अपने एक आलेख में आपको बताया था कि न्यायपालिका ने दिल्ली की अधीनस्थ न्यायालय में भ्रष्टाचार को हटाने और बदलाव के मद्देनज़र बहुत से परिवर्तनों के साथ साथ सभी कर्मचारियों के लिए ड्रेस कोड की व्यवस्था का विचार रखा था । पहले इसे दिल्ली उच्च न्यायालय में प्रयोग के तौर पर लागू किया गया । आनन फ़ानन में न सिर्फ़ सभी कर्मचारियों की वर्दी का नाप लिया गया बल्कि उनकी नाम पट्टिका, आदि भी तैयार करा दी गई । आज सभी कर्मचारी वर्दी में दिखते हैं । इसे सख्ती से लागू करने के लिए ये आदेश भी जारी किया गया कि जो भी वर्दी पहन के नहीं आएगा उसकी उस दिन की तन्ख्वाह , उसके वेतन में से काट ली जाएगी । इसके बाद इस प्रयोग को दिल्ली की अधीनस्थ अदालतों में भी लागू करने का निर्णय लिया गया ।
अधीनस्थ न्यायालय में जब इसकी शुरूआत हुई तो सामने शीतकालीन सत्र शुरू होने वाले थे । इसलिए सबसे पहले फ़ैसला ये लिया गया कि शीतकालीन वर्दी के रूप में पुरूष कर्मचारियों के कोट और पैंट का नाप ले लिया गया और चूंकि महिला कर्मियों को साडी /सूट के ऊपर ही उसे पहनना था लिहाज़ा उनके कोट का नाप लिया गया । ये टुकडों टुकडों में सभी अधीनस्थ अदालतों में हुआ । इसका परिणाम ये हुआ कि बहुत से कर्मचारियों की वर्दी तैयार हो कर आ गई तो बहुतों का नाप भी नहीं लिया जा सका । इसके बाद कुछ दिनों बाद ही ग्रीष्मकालीन वर्दी का नाप भी लिया गया । ये पुरूष और महिला कर्मियों दोनों का ही लिया गया । गफ़लत का आलम ये था कि सर्दियों की वर्दी का नाप पहले लिए जाने के बावजूद ग्रीष्म कालीन वर्दियां पहले तैयार होकर आ गईं ।
और यहीं से सारी गडबड शुरू हुई । उस वर्दी के मिलते ही कपडे की क्वालिटि और उसकी बेढंगी सिलाई का मामला इतना उछला कि वो अखबारों की सुर्खियां बन गयी । जब अधिकारियों को ये पता चला तो उन्होंने अभूतपूर्व निर्णय लेते हुए आदेश जारी किया कि सप्ताह के अलग अलग दिन अदालत में ही दर्ज़ी बैठेंगे जो कर्मचारियों की वर्दी की नाप संबंधी कमियां दूर करेंगे । बहुत से कर्मचारियों ने वर्दी के कपडे से एलर्जी और त्वचा संबंधी शिकायत करते हुए उसे वापस ही कर दिया । उधर महिला कर्मियों की ग्रीष्म कालीन वर्दी का नाप लेकर जाने के बाद से उस दिशा में कभी कोई सुगबुगाहट भी सुनाई नहीं दी । ऐसा सुना गया कि पुरूष कर्मचारियों की वर्दी सिलने वाली कंपंनी के अनुभवों को देखते हुए उसने भागना ही मुनासिब समझा ।
इसके कुछ माह बाद अचानक ही आदेश आया कि जिन भी कर्मचारियों को वर्दी दी गई है , इस आदेश के तहत उनके लिए ये वर्दी पहनना अनिवार्य किया जाता है । इस आदेश का असर भी दिखा और अगले ही कुछ दिनों में अधिकांश पुरूष कर्मचारी वर्दी में दिखने लगे । मगर एक बार फ़िर इस कदम को बडा झटका लगा जब पता चला कि दिल्ली की राज्य सरकार ने न्यायालय के कर्मचारियों की वर्दी के लिए निर्धारित धुलाई एवं वर्दी रखरखाव भत्ता देने में असमर्थता जता दी है । इस निर्णय के बाद सभी अदालती कर्मचारियों ने अपनी अपनी वर्दी को तिलांजलि दे दी है । अभी तो इसे पूरी तरह अमल में लाना ही कठिन साबित हुआ , इसके परिणामों का आकलन तो दूर की बात थी । इस योजना ने न सिर्फ़ सरकार की मंशा पर प्रश्न चिन्ह लगा दिए हैं बल्कि ये भी जता दिया है कि अदालती सुधारों के प्रति वो कितनी संवेदनशील है ।
