिकारियों को सिखायें कि .प्रेस को बुलाते समय और उन्हें सूचनी देते समय किन किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिये।कुल मिला कर न्यायालय चाहता है कि मीडिया ऐसी रिपोर्टों को कवर करते समय अपने लिये कुछ हद तय कर ले। अब देखना ये है अदालत के इन नये प्रयासों से देश के निरंतर भटक रहे मीडिया की आंखे कितनी खुल पाती हैं.....?
शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009
देश भर की न्यायिक कार्य प्रणालियों का किया जा रहा है अध्य्यन
जिस तरह से खुद अदालत ने अभी हाल ही में ...सूचना के अधिकार के तहत .....अपनी स्थिति को स्पष्ट किया ...उसने एक बार फ़िर न सिर्फ़ न्याय व्यवस्था ने अपना कद बडा कर लियी बल्कि ....पिछले दिनों जो उस पर एक अविश्वास की परत बैठाने की कोशिश की जा रही थी उस पर भी विराम लग गया.....और अब शायद ये इस प्रकरण का अंत भी था.....
अभी हाल ही में ...केन्द्र सरकार द्वारा एक महत्वाकांक्षी योजना के तहत देश भर की तमाम अदालतों में प्रचलित न्यायिक कार्यप्रणाली का अध्य्यन किया जा रहा है। इस उद्देश्य से सभी अदालतों से जानकारी एवम सुझाव मांगे गये हैं । इनके अध्ययन के बाद सरकार की योजना है कि वे कार्यप्रणालियां जो सबसे अधिक कारगर और प्रायोगिक होंगी उन्हें एक साथ ही पूरे देश की अदालतों मे लागू किया जायेगा। उदाहरण के लिये अभी बहुत से राज्यों मे शरद और ग्रीष्मकाल में अदालतों के काम करने का समय बदल जाता है। इसके अलावा, गवाही, दावों को उनकी वरायता के हिसाब से उनका निपटारे का नियोजन, और भी अन्य सभी पहलुओं पर विचार एकत्र किये जा रहे हैं। इसे अमली जामा पहनाने में कितना वक्त लगेगा , ये तो अभी तय नहीं है, मगर जिस दिन भी ये संभव हो सकेगा उस दिन निसंदेह ये बहुत ही लाभदायक कदम सिद्ध हो सकेगा।
मंगलवार, 30 जून 2009
जानिए निर्वाह भत्ते से जुड़े कुछ कानून
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १२५ से १२८ तक उन प्रावधानों का उल्लेख किया गया जिसके आधार पर किसी भी व्यक्ति को ..उसके आश्रितों को निर्वाह खर्चा/गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य किया जा सकता है. दरअसल इस कानून के पीछे अवधारणा ये है की प्र्तात्येक व्यक्ति का ये मौलिक और नैतिक कर्त्तव्य है की वो अपनी पत्नी, बच्चों, माता-पिता, अभिभावकों की देखभाल करे..यदि वे अपनी देखभाल करने में असमर्थ हैं तो....इसके पीछे विचार ये है की कोई भी माता-पिता, पत्नी, और संतान इन हालातों में मजबूर हो कर न रहे की ..विवश होकर वो अपराध ..में ही लिप्त हो जाए..या किसी और का मोहताज बन जाए.
धारा १२५ के अनुसार कोई सक्षम व्यक्ति उनका भरण-पोषण करने में आनाकानी करता है :
१. उसकी पत्नी, जो अपना निर्वाह करने में अक्षम हो...
२. उस व्यक्ति की वैध/अवैध अवयस्क ...विवाहित/अविवाहित संतान ..जो अपना निर्वाह करने में अक्षम हो...
३. उस व्यक्ति की वैध/अवैध संतान (विवाहित पुत्री नहीं ) जो बालिग़ तो हैं ,...किन्तु किसी भी तरह की शारीरिक , मानसिक , अक्षमता से ग्रस्त हो.....
४. उसके माता -पिता, जो अपनी देखभाल करने में अक्षम हों....
तो उस स्थिति में ..प्रथम श्रेणी दंडाधिकारी उस व्यक्ति को ये आदेश दे सकती है की वो एक निश्चित राशि , प्रति माह, उन्हें गुजारा भत्ते के रूप में अदा करे...
इसके तहत वर्ष २००१ में शंशोधन करके ये कानून भी बना दिया गया की अदालत धारा १२५ की याचिका की सुनवाई करते हुए ..एक निश्चित राशि को अंतरिम खर्चे /राहत के रूप में निर्धारित करके उस व्यक्ति को उसके भुगतान का आदेश दे सकती है..जब तक की उस याचिका का निपटारा नहीं हो जाता.और ये अंतिम खर्चे का निर्धारण मुदालय को याचिका प्राप्त होने के साठ दिनों इके अन्दर अन्दर कर दिया जाना चाहिए....
