दिल्ली बलात्कार कांड के फ़ैसले के आने से पहले यदि किसी से भी पूछा जा रहा था कि वो इस अपराध के आरोपियों को क्या सज़ा पाते हुए देखना चाहते हैं तो दस में आठ व्यक्तियों का कहना था कि , उन्हें मौत की सज़ा मिलनी चाहिए । खुद गृह मंत्री तक भावावेश में एक विवादास्पद बयान दे गए कि मौजूदा कानूनों के तहत तो आरोपियों को सज़ा- ए -मौत का दंड ही दिया जाना चाहिए । जिस क्रूरतम तरीके से ये अपराध किया गया था उसी समय से दोषियों के खिलाफ़ एक और सिर्फ़ एक ही सज़ा , यानि फ़ांसी की पुरज़ोर मांग उठने लगी थी । किंतु कानून न तो जन भावनाओं पर चलता है न ही आवेश में आकर कोई फ़ैसला सुनाता है , हालांकि ऐसे अपराधों के लिए इससे पहले फ़ांसी की सज़ा न दी गई हो । कुछ वर्षों पहले धनंजय चटर्जी नामक एक व्यक्ति को , बलात्कार और बलात्कार के बाद हत्या के आरोप में मृत्युदंड की सज़ा दी गई थी ।
अब जबकि दिल्ली बलात्कार कांड के छ: अपराधियों में से चार को फ़ांसी की सज़ा सुना दी गई है तो स्वाभाविक रूप से इसके बाद की परिस्थितियों पर भी नज़र डालना जरूरी हो जाता है । किसी भी अभियुक्त को जब निचली अदालत फ़ांसी की सज़ा सुनाती है तो एक महीने के अंदर ही केस फ़ाइल और न्यायिक आदेश को संबंधित उच्च न्यायलय की संपुष्टि या अनुमोदन के लिए प्रेषित कर दिया जाता है । यदि अदालत निचली अदालत के आदेश की संपुष्टि कर देती है तो अभियुक्त इस आदेश के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकता है । अंतिम आदेश के रूप में यदि सर्वोच्च न्यायालय भी इस अधिकतम सज़ा पर मुहर लगा देता है तो इसके बाद अभियुक्त राष्ट्रपति के समक्ष क्षमा याचिका दायर कर सकता है और इतना ही नहीं राष्ट्रपति द्वारा क्षमा याचिका को ठुकराए जाने के आधार को भी चुनौती देते हुए पुन: सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की जा सकती है । इन सभी चरणों के बाद भी यदि मौत की सज़ा ही बरकरार रहती है तो फ़िर न्यायालय एक नियत तारीख तय कर देती है , जिस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने के बाद .'warrent of death" अभियुक्त को फ़ांसी पर उसके प्राण निकलने तक लटका कर उसे मृत्यु दंड दिया जाता है । यानि वर्तमान सज़ा इस लडाई की पहली सीढी या कहें कि पहली सफ़लता मानी जा सकती है ।
जहां तक इस मुकदमे के परिप्रेक्ष्य में बात की जाए तो इस सज़ा का सबसे बडा प्रभाव पडेगा उस बचे हुए नाबालिग आरोपी की सज़ा पर , वो भी उस स्थिति में जब सर्वोच्च न्यायालय में लंबित याचिका के फ़ैसले में "नाबालिग " की नई परिभाषा , इस आरोपी को भी अपने अंज़ाम तक पहुंचा सकेगी । दूसरा प्रभाव ये कि यदि ऊपरी अदालतों में किसी भी वजह से अधिकतम सज़ा को कम भी किया गया तो ये आजीवन कारावास से कम नहीं होगा , और यहां बताता चलूं कि अब सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1997 में गोपाल विनायक गोडसे बनाम महाराष्ट्र राज्य वाद में ये बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि आजीवन कारावास का पर्याय है मृत्यु तक कारावास । इस वाद में मौजूदा न्यायिक परिस्थितियों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि बेशक अपील दर अपील ये मुकदमा लंबा समय ले ले किंतु अंतिम परिणति तक पहुंचेगा अवश्य । और यदि समाज और संचार माध्यमों ने इसी तरह त्वरित न्याय पाने के लिए दबाव बनाए रखा तो नि: संदेह इसमें न्याय पाने के लिए धनंजय चटर्जी मामले की तरह लंबा समय नहीं लगेगा । इस फ़ैसले का एक तात्कालिक प्रभाव ये भी पडेगा कि अभी लंबित सभी ऐसे मुकदमों में न्यायाधीश इसी तरह की हिम्मत दिखा सकेंगे जो बेशक बहुत कम प्रतिशत ही सही मगर अपराधियों में एक तात्कालिक भय तो जरूर पैदा करेगा ।