शनिवार, 15 मई 2010
टांय टांय फ़िस्स हुई अदालती कर्मचारियों को वर्दी पहनाने की योजना
एक आम आदमी ..........जिसकी कोशिश है कि ...इंसान बना जाए
रविवार, 2 मई 2010
साठ दिनों के अंदर मोटर दुर्घटना का मुआवजा दिलवाने की कवायद
राजधानी दिल्ली में मोटर वाहन दुर्घटनाओं की बढती संख्या और उसमें प्रभावित लोगों , चोटिल व्यक्तियों तथा मृतकों के आश्रितों को मुआवजा दिलाने के लिए दायर किए जाने वाले वादों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि , सरकार , प्रशासन, पुलिस और न्यायपालिका के लिए भी चिंता का सबब बन गए थे । इसी के मद्देनज़र एक अपील की सुनवाई करते हुए हाल में माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस दिशा में एक एतिहासिक पहल करते हुए कई बडे निर्देश जारी किए और न सिर्फ़ निर्देश जारी किए बल्कि उनके त्वरित क्रियान्वयन के लिए निचली अदालतों , पुलिस विभाग , बीमा कंपंनियों को कई निर्देश दिए गए हैं ।
२ अप्रैल से शुरू की गई इस योजना को पायलट प्रोजेक्ट के रूप में लेते हुए एक महीने के बाद इससे स्थिति में आए अंतर को बताने के लिए सभी को इसकी क्रियान्वयन रिपोर्ट भी प्रस्तुत करने को कहा गया है ।इन निर्देशों के तहत ये निम्नलिखित आदेश जारी किए गए हैं ।
पुलिस विभाग के लिए :- दिल्ली पुलिस को ये आदेश दिया गया है कि दिल्ली में बढती वाहन दुर्घटनाओं को गंभीरता से लेते हुए पीडित को तवरित न्याय दिलवाने के लिए विशेष व्यवस्था और प्रबंध किए जाएं । ज्वाईंट कमिशनर औफ़ पुलिस की अध्यक्षता में गठित एक विशेष कार्यदल इस दिशा में काम करेगा । इसके लिए सभी जिलों में विशेष एम ए सी टी ( मोटर ऐक्सीडेंट क्लेम ट्रिब्यूनल ) सैल को स्थापित करने का आदेश दिया गया है । इस सैल में विशेष तौर से प्रशिक्षण प्राप्त पुलिसकर्मी , २ अप्रैल के बाद से घटित किसी भी दुर्घटना में एक विशेष विस्तृत दुर्घटना रिपोर्ट दायर करेंगे । इससे पहले ये महज ए आई आर ( एक्सीडेंट इंफ़ोर्मेशन रिपोर्ट ) के रूप में अदालत में प्रस्तुत की जाती थी जिसमें प्राथमिक जानकारी भर होती थी । मगर अब ये डी ए आर ( डिलेट्ड एक्सीडेंट रिपोर्ट ) के रूप में प्रस्तुत की जानी होगी । इस डी ए आर में , एक चैक लिस्ट के साथ जिसमें कुल अट्ठाईस कालम में , दुर्घटना की पूरी जानकारी , पीडित की , उसके परिवार की , पीडित की आय , उसका खर्च , दुर्घटना में शामिल वाहन के विषय में पूरी जानकारी , वाहन के चालक , उसके रजिस्टर्ड मालिक , बीमा कंपंनी आदि की पूरी जानकारी के साथ साथ ये भी कि बीमा कंपंनी पीडित व्यक्ति को कितने मुआवजे की पेशकश कर रही है । इतना ही नहीं माननीय उच्च न्यायालय ने जब देखा कि बहुत बडी संख्या में नकली लाईसेंस धारी और नाबालिग चालक ऐसी दुर्घटना के लिए जिम्मेदार हैं ,उन्हें बख्शा न जाए और उनके खिलाफ़ आपराधिक मुकदमा दर्ज़ किया जाए ।