कल कुछ प्रमुख मुकदमों का हवाला देते हुए देखेंगे की इसमें और क्या क्या प्रावधान हैं......
(चूँकि पहले मैंने वादा किया था की निर्वाह भत्ते के बारे में जानकारी दी जायेगी..इसलिए धारा ४९८ ए यानि दहेज़ प्रतारणा के बारे में उसके बाद..और आलेख को भागों में विभाजित करने के पीछे सिर्फ इतना कारण होता है की पाठक ..बोर न हों...)
सोमवार, 29 जून 2009
जानिए विवाह से सम्बंधित कुछ अपराधों को ..
भारतीय दंड संहिता की धारा ४९३ के अनुसार कोई भी व्यक्ति, किसी भी महिला से , जो की कानूनी रूप से उसकी पत्नी नहीं है, मगर समझती है की वो उस व्यक्ति की विवाहिता है, यदि , उस महिला के संसर्ग में (शारीरिक रिश्ते ) आता है तो वो दंड का भागी बँटा है , क्यूंकि ये कानूनन जुर्म है. इस धारा के अनुसार दो तथ्यों की अपरिहार्यता होती है..
.पहली ये की कानूनन वैध शादी का धोखा होना .
.और दूसरा इस धोखे में ही संसर्ग होना.
इस जुर्म के लिए सिद्ध ये करना होग की आरोपी व्यक्ति ने उस महिला को jaanboojh कर उसे इस धोखे में रखा की वो कानून उसकी वैध पत्नी है ...और इसी विश्वास के तहत ही उसके साथ संसर्ग स्थापित किया गया
ये अपराध .गैर संज्ञेय, गैर जमानती तथा non कम्पौंदेबल है..और कानून के अनुसार इसमें दस वर्षों की सजा और जुर्माने का प्रावधान है
बहु-विवाह :-
भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के अनुसार कोई भी व्यक्ति यदि अपने jivan साथी के जीवित होते हुए दूसरा विवाह kartaa है तो उसे बहु विवाह का दोषी माना जाएगा. इस अपराध के लिए उसे सात वर्षों की सजा हो सकती है. मगर इस कानून से जुड़े कुछ महतवपूर्ण तथ्यों का जिक्र आवश्यक हो जाता है.. ये कानून मुस्लिम धर्म के अनुयायीं(सिर्फ पुरुषों ) पर लागु नहीं होता क्यंकि शरीयत काननों के अनुसार उन्हें इसकी इजाजत मिली हुई है, is कानून के बावजूद दो स्थितियों में ये अपराध नहीं माना जाएगा.
यदि किसी न्यायालय द्वारा उस विवाह को कानूनी मान्यता दे दी है....
उस स्थिति में भी जब पहले पति या पहली पत्नी का ,,..सात वर्षों तक कोई अता -पता न चले..
सबसे महत्वपूर्ण बात ये की ,,कानून की नजर में दूसरी पत्नी और doosre पति को..भी वो सारे अधिकार प्राप्त हैं तो...बशर्ते की विवाह वैध हो .(.वैध और अवैध/अपूर्ण विवाह पर चर्चा फिर कभी )
कल बात करेंगे ..धरा ४९८ की जो इन दिनों दुरूपयोग किये जाने की शिकायत के कारण चर्चा में है.
रविवार, 28 जून 2009
ग्रीष्मकालीन अवकाश और अदालतें
जो लोग अक्सर ख़बरों में पढ़ते हैं की अदालतों में पहले से ही इतने ढेर सारे मुकदमें लंबित हैं तो फिर इन अवकाशों को क्यूँ नहीं समाप्त कर देना चाहिए..इस आलेख के माध्यम से मेरी कोशिश होगी की कुछ बातें जो आम तौर पर लोगों को पता नहीं होती , वो आप सबके सामने राखी जाए ताकि कुछ भ्रांतियां दूर हो सकें.
