रविवार, 8 सितंबर 2013

दिल्ली की जिला अदालत ने सुनाया हिंदी भाषा में पहला निर्णय






अब से लगभग चार या पांच वर्ष पहले ,  जिला अदालत में हिंदी के उपयोग , उसके प्रचार और प्रोत्साहन के लिए एक मुख्य केंद्रीय क्रियान्वयन समिति बनाई गई । इसने अपने स्तर से बहुत सारे अनेक कार्य ऐसे किए जो नि:संदेह ही तारीफ़ के काबिल थे , जिनमें से एक थी जिला अदालत की साइट को हिंदी में बनाना । वर्ष में दो तीन बार स्वतंत्रता दिवस , तथा अन्य ऐसे ही मौकों पर कवि सम्मेलन आदि का आयोजन ,  न्यायिक अधिकारियों की मासिक पत्रिका "अभिव्यक्ति" का हिंदी में प्रकाशन आदि अनेक छोटे बडे प्रयास किए गए जिसने धीरे धीरे ही सही मगर दिल्ली की जिला अदालतों में हिंदी की शुरूआत तो कर ही । सभी परिपत्र एवं अन्य पत्राचार में भी हिंदी ने दखल देना प्रारंभ कर दिया । 
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किंतु इस सबके बावजूद और बावजूद इसके कि कभी कभार एक आध याचिका या किसी याचिका का उत्तर हिंदी में दायर हुआ , कभी भी आमजनों के लिए कोई बडा ऐसा काम नहीं हुआ जिसके लिए ये कहा जा सके कि जिला अदालत द्वारा हिंदी में किया गया ये कार्य आम जनता के लिए काफ़ी उपयोगी साबित हुआ है । सभी जिला अदालतों में हिंदी में कार्य के संचालन की देख रेख के लिए एक एक कर्मचारी की नियुक्ति की नीति के तहत मुझे पूर्वी एवं उत्तर पूर्वी अदालत की जिम्मेदारी दी गई , किंतु वो भी एक अतिरिक्त प्रभार के रूप में , ज़ाहिर तौर पर ये किसी खानापूर्ति जैसा था । पिछले दो सालों में न तो मुझे कोई कार्य सौंपा गया न ही मेरे द्वारा दिए गए या भेजे गए सुझावों पर कभी ध्यान दिया गया । और तो और मेरे अथक प्रयासों के बाद भी मुझे अपने कंप्यूटर पर हिंदी स्थापित करने में भी घोर उदासीनता दिखाई दी । मेरी नियुक्ति इन दिनों  " सत्र न्यायालय ज़मानत विभाग " में है जहां फ़ुर्सत के नाम पर कभी एक ग्लास पानी और चाय पीने का समय मिल जाए तो बहुत है , वाली स्थिति है । 
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ऐसे समय में मुझे बुलावा आया जिला अदालत के पारिवारिक अदालत के न्यायाधीश महोदय का , यहां मैं ये एक दिलचस्प बात बता दूं कि न्यायाधीश महोदय , जिनका नाम श्री ए.एस जयचंद्रा है , मूलत: दक्षिण भारतीय हैं , उन्होंने अपने कक्ष में मुझे बुलाकर कहा , आप वही हैं न जो पत्र पत्रिकाओं के लिए आलेख वैगेरह भी लिखते हैं । मैंने हामी भर दी । उन्होंने अपने एक निर्णय की प्रति जो अंग्रेजी में टंकित थी एवं उसका एक कच्चा पक्का सा अनुवाद या ड्राफ़्ट जो हिंदी भाषा में हस्तलिखित था मेरे हाथों में पकडाते हुए कहा । इस पर नज़र डाल कर बताएं कि इसमें क्या और कितना दोष है । मैंने सरसरी तौर पर देख कर बताया कि इसमें सुधार की काफ़ी गुंजाईश है । चूंकि ये पत्र या कोई परिपत्र नहीं था बल्कि एक न्यायिक निर्णय था इसलिए मैंने बिना जल्दबाज़ी के कार्य करते हुए उनसे चौबीस घंटे का समय लिया । न्यायाधीश महोदय ने मुझे ताकीद की , कि मैं इसमें प्रचलित उर्दू शब्दों , जैसे तलाक , सुपुर्द , फ़ैसला , आदि के विकल्प के रूप में हिंदी के शब्द या संस्कृत के शब्द का प्रयोग करूं । और दूसरी बात ये कि , ये अंग्रेजी निर्णय का सीधे सीधे अनुवाद न हो बल्कि ये सरल भाषा में लिखा गया एक न्यायिक निर्णय हो ।  
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मैंने अंग्रेजी भाषा में लिखे ड्राफ़्ट को ध्यानपूर्वक पढा और हिंदी भाषा में लिखे उनके ड्राफ़्ट को भी ।मामला एक हिंदू युगल दंपत्ति के वैवाहिक विच्छेद का था जो अपनी आपसी सहमति से इस निर्णय पर पहुंचे थे । इस युगल दंपत्ति की दो संतान भी थीं । आदेश में दोनों पक्षों के बयान , उपलब्ध तथ्यों के आधार पर , हिंदू विवाह अधिनियम के अनुच्छेद 13 ब (1) के तहत विवाह विच्छेद को विधिक मान्यता दे दी गई ।  घर पहुंचा तो कंप्यूटर महाशय बीमार पड चुके थे । चूंकि मैं उस निर्णय को अगले दिन उन्हें सौपने का आश्वासन दे चुका था और इसी कारण से उस मुकदमे का निर्णय अगले दिन तक के लिए टाल दिया गया था , इसलिए जैसे तैसे करके मैंने उसे टाइप करके उसका प्रिंट लेकर अगले दिन न्यायाधीश महोदय के सामने प्रस्तुत कर दिया ।


