पिछले दिनों अचानक दो फ़ैसलों ने अपनी ओर ध्यान खींचा । इसमे आश्चर्य और सुखद बात ये है कि एक फ़ैसला दिल्ली की अधीनस्थ अदालत का है तो दूसरा सर्वोच्च अदालत का किंतु दोनों ही मुकदमों में महिला अधिकारों पर जिस तरह से फ़ैसले के निहितार्थ को रखा और देखा गया वह बहुत मामलों में महत्वपूर्ण रहा ।मोटर दुर्घटना दावा पंचाट दिल्ली ने एक रूटीन मुकदमे का फ़ैसला सुनाया जो अपने आप में एक एतिहासिक फ़ैसला साबित हुआ । इस पंचाट ने फ़ैसला सुनाते हुए प्रतिवादी को लगभग अठारह लाख बतौर मुआवजा मृतक छात्रा के माता पिता को दिया । यहां तक तो ये आम फ़ैसले की तरह ही लगा और था । मुकदमा ये था कि , एक छात्रा जो दिल्ली विश्व विद्यालय में स्नातक की छात्रा थी की एक सडक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी , उसका मुआवजे के लिए ये याचिका उसके माता पिता ने डाली थी । हालांकि मृतक छात्रा थी और उसकी आय कुछ भी नहीं होने के कारण , प्रतिवादियों ने उसे मुआवजे की कम रकम का हकदार बताया था , किंतु पंचाट ने ...............................जैसा कि आपको विदित है कि मैं ब्लॉगर से डोमेन की तरफ़ अग्रसर हूं ..आगे पढने के लिए यहां आएं
शनिवार, 25 दिसंबर 2010
दो अदालती फ़ैसले : महिला अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में
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न्यायिक फ़ैसले
एक आम आदमी ..........जिसकी कोशिश है कि ...इंसान बना जाए
सोमवार, 13 दिसंबर 2010
न्यायिक प्रक्रिया में परिवर्तन की दरकार...
पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से न्यायिक क्षेत्र में पनप रहे कदाचार व अन्य अनियमितताओं की खबरें आती रही हैं उसने एक बार फ़िर से इस चर्चा को गर्म कर दिया है कि क्या अब समय आ गया है जब पूरी न्याय प्रणाली में परिवर्तन किया जाए । कभी कभी तो बहुत सी एक जैसी घटनाओम और अपराधों के मामले में खुद न्यायपालिका अपने आदेशों और फ़ैसलों में इतना भिन्न नज़रिया दिखा दे रही हैं कि आम लोग ये समझ ही नहीं पाते हैं कि आखिर न्याय कौन सी दिशा में हुआ है । इतना ही नहीं बहुत बार तो न्यायिक आदेश की व्याख्या करते करते आम जनता को अपने साथ सरासर अन्याय होता हुआ सा महसूस हो जाता है । भारतीय न्यायिक प्रक्रिया की एक सबसे बडी कमी है उसके फ़ैसलों उसके दृष्टिकोण और उसके क्रियाकलाप पर आम आदमी द्वारा किसी भी तरह की असुरक्षित प्रतिक्रिया देने का नितांत अभाव ।आज स्थिति इतनी बदतर है कि , आज इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के सामने इस बात की अर्जी लगाई कि , कुछ दिनों पहले सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार में लिप्तता विषयक जो तल्ख टिप्पणी की थी उसे वापस लिया जाए । इस अर्जी पर उच्च न्यायालय की अरजी को खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जो कडी फ़टकार लगाई , उसे लगाते हुए वो जरूर अभी हाल ही में हुई उस घटना को नज़रअंदाज़ कर गई जब एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने बाकायदा गिनती करते हुए बताया था कि उन माननीय पर भी ऐसी ही टिप्पणी लागू की जा सकती थी । इससे इतर केंद्र सरकार की एक स्थाई संसदीय समिति ने भी अब पूरी तरह से इस मामले में अपनी कमर कस ली है । भविष्य में भ्रष्ठ न्यायाधीशों से निपटने के लिए सरकार कडे नियम कानून लाने का विचार कर रही है । उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु बासठ वर्ष से पैंसठ वर्ष किए जाने की सिफ़ारिश भी की गई है ।