सबसे पहले बातें करते हैं ..अवकाशों के औचित्य की ..वो भी ऐसे समय में जब लंबित मुकदमों की संख्या करोडों का संखा छू रही है.. मोटे तौर पर तो लगता है की ..बिलकुल ..बल्कि सारी छुट्टियां समाप्त कर दी जानी चाहिए..मगर ये बात ध्यान में रखने वाली होती है की न्यायालयों और विशेषकर न्यायाधीशों का कार्य, कार्यप्रणाली,, अन्य किसी भी कार्य से सर्वथा भिन्न है. किसी भी अन्य कार्य,व्यवसाय या और किसी उद्यम में ,,किसी को निरंतर उतना मानसिक श्रम नहीं करना पड़ता..., नहीं मेरा मतलब है उस विशिष्ट रूप में नहीं करना पड़ता..एक एक मुकदमा किसी के जीवन मरण से सम्बंधित होता है..इसलिए लगातार मानसिक श्रम से थोडा सा अवकाश देकर उन्हें फिर से खुद को नवीन और स्फूर्त करने के लिए ही अवकाश की अव्धाराना को जीवित रकाहा गया है..
और ऐसा भी नहीं है की इन अवकाशों में सभी लोग पूर्ण तालाबंदी करके आराम फरमाते हैं..बल्कि पिछले कुछ वर्षों में तो अवकाश में अदालतों में इतने अलग अलग कार्यों को उनके अंजाम तक पहुंचाया जा रहा है की अवकाश की तो सार्थकता ही बन जाती हैं..दिल्ली की अदालतों में जहां पिछले कुछ वर्षों से अवकाशों में न्यायाधीशों को विशेष रूप से अभिलेखागार में पुराने वादों के रीकोर्डों की जांच करके ..जिनकी जरूरत नहीं होती उन्हें ..वहाँ से हटा कर ख़त्म करवाने का कार्य दिया जा रहा है. इसके अलावा उन्हें विशेष आदेश दिया जाता है की , वे अपनी अदालतों में वरिष्ठ नागरिकों के ,,महिलाओं के,, तथा बहुत पुराने मुकदमों
आदि को निपटाने का काम दिया जाता है..दरअसल ग्रीष्म कालीन अवकाश में सभी न्यायाधीश एवं कर्म्चारीगन बीच के अनुसार अवकाश पर जाते हैं....इसके अलावा विभागीय जांच , तथा और भी कई जिम्मेदारियां सौंप दी जाती हैं. इनसे अलग मध्यस्थता केंद्र , लोक अदालतें ,तथा सांध्यकालीन अदालतें..भी नियमित रूप से लगाईं जाती हैं.
जहां तक ,,कर्मचारियों की बात है ..तो वे भी इन दिनों अदालतों में तेजी से चल रही कम्प्यूटरीकरण के कार्य को अपने अंतिम मुकाम देने में लगे हैं..यानि कुल मिला कर छुट्टी का उपयोग किया जा रहा है.हालांकि इस बात की भी आवाजें उठ रही हैं की छुट्टियों को पूर्णतया ख़त्म करके अदालतों को निर्बाध चलने दिया जाए..कम से कम निचली अदालतों को तो अवश्य ही ...जो एक हद तक सही भी लगता है..
शुक्रवार, 26 जून 2009
महाराष्ट्र की न्यायिक प्रशिक्षण अकादमी और प्रथम राष्ट्रीय मध्यस्थ्ता केन्द्र का उद्घाटन स्त्ताइस को
जानिए अपने कुछ कानूनी अधिकार .....
आज इस पोस्ट के जरिये कुछ छोटे छोटे..मगर बहुत महतवपूर्ण अधिकारों का उल्लेख किया जा रहा है...जो समय असमय किसी के भी काम आ सकती हैं...कम से कम उनकी जानकारी होने से ..बहुत सी कठिनाइयों को समझा जा सकता है...आप खुद ही देखें.
गिरफ्तारी से सम्बंधित :-
किसी भी व्यक्ति को बेडी और हथकरियों..में तब तक नहीं रखा जा सकता जब तक अदालत द्वारा पुलिस को इस बात का लिखित अधिकार न दिया गया हो .
जो भी पुलिस अधिकारी आपको गिरफ्तार कर रहा है/हैं ,उनकी नाम पट्टिका स्पष्ट रूप से लगी होनी चाहिए, जिसमें उनका नाम पढा जा सके,, यानि उसकी पहचान गिरफ्तार हो रहे व्यक्ति को होनी चाहिए.
गिरफ्तार किये जा रहे व्यक्ति को गिरफ्तार करते समय ये बताना जरूरी है की उसे किस जुर्म के कारण गिरफ्तार किया जा रहा है और ये भी की गिरफ्तार हो रहा व्यक्ति अपने बचाव में वकील कर सकता है.
गिरफ्तारी का प्रपत्र (गिरफ्तारी मेमो ) तिथि ..एवं .समय के साथ ..गिरफ्तारी के समय ही तैयार की जानी चाहिए...उसके ऊपर घर के किसी सदस्य / पडोसी , या अन्य किसी उपस्थित व्यक्ति के हस्ताक्षर होने चाहिए...ये इसलिए ताकि उसकी गिरफ्तारी गुपचुप न रह सके....