बीमा कंपंनियों के लिए :- माननीय उच्च न्यायालय ने पाया कि बीमा कंपंनियां , जो ऐसे दुर्घटना क्लेम वादों में बहुत ही निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं , मगर उनके उदासीन रहने के कारण ऐसा नहीं हो पाता है । इसलिए इन निर्देशों में बीमा कंपंनियों को भी सीधा सीधा कई निर्देश दिए गए । सभी बीमा कंपंनियों से कहा गया कि , वे सब एक एक नामित विशेष बीमा अधिकारी को प्रत्येक ट्रिब्यूनल में खास तौर पर सिर्फ़ इसलिए नियुक्त करें वे पीडित की उपस्थिति होते ही बीमे की रकम का भुगतान हेतु समझौते की प्रक्रिया के तहत उसे त्वरित न्याय दिलवानें में सहायता करें । इतना ही नहीं , उन्हें कहा गया है कि वे खुद ही सभी औपचारिकताओं को पूरा करते हुए अपनी तरफ़ से एक निश्चित राशि का प्रस्ताव रखें , और कोशिश करें कि पीडित को उसी दिन मुआवजा मिल सके । सभी बीमा कंपंनियों के ये निर्देश दिए गए हैं कि वे सभी दुर्घटना दावों के लिए एक अलग से डाटा बेस तैयार करवाएं , ऐसे सभी वादों में जिनमें नकली लाईसेंस की बात सामने आती है उनमें अपनी पहल पर उन चालकों के खिलाफ़ मुकदमा दर्ज़ करवाएं ।जो मुकदमें अदालती कार्यवाही और फ़ैसले द्वा खत्म हो रहे हैं , उनमें उनके मुआवजे की राशि तीस दिन के अंदर अंदर अदालत में जमा करवा दी जाए ।
निचली अदालतों के लिए :- निचली अदालतों को ये निर्देश दिए गए हैं कि उक्त आदेशों का क्रियान्वयन पूरी गंभीरता से करवाएं । इस बात की तस्दीक के लिए उन्हें ये आदेश दिया गया है कि निश्चित समयावधि पर नियमित रूप से इन सभी मुकदमों की प्रगति रिपोर्ट वे उच्च न्यायालय को प्रेषित करें , जिनका आकलन और विश्लेषण करने के बाद आगे के निर्देश दिए जाएंगे । बसों द्वारा , खास कर ब्लू लाईन बसों द्वारा की जा रही दुर्घटनाओं की बहुत बडी संख्या को उच्च न्यायालय ने बहुत ही गंभीरता से लिया और आदेश पारित कर दिया कि ब्लू लाईन बसों द्वारा की गई किसी भी दुर्घटना वाले मामले में पुलिस बस को ज़ब्त कर ले और तब तक उन्हें न छोडे जब तक कि वे , यदि पीडित व्यक्ति मृत है तो एक लाख और यदि गंभीर रूप से घायल है तो पचास हज़ार रुपए की राशि निचली अदालत में जमा न करवा दे । ये राशि अविलंब और अंतरिम सहायता के रूप में पीडित को दी जानी चाहिए । उन सभी मामलों में , जिनमें कि दुर्घटना में लिप्त वाहन का बीमा नहीं है , उनके लिए आदेश जारी किया गया कि उन वाहनों तो तब तक न छोडा जाए जब तक कि वाहन मालिक बतौर मुआवजा सुरक्षा राशि ,एक निश्चित रकम अदालत में न जमा करवा दे ।
वे मुकदमें जिनमें बीमा कंपनी प्रतिवादी के रूप में नहीं है , उन्हें आवश्यक रूप से मध्यस्थता से सुलझाने का प्रयास किया जाए । इसके लिए मध्यस्थता केंद्रों के साथ साथ मोटर वाहन दुर्घटना स्थाई लोक अदालतों का गठन किया जाए । मोटर वाहन दुर्घटना वादों के निपटारे में तेज़ी लाने के उद्देश्य से किए गए इन नए बदलावों का एक सकारात्मक परिणाम दिखने भी लगा है । हालांकि अभी भी पुलिस और बीमा कंपंनियां न तो अपेक्षित श्रम ही कर रही हैं इस दिशा में , न ही इन मुकदमें के प्रति उतनी संवेदी दिख रही हैं जितनी कि अदालतें हैं , किंतु फ़िर भी इसके शुरूआती परिणाम निश्चित रूप से उत्साह वर्धन करने वाले हैं । उम्मीद है कि भविष्य में ऐसे उपायों से बडे परिवर्तन लाए जा सकेंगे ।
एक आम आदमी ..........जिसकी कोशिश है कि ...इंसान बना जाए
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