उस दिन यानि 07/09/2013, को न्यायाधीश महोदय के हस्ताक्षर होने के बाद , ये दिन और ये निर्णय दिल्ली जिला अदालत के इतिहास का एक नया अध्याय बन गया जब हिंदी ने आधिकारिक रूप से न्यायिक कार्यवाही में दखल दे दी । अब उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में इस पहल को आगे भी एक राह मिलेगी और हिंदी को एक मुकाम । 

24 टिप्‍पणियां:

  1. आप को बधाई हो। एक ऐतिहासिक घटना का हिस्सा बनने के लिए।

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  2. आपको बधाई। न्यायाधीश महोदय श्री ए.एस जयचंद्रा जी का आभार। ब्लॉगिंग का प्रतिफल मिला।..वाह!

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  3. बधाई.संस्कृत वाला आग्रह क्यों था,यदि कुछ प्रकाश डाल सकें।

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    1. सर उसकी एक वजह तो मैं शायद यहां न बता सकूं मगर उनका मानना था कि यदि हमें हिंदी का ही प्रयोग करना है तो फ़िर उर्दू फ़ारसी या जो भी शब्द सीधे मुगल शासन से अंग्रेजी राज में अनुवादित हो गए , क्यों न उनका भी चलन कम करके हिंदी को ही बढावा दिया जाए ।

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  4. बधाई आपको - दक्षिण भारत के लोगों को संस्कृत प्रभावयुक्त भाषा का प्रयोग उर्दू-फ़ारसी के
    शब्द-प्रयोग से अधिक स्वाभाविक लगता है ,उनकी अपनी भाषाओं की भी यही प्रवृत्ति है .

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    1. हां ये भी एक कारण हो सकता है प्रतिभा जी । प्रतिक्रिया देने के लिए आभार और शुक्रिया

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  5. बधाई अजय ..
    आपकी इस मेहनत से आगे का रास्ता साफ़ हो गया !

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  6. इलाहाबाद उच्च न्यायलय मेंकई निर्णय हिंदी में आ चुके है, अजय भाई को बहुत बहुत बधाई..

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    1. हां प्रमेंद्र भाई ये खबर हमने भी पढी थी और पढ कर छाती गर्व से चौडी हो गई थी

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  7. आप ढेर सारी बधाई आप के इन प्रयासों का ...जन-सामान्य सदैव ऋणी रहेगा ......

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  8. बहुत बहुत वधाई ! बहुत पहले इस सन्दर्भ में कुछ लिखा था डायरी में ...उद्दृत कर रहा हूँ
    तिरोहित हो चुके या कर दिए गये अन्य सांस्कृतिक सूत्रों के विकल्प में हिंदी का राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठा का आश्वासन, एक ऐसा सूत्र था जो इस देश को एक राष्ट्र के रूप में एकजुट रखने में समर्थ और सक्षम था . कम से कम सांस्कृतिक रूप में.
    लेकिन ...उनके छल-बल ???