पुलिस के लिए अनिवार्य है की गिरफ्तारी की सूचना ..उसे दे ..जिसे ग्फिराफ्तार होने वाला व्यक्ति अपना शुभचिंतक और मददगार समझता हो..तथा ये भी की गिरफ्तार व्यक्ति को कहाँ रखा या ले जाया जा रहा है....
गिरफ्तार होते समय..मुलजिम और गावः को दिखाते हुए..गिरफ्तार हो रहे व्यक्ति से जब्त की गयी सभी वस्तुओं की एक स्पष्ट सूची बनायी जानी चाहिए.
कानूनी सहायता :-
यदि कोई गरीब वकील नहीं कर सकता ..तो वो सरकारी खर्चे पर अपने बचाव के लिए वकील मांग सकता है.
यदि आपका वकील ,,आपको लगता है की ..आपके लिए ठीक से मुकदमा नहीं लड़ पा रहा है..तो आप वकील बदल सकते हैं...
आपको पूरा अधिकार है की अपने वकील से कोई भी बात..कोई भी सलाह ..गुप्त रूप से भी कर सकते हैं..
तलाशी (जांच ) से सम्बंधित :-
जब भी किसी के घर..दफ्तर..प्रांगन..अदि की तलाशी ली जाए तो ये जरूरी है तो स्वतंत्र गवाह...यानी आम लोगों में से कोई दो ,
वहाँ तलाशी के समय उपस्थित हों..
तलाशी लेने से पहले ..उस पुलिस पार्टी की तलाशी भी उस गवाह /गवाहों के सामने ..भी लेनी चाहिए...
चलिए फिलहाल इतना ही...कल एक आलेख ..कैसे लें निर्वाह भत्ता ........?
गुरुवार, 25 जून 2009
कल के अमर उजाला में "कोर्ट कचहरी "की चर्चा
अभी अभी अपने आलसी भाई साहब (श्री गिरिजेश राव ) का फोन आया था .कल के अमर उजाला के नियमित स्तम्भ ब्लॉग कोना में कोर्ट-कचहरी के हालिया पोस्ट की चर्चा की गयी है...गिरिजेश भाई को धन्यवाद...
बुधवार, 24 जून 2009
दुर्घटना क्लेम करना हो तो -भाग दो
दावाकार या वादी स्वयं पीड़ित व्यक्ति ही होता है तो पंचाट उसी की गवाही , उसी के द्वारा उपलब्ध साक्ष्य एवं कागजातों को आधार मानकर दावे का निपटारा करता है. ऐसे दावों में पंचाट पीड़ित व्यक्ति को चार विभिन्न मदों में भुगतान करने का आदेश प्रतिवादी को देती है. इलाज, यात्रा भत्ता, पोषाहार देतु तथा प्रभावित दिवसों में हुए आय का नुकसान .इसलिए पीड़ित व्यक्ति को चाहिए वो इलाज से सम्बंधित प्रत्येक कागज़ .दवाइयों की रसीद,अस्पताल आने जाने,रहने में लगे खर्चे की रसीदें तथा तथा पोषाहार हेतु लिए गए विशेष भोज्य पदार्थों पर हुए खर्च का सारा ब्यौरा संभाल कर रखे एवं गवाही के समय अदालत में उपस्थित करे.
दूसरी स्थिति में जब दुर्घटना में किसी की मृत्यु हो जाए तो उसके वैध आश्रित/उत्तराधिकारी द्वारा दुर्घटना क्लेम करने में पंचाट कुछ विशेष बातों का ध्यान रखती है. सबसे पहली तो ये की दावा करने वाला मृतक का वैध आश्रित/उत्तराधिकारी है. ये दोनों बातें यानि मृतक से दवाकार का सम्बन्ध तथा वैध उत्तराधिकारी/आश्रित होने का प्रमाण , दोनों ही दावा करने वाले व्यक्ति को पंचाट में saabit karnee hotee है. यानि पंचाट को संतुष्ट करना होता है. मृत व्यक्ति वाले दावों में भी पंचाट कुछ विशेष मदों में मुआवजा राशिः भुगतान का आदेश देती है. मृतक के अंतिम संस्कार पर किये गए खर्च जो की सामान्यतया दो हजार रुपया दिया जाता है. मृतक के परिवारवालों को हुई मानसिक परेशानी एवं आघात के मद में जो की सामान्यतया पच्चीस हजार रुपये होता है. तथा तीसरा एवं सबसे अहम् मृतक के परिवार को उस मृतक के चले जाने से हुई आर्थिक हानि.
