अदालतों को मुक़दमे के बोझ से मुक्ति दिलाने के लिए बहुत से वैकलिपिक उपाय अपनाए जा रहे हैं, और उनका परिणाम भे धीरे धीरे सामने आ रहा है। अदालतों के बदलते स्वरुप और नई तकनीकों पर जल्दी ही एक अलग विस्तृत आलेख लिखूंगा। बहुत पहले ही पश्चमी देशों के तर्ज़ पर सांध्य कालीन अदालतों के गठन के बात चली थी ,
मगर जैसे की यहाँ हर नयी योजना का हश्र होता है सो इस योजना के लागोकरण में खासे डेरी हुई, मगर गुजरात के बाद अब राजधानी की जिला अदालतों में भी जल्दी ही सांध्य कालीन अदालतें शुरू होने जा रही हैं, फिलहाल तो ये सिर्फ़ दो अदालतों में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में शुरू की जा रही हैं, जिनका परिणाम देखने के बाद इन्हें आगे भी बह्दय जाएगा। ये शाम की अदालतें पाँच बजे से लेकर आठ बजे तक चलेंगी।
जहाँ तक इनमें मुकदमों की सुनवाई की बात है , जैसे की भाई दिनेस जी अपने चिट्ठे तीसरा खम्भा में भी जिक्र कर चुके हैं की आज किसी भी अदालत के लिए लोन वाले चैक बाउंसिंग के मुक़दमे की बढ़ती तादाद ही सबसे बड़ी चुनौते बनी हुई है, सो निर्णय ये किया गया है की सबसे पहले इनसे ही निपटा जाए। इसलिए इन सांध्यकालीन अदालतों में १३८ नेगोसिअबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट के तहत आने वाले मुकदमों का निपटारा किया जागेगा। चैक की राशि के हिसाब से अलग अलग अदालतों में इनकी सुनवाई की जायेगी। विदित हो की सबसे ज्यादा मुक़दमे , विभिन्न बैंकों, और लोन प्रदाता कम्पनियों के हैं और इनके लिए भी विशेष व्यवस्था करते हुए इनकी सुनवाई अलग कर दी गयी है, ताकि एक आम आदमी को इनके बीच न पिसना पड़े।
इन सांध्यकालीन अदालतों का दूसरा फैयदा ये होगा की जो लोग दिन में अपने काम काज की वजह से अदालत नहीं पहुँच पाते हैं , उनके लिए ये आसान हो जायेगा की अपना काम निपटने के बाद वे अदालत की तारीख भी भुगत सकेंगे। ये ऐतिहासिक कदम अदालत के और लोगों के कितने काम आत्येगा ये तो भविष्य की बात है , किंतु इतना जरूर है की इन उपायों से ये तो लगता है की अदालतें भी अपनी जिम्मेदारी को बखूबी समझते हुए सारे उपाय करने को प्रत्बध हैं.
रविवार, 9 नवंबर 2008
अब अदालतें भी चलेंगी डे एंड नाईट
एक आम आदमी ..........जिसकी कोशिश है कि ...इंसान बना जाए
शनिवार, 8 नवंबर 2008
वकालत : गरिमा खोता एक विशिष्ट पेशा
पिछले दिनों वकालत से जुडी कुछ घटनाएं एक के बाद एक ऐसी घटती चली गयी, की उन्होंने मुझे मजबूर कर दिया की मैं सोंचू की आख़िर कभी समाज का अगुवा बना एक विशिष्ट और प्रबुद्ध वर्ग में आख़िर ऐसा क्या आ गया की आज स्थिति ऐसी बन गयी है, और तो और राजधानी की अदालतों में पिछले कुछ महिनू में नकली वकीलों की घटना ने तो सकते में डाल दिया है ।
* छपे हुए आलेख को पढने के लिए उस पर क्लिक करें.