    भारत के सन्दर्भ में ठीक ही तो कहा था स्पेन के आक्टेवियो पाज़ नें
    “यहाँ आकर मैंने पाया कि अधिकतर राजनीतिज्ञ अबौद्धिक हैं और अधिकतर बुद्धिजीवी राजनेताओं के दास हैं...

    जम्मू-कश्मीर या फिर किसी भी अहिन्दी-भाषी क्षेत्र में हिंदी की स्थिति को लेकर जब प्रश्न उठते है तो मन में निराशा सी छाने लगती है . लगता है, शायद हमीं बे-वकूफ थे जो हिंदी से चिपके रहे .

    क्या स्थिति है हिंदी की ?
    हिंदी तो प्रादेशिक भाषाओं की तुलना में भी गौण कर दी गई है. आप कश्मीर जाइए, हर कहीं किसी भी दुकान और दफ्तर का बोर्ड उर्दू में है . पंजाब में प्रवेश करिये तो सब पंजाबी या अंग्रेजी में लिखा मिलेगा . गुजरात या महाराष्ट्र जाइए, गुजरात में गुजराती और महाराष्ट्र में मराठी... कुल मिलाकर अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी, किसी व्यवहार में कहीं नहीं मिलेगी .

    यह समझना भ्रामक होगा कि इन पंक्तियों का लेखक, क्षेत्रीय भाषाओं या अंग्रेजी के विरोध में है . ऐसा बिलकुल भी नहीं है. इस लेखक का विरोध हिंदी की उपेक्षा को लेकर है, जो कि संविधान के अनुसार इस देश की राष्ट्र-भाषा है .

    विश्व में शायद यह अकेली ऐसी राष्ट्र-भाषा है जिसके साथ देश के प्रथम स्वतन्त्रता दिवस से लेकर आज तक, अपने ही देश में, तीसरे चौथे दर्जे का व्यवहार किया गया है . यहाँ तक कि संसद, जो स्वयम को इस देश के संविधान की जामिन कहती और कहलवाना पसंद करती है वहां भी हिंदी की घोर उपेक्षा है ?

    विवश हो जाना पडा था, अहिन्दी भाषी क्षेत्र के इस अदना से कवि को, एक हिंदी-दिवस पर यह सब लिखने के लिए... स्थिति आज भी कुछ बेहतर नहीं है ...


    पूछा कमाल पाशा ने,

    “लगेगा कितना समय
    तुर्की के राष्ट्र-भाषा बनने में ?”

    “दस बरस कम से कम”—
    कहा विशेषज्ञों नें...

    “तो समझ लो
    बीत चुके दस बरस
    तुर्की इस देश की राष्ट्र-भाषा है,
    ठीक इसी पल से”

    पर अफ़सोस ! ओ हिंदी !
    बीते इतने बरस ..और तुम्हें
    एक कमाल पाशा भी न मिला ..?

    शायद हम दौड़ते रहे हैं
    सिर के बल
    और पैरों की गिट्टियों में सोचते रहे
    कि बनी रही तू
    चिर-उपेक्षित परित्यक्ता सी
    अपने ही देश में ...

    ओ हिंदी ! मेरी राष्ट्र-भाषा
    आखिर क्या है खोट तुझमें
    कि हम मनाते हैं हिंदी दिवस
    जैसे पितृपक्ष में कोई श्राद्ध...!
    ***
    तो क्या...कवि किसी अधिनायकवाद का समर्थन कर रहा है ?
    जी नहीं ! वह केवल अपने लोक-तन्त्र से एक तीखा सा प्रश्न पूछ रहा है.
    ***


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    1. प्रतिक्रिया के आपका आभार श्याम जी । आपने वस्तुस्थिति को सामने रख दिया

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  10. पढ़कर बहुत लगा, आपने बहुत अच्छा लिखा और सही इंगित किया है कि उतर भारतीय की अपेक्षा दक्षिण भारतीय इस और अधिक प्रयास रत दिखते हैं. आप इस दिशा में बढ़ाये कदम में सहयक एवं साक्षी हैं, बधाई

    शुभकामनायें

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  11. एक ऐतिहासिक घटना में भागीदारी के लिए बधाई ! शायद इससे न्यायालयों में फैसले देने में हिंदी की स्वीकार्यता बढे .

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