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यहाँ ये बता दें की आर्थिक हानि हेतु पीड़ित या मृत व्यक्ति की आयु, uskee मासिक आय, रहन सहन पर किया जा रहा खर्च आदि सभी तथ्यों का गणितीय विश्लेषण करने के उपरांत ही मुआवजा राशिः तय की जाती है. एक अहम् बात मृतक से सम्बंधित दावे में पंचाट अंतरिम मुआवजा का आदेश भी देती है. ऐसा ही अंतरिम मुआवजा उस दुर्घटना क्लेम में भी दिया जाता है jismein पीड़ित व्यक्ति को मान्यताप्राप्त मेडिकल बोर्ड द्वारा स्थाई अपंगता का प्रमाणपत्र दिया गया है. हाँ , इसमें मुआवजे की राशि इसमें आम तौर पर पच्चीस हज़ार ही होती है.
पंचाट द्वारा मुआवजे राशि का भुगतान का आदेश भी एक विशेष व्यवस्था द्वारा किया जाता है. सामान्यतया कुल देय राशिः का अधिकतम बीस से पच्चीस प्रतिशत ही आदेश के तुंरत बाद भुगतान किया जाता है . शेष राशिः को पंचाट के आदेशानुसार नामित व्यक्तियों के नाम से बैंक में फिक्स दीपोजित करा दिया जाता है जो परिपक्वता के बाद उन्हें मिलता है. किसी अनिवार्य परिस्थिति में उक्त राशि को जारी करने हेतु प्रार्थनापत्र पंचाट में लगाया जा सकता है.
इसके अलावा कुछ और बातें भी ध्यान देने योग्य हैं. यदि दुर्घटना के समय चालाक के पास उक्त वाहन को चलाने का वैध लाईसेंस नहीं है तो मुआवजे के भुगतान का सारा jimma वाहन के मालिक के ऊपर पड़ जाता है . ऐसा इसलिए क्योंकि इससे इंश्योरेंस की शर्तों का उल्लंघन होता है. ऐसी दुर्घटनाएं जिनमें चश्मदीद गवाह नहीं होते उनमें १६३ (क ) के तहत कार्यवाई आगे बधाई जाती है. यानि कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है की एक विशेष कार्य पधात्ति के बावजूद मुआवजे की राशि बहुत कुछ वादी की स्थिति, आयु, और आय पर निर्भर करती है....
नोट :- मेरा ये आलेख दैनिक ट्रिब्यून के स्तम्भ कानून -कचहरी में प्रकाशित हो चूका है..एवं ये वादी के हितों को ध्यान में रख कर जानकारी हेतु लिखा गया था......किसी प्रश्न या शंका हेतु ..आप यहाँ पूछ सकते हैं......
मंगलवार, 23 जून 2009
दुर्घटना क्लेम करना हो तो .....
इस तेज़ गति से आधुनिक होते युग में अन्य सुविधाभोगी साधनों की तरह अपने वाहनों का उपयोग भी अनिवार्य सा हो गया है. और ये भी सच है की जितने अधिक वाहन बढ़ रहे हैं, दुखद रूप से दुर्घटनाएं भी बढ़ रही हैं. छोटे शहरों से लेकर बड़े शहरों तक में सड़क दुर्घटनाओं की दर में बेतहाशा वृद्धि हो रही है. विशेषकर दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में तो इन सड़क दुर्घटनाओं ने एक बड़ी समस्या का रूप ले लिया है. यही वजह है की दृघतना में आहात लोगों एवं उनके आश्रितों के लिए मुआवजे हेतु ,विशेष मोटर वाहन दुर्घटना क्लेम पंचाट का गठन किया गया है,जिसमें न्यायादेहीश दुर्घटना क्लेम संबन्धी दावों का निपटारा करते हैं. यहाँ ये स्पष्ट कर दें की किसी दुर्घटना के बाद पुलिस एक आपराधिक मुकदमा तो दर्ज करती ही है जो चालाक या सम्बंधित चालकों के विरुद्ध दर्ज किया जाता है. दूसरा मुकदमा पीड़ित पक्ष को या उसके आश्रित को डालना होता है. रेलवे दुर्घटना से सम्बंधित दावों और वादों के लिए ऐसे ही विशेष पंचाट अलग से बनाये गए हैं.