पिछले एक दशक से न्यायपालिका की भूमिका में जिस तरह का बदलाव आया और एक स्वनिहित शक्ति का संचार उसमें आया स्वाभाविक रूप से उसमें समाज में व्याप्त वो सभी दुर्गुण आ गए तो अन्य सार्वजनिक संस्थाओं में आ जाती हैं । किंतु इस बात की गंभीरता को भलीभांतिं परखते हुए इसके उपचार में कई प्रयास भी शुरू हो गए थे ।जजेज़ जवाबदेही विधेयक का मसौदा , अखिल भारतीय न्यायिक सेवा आदि का मसौदा इन्हीं प्रयासों का हिस्सा था । ये सरकारों की अकर्मठता है या आलस्य या फ़िर कि कोई छुपी हुई मंशा कि अब तक इस दिशा में कोई भी कार्य नहीं हो पाया है । न्यायिक प्रक्रिया की खामी की जहां तक बात है तो सबसे पहले और सबसे अधिक जो बात उठती है वो न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति की प्रक्रिया जिसमें भाई भतीजावाद का आरोप लगता रहता है । एक ही स्थान पर नियुक्त रहने के कारण इस अंदेशे को बल भी मिल जाता है । इन्हीं सबके कारण न्यायिक क्षेत्र में परिवर्तन वो भी आमूल चूल परिवर्तन किए जाने के स्वर उठने लगे हैं ।
एक आम आदमी ..........जिसकी कोशिश है कि ...इंसान बना जाए
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
कैसे कैसे मुकदमें ....कचहरीनामा ..एक कर्मचारी की नज़र से ..jha ji in court
आजकल मेरी नियुक्ति ..मोटर वाहन दुर्घटना पंचाट में है ..और रोज सैकडों मुकदमों से आमना सामना होता है ..अक्सर जब हर दुर्घटना में एक तरफ़ खडे पीडित या दुर्घटना में मृतक के आश्रितों को देखता हूं और दूसरी तरफ़ चालक , वाहन के मालिक और बीमा कंपनी को देखता हूं तो जाने कितनी ही बातें एक साथ दिमाग में घूमने लगती हैं । और् कई बार तो ऐसे ऐसे मुकदमें सामने आ जाते हैं जो स्तब्ध कर देते हैं । सोचा आज आपसे कुछ उन मुकदमों को बांटा जाए ..एक मुकदमें में मृतक बालक जिसकी उम्र ग्यारह वर्ष की थी ..उसके पिता माता ने मोटर वाहन दुर्घटना क्लेम के तहत मुआवजे की मांग की थी । जब मुकदमें पर सरसरी तौर पर नज़र डाली तो देखा कि ...उस बालक की मौत का जो कारण था वो ये था कि ..खुद उसके पिता ने एक दिन सुबह ऑफ़िस जाने की जल्दी में गाडी को रिवर्स करते समय ..पीछे खडे उस बालक पर गाडी चढा दी ..फ़लस्वरूप उसकी मौत हो गई ....,मैं स्तब्ध था ....समझ ही नहीं पा रहा था कि आखिर उस पिता के दिल पर क्या बीत रही होगी ???अब एक दूसरा मुकदमा देखिए ........एक तरफ़ थी मृतक बालक की मां ...घर में और कोई भी नहीं , न आगे न पीछे ....ओह इस संसार में अब वो निहायत ही अकेली ..असहाय और निराश सी दिखी ...और दूसरी तरफ़ वो बालक जिसने तेज गति से बाईक चलाते हुए ..उस बालक की जान ले ली थी और साथ खडी उसकी विधवा मां ..जिसने रोते हुए यही कहा कि वो प्रति माह किसी तरह से नौकरी करके पांच हजार कमा कर घर चला रही है ..और एक महीने की तनख्वाह दे सकती है मुआवजे के रूप में ..चूंकि दुर्घटना में लिप्त मोटर सायकल का बीमा नहीं था इसलिए वो मुआवजे की रकम उन्हें ही अदा करनी थी ...एक और ..थोडा अलग और थोडा हटके ...पीडित ने आते ही हाथ जोड कर कहा ...जज साहब मुझे कुछ नहीं चाहिए इनसे ..दुर्घट्ना के समय से लेकर अब तक इन्होंने जो कुछ मेरे लिए किया है वो तो मेरा परिवार भी नहीं कर सकता था ....दिन रात न सिर्फ़ मेरा ख्याल रखा बल्कि , मेरे पीछे से मेरे परिवार का सुख दुख भी बांटते रहे ...इनसे अब मुझे कोई शिकायत नहीं है ...और दूसरा पक्ष जिसमें महिला चालक थीं और उनके पति वाहन मालिक के रूप में उपस्थित थे ..पीछे खडे थे दो युवा बच्चे जो मां बाप का साथ देने की गर्ज़ से खडे थे ..पूरी अदालत के लिए दोनों ही पक्षों के मन में आदर भाव स्वत: उत्पन्न हो गए थे ...चलिए आज इतने ही दृश्य ...बांकी के फ़िर कभी ...
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