एक आम आदमी ..........जिसकी कोशिश है कि ...इंसान बना जाए
बुधवार, 5 नवंबर 2008
तलक लेने से पहले -भाग १
कहते हैं की वैवाहिक जोड़ी का निर्णय स्वर्ग में होता है और ये गठबंधन एक या दो नहीं बल्कि सात जन्मों का होता है, लेकिन बदलते सामजिक परिवेश में पारिवारिक और नैतिक मूल्यों के पतन न परिस्थिति को बहुत बदल दिया है। अब जहाँ विवाह भी विज्ञापन आधारित प्रस्तावों में से मनोनुकूल चयन बनकर रह गया है तो वहीं तलक उस तथाकथित सात जन्मों के गठबंधन से पलभर में मुक्ति का माध्यम बनकर रह गया है। आज हालत ऐसे हो गए हैं की कभी पश्चिमी सभ्यता के सामाजिक जीवन की साधारण प्रक्रिया समझा जाने वाला तलाक अब भारितीय समाज विशेषकर शहरी समाज में भी बहुत बढ़ रहा है.देश भर में तलाक की बढ़ती घटनाओं के कारण अदालतों में इतने मुकदमें लंबित हो गए हैं की इनके लिए विशेष पारिवारिक अदालतों का घतःन किया गया है। ज्ञात हो की जहाँ ऐसी अदालतें नहीं हैं वहां जिला एवं सत्र न्यायालय की अदालत ही ऐसे मुकदमें देखती है। एक आम व्यक्ति , पुरूष या महिला , ,यदि तलाक लेने का निर्णय ले ही चुके हैं तो उसे किन किन बातों का ध्यान रखना चाहिए, किन किन बातों के लिए तैयार रहना चाहिए इस अंक में बताने का प्रयास करूंगा।
सबसे पहले आपको ये बता दें की पारिवारिक अदालतें मुख्यतया किन मुकदमों को देखती सुनती हैं। हिंदू , मुस्लिम तथा अन्य सभी धर्मों के व्यक्तियों के तलाक संबन्धी मामले, द्द्म्पत्य आधिकारों की पुनर्स्थापना, तथा तलाक की याचिका के साथ लगे भरण-पोषण या निर्वाह संबन्धी दावे का निपटारा । इसके अलावा अन्य विवाद जैसे संतानों की अधिकारिता, संपत्ति पर हक़, आदि हेतु अन्य दीवानी अदालतों ,में अर्जी दाखिल की जाती है। एक सबसे महतवपूर्ण बात ये की भार्तिये समाज में परिवार के टूटते- बंधन तथा तलाक की बढ़ती घटनाओं से चिंतित अदालतों ने भी इस परिप्रेक्ष्य में एक अनिवार्य नियम अपना लिया है। किसी भी तलाक अर्जी की सुनवाई से पहले अदालतें अपनी और से दोनों पक्षों में सुलह की कोशिश करती हैं। राजधानी समेत कई स्थानों पर तो इसके लिए बाकायदा मध्यस्थता केन्द्र बनाये गए हैं।
यदि सुलह सफाई के सारे प्रयासों के बाद भी स्थिति वही की वही रहती है तो बेहतर तो यही होता है की हिंदू विवाह अधिनियम १९५५ के प्रावधानों के तहत दोनों पक्ष आपसी सहमती से तलाक अर्जी के माध्यम से ही तलाक लेने का प्रयास करें। हालाँकि ये सच है की पारिवारिक जीवन में दाम्पत्य रिश्तों के अन्दर जब दूरियां और कड़वाहट बढ़ जाती है तो फ़िर किसी भी संयक्त प्रयास की गुंजाईश कम रहती है किंतु समय और पैसे की बचत के दृष्टिकोण से आपसी सहमती से तलाक अर्जी के माध्यम से ही तलाक लेना जरूरी रहता है। इसके लिए सबसे पहली जरूरी बात ये की दोनों पक्षों में से किसी एक पक्ष का निवास स्थान वहां होना चाहिए जहाँ अदालत की अधिकारिती होती है। आपसी सहमती तलाक अर्जी के लिए दोनों पक्षों को एक साथ बैठ कर संयुक्त याचिका तैयार करनी चाहिए। इसमें दोनों का सम्पूर्ण विवरण, वैवाहिक जानकारी , यदि बच्चे है तो उनके बाबत सारे बातें, भरण-पोषण की बाबत खर्चे की रकम का ब्योरा, एकमुश्त या किस्तों में आदि सब कुछ सिलसिलेवार ढंग से लिहना होता है। सामान्यतया हिंदू विवाह अधिनियम के धारा १३ (१) (अ) एवं १३ (१) (बी) के तहत दो याचिकाएं दाखिल की जाती हैं किंतु दोनों याचिकाओं के बीच कम से कम छ माह का अन्तर होना आवश्यक है।
क्रमश..........