आइये उन बातों को जानते हैं जो किसी को भी दुर्घटना क्लेम का दावा डालते समय ध्यान में रखनी चाहिए . यहाँ ये बता दें की दुर्घटना क्लेम वाद में एक पक्ष या तो पीड़ित स्वयं होता है या दुर्घटना में किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके वैध आश्रित होते हैं और दुसरे पक्ष में वाहन का चालाक , वाहन का मालिक तथा वाहन का इन्सुरेंस होने की स्थिति में इन्सुरेंस कंपनी होती है. दुर्घटना होते ही पुलिस अपना कार्य शुरू कर देती है,. आपराधिक मुकदमा दर्ज करना, गवाहों के बयान कलमबंद करना आदि. यूँ तो प्राथमिक सूचना रिपोर्ट तथा सम्बंधित कागजातों की एक प्रति पुलिस द्वारा सम्बंधित पक्षों एवं पीडितों को उपलब्ध कराई जाती है, किन्तु स्वयं उसे हासिल करके संभाल कर रखना चाहिए. दुर्घटना के पश्चात् पीड़ित व्यक्ति तथा सम्बंधित लोग मानसिक, आर्थिक एवं शारीरिक रूप से परेशान होते हैं...आजकल एक प्रवृत्ति जो विवादित होने के बावजूद चलन में है वो है की दुर्घटना के कुछ समय या दिनों के पश्चात् ही कोई वकील या उसकी तरफ से कोई व्यक्ति पिसित परिवार से मिलता है और भरी भरकम मुआवजा राशि दिलवाने का आश्वासन देकर आनन-फानन में मुकदमा डालने को प्रेरित करता है. जो अधिकांशतः गलत साबित होता है. इसलिए अच्छा ये होता है की जल्दबाजी में कोई कदम न उठाया जाए.
दुर्घटना क्लेम पंचाट किसी विवाद या दावे का निपटारा कैसे करता है , क्या मापदंड अपनाया जाता है , इसकी कार्यशैली क्या होती है .इसकी चर्चा से कोई भी ये आसानी से समझ सकता है की उसको क्या और कैसे करना है..और ये भी कितनी राशि का दावा करना चाहिए.. दरअसल पंचाट दो मुख्या क्षेत्रों पर सुनवाई करता है, वैसे दुर्घटना दावे जिनमें पीड़ित व्यक्ति जीवित होता है तथा अपने दावे का अहम् गवाह और लाभार्थी भी वही होता है. दुसरे वे दावे , जिनमें दुर्घटना के समय किसी की मृत्यु हो जाती है और मुकदमा उसके आश्रितों एवं वैध उत्तराधिकारियों द्वारा डाला जाता है. हलाँकि दोनों तरह के वादों का निपटारा लगभग एक जैसे ही किया जाता है मगर कुछ विशेष बातों का अंतर तो होता ही है...
क्रमशः .............................
सोमवार, 15 जून 2009
न्यायाधीशों की स्व-संपत्ति घोषणा : पक्ष-विपक्ष
पिछले कुछ वर्षो में न्यायपालिका और कार्यपालिका कई बार बहुत सारे मुद्दों पर आमने सामने आये हैं...और बहुत से ...बल्कि अधिकाँश में ..न्यायपालिका ने स्वाभाविक रूप से कार्यपालिका ..सरकार..समाज ..को अपने फैसलों ..अपने विचारों ..और अपनी सहमती -असहमति से एक नई दिशा दी...लेकिन पिछले कुछ समय से एक मुद्दा जो कुछ ज्यादा ही उलझता जा रहा है ..वो है की न्यायाधीशों को भी अपनी संपत्ति-परिसंपत्तियों का खुलासा करना चाहिए...उपरी तौर पर ये बात बिलकुल
दरअसल ये मुद्दा उतना भी सरल नहीं है ..की जैसा दीखता है..सभी न्यायाधीश अपनी अपनी संपत्तियों का खु़लासा करें और बात यही पर ख़त्म हो जाए..यदि न्यायपालिका की बात माने तो न्यायपालिका का कहना ये है की....ये ठीक है की अपने ही निर्णयों में वे ये कई बार ये घोषित कर चुके हैं की न्यायाधीश भी किसी आम जनसेवक की तरह जनता के प्रति उतना ही जवाबदेह है जितना कोई अन्य ...और मौजूदा प्रणाली (वर्तमान में जो प्रणाली है उसके अनुसार..सभी अधीनस्थ न्यायाधीश अपनी संपत्ति का ब्योरा लिखित रूप में एक दस्तावेज की तरह उच्च न्यायालय में प्रतिवर्ष जमा करवाते हैं..और सभी उच्च न्यायलय के न्यायाधीश ..सर्वोच्च न्यायलय में..सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीश वही इसी तरह करते हैं..) में जबकि सभी से लिखित रूप से ये रिपोर्ट पहले ही ले ली जाती है है तो उसे सार्वजनिक करने के पीछे कोई उचित कारण नज़र नहीं आता..