अब जबकि दिल्ली बलात्कार कांड के छ: अपराधियों में से चार को फ़ांसी की सज़ा सुना दी गई है तो स्वाभाविक रूप से इसके बाद की परिस्थितियों पर भी नज़र डालना जरूरी हो जाता है । किसी भी अभियुक्त को जब निचली अदालत फ़ांसी की सज़ा सुनाती है तो एक महीने के अंदर ही केस फ़ाइल और न्यायिक आदेश को संबंधित उच्च न्यायलय की संपुष्टि या अनुमोदन के लिए प्रेषित कर दिया जाता है । यदि अदालत निचली अदालत के आदेश की संपुष्टि कर देती है तो अभियुक्त इस आदेश के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकता है । अंतिम आदेश के रूप में यदि सर्वोच्च न्यायालय भी इस अधिकतम सज़ा पर मुहर लगा देता है तो इसके बाद अभियुक्त राष्ट्रपति के समक्ष क्षमा याचिका दायर कर सकता है और इतना ही नहीं राष्ट्रपति द्वारा क्षमा याचिका को ठुकराए जाने के आधार को भी चुनौती देते हुए पुन: सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की जा सकती है । इन सभी चरणों के बाद भी यदि मौत की सज़ा ही बरकरार रहती है तो फ़िर न्यायालय एक नियत तारीख तय कर देती है , जिस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने के बाद .'warrent of death" अभियुक्त को फ़ांसी पर उसके प्राण निकलने तक लटका कर उसे मृत्यु दंड दिया जाता है । यानि वर्तमान सज़ा इस लडाई की पहली सीढी या कहें कि पहली सफ़लता मानी जा सकती है ।
जहां तक इस मुकदमे के परिप्रेक्ष्य में बात की जाए तो इस सज़ा का सबसे बडा प्रभाव पडेगा उस बचे हुए नाबालिग आरोपी की सज़ा पर , वो भी उस स्थिति में जब सर्वोच्च न्यायालय में लंबित याचिका के फ़ैसले में "नाबालिग " की नई परिभाषा , इस आरोपी को भी अपने अंज़ाम तक पहुंचा सकेगी । दूसरा प्रभाव ये कि यदि ऊपरी अदालतों में किसी भी वजह से अधिकतम सज़ा को कम भी किया गया तो ये आजीवन कारावास से कम नहीं होगा , और यहां बताता चलूं कि अब सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1997 में गोपाल विनायक गोडसे बनाम महाराष्ट्र राज्य वाद में ये बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि आजीवन कारावास का पर्याय है मृत्यु तक कारावास । इस वाद में मौजूदा न्यायिक परिस्थितियों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि बेशक अपील दर अपील ये मुकदमा लंबा समय ले ले किंतु अंतिम परिणति तक पहुंचेगा अवश्य । और यदि समाज और संचार माध्यमों ने इसी तरह त्वरित न्याय पाने के लिए दबाव बनाए रखा तो नि: संदेह इसमें न्याय पाने के लिए धनंजय चटर्जी मामले की तरह लंबा समय नहीं लगेगा । इस फ़ैसले का एक तात्कालिक प्रभाव ये भी पडेगा कि अभी लंबित सभी ऐसे मुकदमों में न्यायाधीश इसी तरह की हिम्मत दिखा सकेंगे जो बेशक बहुत कम प्रतिशत ही सही मगर अपराधियों में एक तात्कालिक भय तो जरूर पैदा करेगा ।