सबसे पहले आपको ये बता दें की पारिवारिक अदालतें मुख्यतया किन मुकदमों को देखती सुनती हैं। हिंदू , मुस्लिम तथा अन्य सभी धर्मों के व्यक्तियों के तलाक संबन्धी मामले, द्द्म्पत्य आधिकारों की पुनर्स्थापना, तथा तलाक की याचिका के साथ लगे भरण-पोषण या निर्वाह संबन्धी दावे का निपटारा । इसके अलावा अन्य विवाद जैसे संतानों की अधिकारिता, संपत्ति पर हक़, आदि हेतु अन्य दीवानी अदालतों ,में अर्जी दाखिल की जाती है। एक सबसे महतवपूर्ण बात ये की भार्तिये समाज में परिवार के टूटते- बंधन तथा तलाक की बढ़ती घटनाओं से चिंतित अदालतों ने भी इस परिप्रेक्ष्य में एक अनिवार्य नियम अपना लिया है। किसी भी तलाक अर्जी की सुनवाई से पहले अदालतें अपनी और से दोनों पक्षों में सुलह की कोशिश करती हैं। राजधानी समेत कई स्थानों पर तो इसके लिए बाकायदा मध्यस्थता केन्द्र बनाये गए हैं।
यदि सुलह सफाई के सारे प्रयासों के बाद भी स्थिति वही की वही रहती है तो बेहतर तो यही होता है की हिंदू विवाह अधिनियम १९५५ के प्रावधानों के तहत दोनों पक्ष आपसी सहमती से तलाक अर्जी के माध्यम से ही तलाक लेने का प्रयास करें। हालाँकि ये सच है की पारिवारिक जीवन में दाम्पत्य रिश्तों के अन्दर जब दूरियां और कड़वाहट बढ़ जाती है तो फ़िर किसी भी संयक्त प्रयास की गुंजाईश कम रहती है किंतु समय और पैसे की बचत के दृष्टिकोण से आपसी सहमती से तलाक अर्जी के माध्यम से ही तलाक लेना जरूरी रहता है। इसके लिए सबसे पहली जरूरी बात ये की दोनों पक्षों में से किसी एक पक्ष का निवास स्थान वहां होना चाहिए जहाँ अदालत की अधिकारिती होती है। आपसी सहमती तलाक अर्जी के लिए दोनों पक्षों को एक साथ बैठ कर संयुक्त याचिका तैयार करनी चाहिए। इसमें दोनों का सम्पूर्ण विवरण, वैवाहिक जानकारी , यदि बच्चे है तो उनके बाबत सारे बातें, भरण-पोषण की बाबत खर्चे की रकम का ब्योरा, एकमुश्त या किस्तों में आदि सब कुछ सिलसिलेवार ढंग से लिहना होता है। सामान्यतया हिंदू विवाह अधिनियम के धारा १३ (१) (अ) एवं १३ (१) (बी) के तहत दो याचिकाएं दाखिल की जाती हैं किंतु दोनों याचिकाओं के बीच कम से कम छ माह का अन्तर होना आवश्यक है।
क्रमश..........
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