न्यायपालिका का कहना है की उन्हें इस बात पर कोई आपत्ति नहीं है की उन्हें अपनी संपत्तियों की घोषणा सार्वजनिक करनी होगी..बल्कि उन्हें दिक्कत ये है की सरकार या प्रशाशन कैसे ये सुनिश्चित करेगा की इन जानकारियों का गलत उपयोग नहीं किया जाएगा..उनका कहना है की चूँकि उनका कार्यक्षेत्र और कार्यप्रणाली विशिष्ट तरह की है..जिसके कारण उन्हें..समाज में रहते हुए भी समाज से अलग थलग रूप से रहना होता है...ज्ञात हो की वे किसी भी सार्वजनिक समारोह .में नहीं आ जा सकते....वे कहीं भी सार्वजनिक रूप से भाषण नहीं दे सकते..अदि से गुजरना होता है..इसलिए इसकी क्या गारंटी है की कल को निजी स्वार्थों के कारण कोई भी उन्हें किसी तरह से इन जानकारियों के लेकर उल्झायेगा नहीं. मौजूदा व्यवस्था में अभी इस मुद्दे पर किसी तरह का कोई नियम नहीं बनाया गया है .
अब दुसरे पहलु पर गौर करें. पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के मामले सामने आये हैं ..उन्होंने न सिर्फ न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है ..बल्कि आम लोगों को ये सोचने पर मजबूर कर दिया है की जिस न्यापालिका को अभेद और अविश्वसनीय मान रहे थे..उसमें भी समाज में आ रही कुरीतियों .बदलावों और पतनात्मक प्रवृत्तियों का समावेश हो रहा है..यहाँ ये उल्लेखनीय है की पिछले एक वर्ष में ही पूरे देश में निचले स्तर से लेकर उच्च स्तर तक लगभग पचास न्यायाधीशों पर अलग अलग तरह के मगर आर्थिक अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के आरोप ही लगे हैं...इलाहाबाद और चंडीगढ़ न्यायालयों में जो कुछ हुआ उसकी तो कार्यवाही अब तक चल रही है..हालांकि इलाहाबाद प्रकरण में जैसी भूमिका न्यायपालिका ने निभायी ..की उसे भी एक बारगी कटघरे में खडा किया गया..जब सर्वोच्च न्यायलय की उस बेंच को ये कहा गया की उन पर लगे (मतलब न्यायाधीशों पर ) आरोपों की जांच वे खुद ही कैसे कर सकते हैं..और ये भी की सारी अदालती कार्यवाही बंद कमरे में क्यूँ की जाती है ..इससे खिन्न होकर .न्यायाधीशों की बेंच ने उस मुक़दमे को दूसरी बेंच को स्थानांतरित करते हुए खुले कमरे में उसकी सुनवाई का आदेश दिया और साथ ही ये भी कहा की अभी न्यायपालिका में इतनी सक्षमता है की वो अपनी कमियों को खुद ही ढूंढ कर दूर कर सके.
जहां तक एक आम आदमी का प्रश्न है तो वो यही सोच रहा है की आखिर सही कौन है और गलत कौन है....मामले को जिस तरह से पेश किया जा रहा है ..उससे आम जनता के सामने न्यायपालिका को कटघरे में खडा किया जा रहा है..जो की फिलहाल तो उचित नहीं जान पड़ता है..मुझे लगता है की न्यापल्की को चाहिए की वो सरकार से स्पष्ट कहे की वो इस स्मबंद में कोई ठोस नीती बनाए ..और जब तक नीति नहीं बनती तब तक इस प्रकरण पर कहीं कोई बहस या सार्वजनिक रूप से किसी तरह की कोई बयानबाजी नहीं होनी चाहिए....
शनिवार, 6 जून 2009
जल्द ही सभी थाने सीधे जुडेंगे अदालतों से .
मंगलवार, 2 जून 2009
हाँ ये , अदालत है.
रविवार, 12 अप्रैल 2009
न्यायाधीशों के लिए बन रहा है तनावमुक्ति कक्ष और एक संयुक्त भोजन कक्ष
सूत्रों की मने तो राजधानी की सभी पाँचों अदालतों में तनावमुक्ति कक्ष का न्रिमान कार्य शुरू हो चुका है (डिस्ट्रेस रूम) . सभी अदालतों में इसके लिए कक्षों की पहचान कर ली गयी है तथा उसे तैयार करने का काम भी शुरू होने जा रहा है. दरअसल ये तो सभी जानते हैं की अदालतों में मुकदमों का बेतहाशा बोझ है और काफी प्रयासों के बावजूद वो बढ़ता ही जा रहा है. इसका परिणाम ये निकल रहा है की आज हर न्यायाधीश को अपने निर्धारित कार्य से कहीं अधिक काम करना पड़ रहा है और उसकी वजह से उन्हें शारीरिक और मास्न्सिक थकान की परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा है. पिछले वर्षों में इसी तरह के तनाव को झेलते हुए एक न्यायाधीश अपने कार्य के दौरान ही अदालत में बेहोश होकर गिर पड़े थे. इसके बाद अदालत प्रशाशन की तरफ़ से कई बार तनावमुक्ति हेतु शाम को कई कार्यक्रम आयोजित किए गए, जिनमें ध्यान और योग शामिल था. इन कार्यक्रमों का सकारात्मक स्वागत किया गया. इसी के बाद ये योजना बने की यदि अदालतों में एक स्थायी तनावमुक्ति कक्ष बना दिया जाए तो ये और भी कारगर साबित होगा, जिसे अब अमली जमा पहना जाया रहा. हालाँकि अभी ये तय नहीं हुआ है की वहां क्या क्या और कैसी व्यवस्ता होगी किंतु सुना गया है की आध्यात्मिक संगीत , योग , ध्यान आदि की व्यवस्था की जायेगी.
न्यायाधीशों के लिए जो दूसरी योगना बन रही है व्हो हैं एक संयुक्त भोजन कक्ष का निर्माण. दरअसल इसके पीछे की कहानी यह है की न्यायाधीशों को आपस में एक दूसरे से मुलाकात और बातचीत का मौका लगभग न के बराबर मिलता हैं. अक्सर वे या तो किसी सेमिनार या किसी कार्यशाला के दौरान हे मिल पते हैं जहाँ स्वाभाविक रूप से या तो उन निर्धारित विषयों से सम्भंदित या सिर्फ़ औपचारिक बातें भर हो पाती हैं इसलिए एक ऐसे मुके और बहने की आवश्यकता थी जहाँ सभी न्यायाधीश मिल बैठ कर खुले दिल से बातचीत कर सकें. यही सोच कर सभी जिला न्यायालयों में संयुक्त भोजन कक्ष बनाया जा रहा हैं, जहाँ एक साथ कम से कम पचास न्यायाधेश भोजन कर सकते हैं.
ज्ञात हो की ये सभी नए सुधार पश्चिमी देशों की न्यायिक प्रक्रियाओं से प्रेरित होकर किए जा रहे हैं, हाँ अब देखना ये होगा की ये सुधार भारतीय न्यायिक प्रक्रिया के बोझ को कितना कम कर पाते हैं?
गुरुवार, 26 मार्च 2009
कोर्ट कर्मचारियों के लिए नए दिशा निर्देश जारी - भाग दो
अभी कर्मचारियों को अपने दैनिक कार्यों के अलावा डाक पहुंचाना, जुर्माने की रकम को जमा करवाना, तथा और भी अन्य कई तरह के कार्य साथ साथ करने पड़ते हैं, किंतु नए दिशा निर्देशों के मुताबिक अब सभी अदालतों में इन कार्यों के लिए अलग कर्मचारियों की नियुक्ति की जाना तय हुआ है ताकि उनका नियमित काम बाधित न हो सके।
एक अन्य महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए पहली बार ओवर टाईम की बात कही गयी है। दरअसल अभी अधिक कार्यबोझ के कारण बहुत से कर्मचारियों को अपने निर्धारित कार्य घंटों से ज्यादा काम करना पड़ता है और कई बार तो छुट्टी के दिन भीआना पड़ता है, किंतु अब यदि उन्हें ऐसा करना पडा तो उन्हें इस बात के लिए ओवर टाईम दिए जाने का प्रावधान क्या जा रहा है ताकि उन्हें उनकी म्हणत का प्रतिफल मिल सके। फिलहाल ये नियम सिर्फ़ उच्च न्यायालयों में ही लागू है किंतु इसे जल्दी ही अधीनस्थ न्यायालयों में भे लागू किया जायेगा।
एक अन्य प्रावधान ये भी किया गया अहै की सभी विभागीय कार्यवाहियों के लिए विशेष रूप से सेवानिवृत न्यायाधीसों की नियुक्ति की जाए ताकि बरसों तक उनके फैसले की प्रतीक्षा न करनी पड़े। दरअसल अभी किसी भी विभागीय कारवाही की सारी सुनवायी और फैसला कार्यरत न्यायिक अधिकारिओं के जिम्मे ही रहता है इस वजह से उनके निपटारे में बहुत लंबा समय लग जाता है.
अब देखना ये है की इन सुधारों का आम जनता और न्यायिक प्रक्रिया को क्या और कितना फायदा मिलता है