बुधवार, 13 जून 2012

न्याय होना ही नहीं , होते हुए महसूस होना चाहिए




कई दिनों से इस ब्लॉग पर पोस्ट नहीं आई थी , और मेरे बहुत चाहने के बावजूद भी मैं इस पर कोई पोस्ट अपडेट नहीं कर पा रहा था बावजूद इसके कि बिना नियमित लिखने के भी इस ब्लॉग पर हमेशा ही पाठकों की संख्या ज्यादा रहती है , मैं कोताही बरत जाता हूं , खैर तो जब  ब्लॉग बुलेटिन पर युवा ब्लॉगर अनुज शेखर सुमन ने से प्रश्न उठाया , और अपनी पोस्ट में भी इसे सामने रखा ,और वहां टिप्पणी  स्वरूप उन्हें जो विधि से जुडे हुए हों से कुछ कहने की अपेक्षा हुई तो मुझे लगा कि अब इस मुद्दे पर अपनी बात रखनी चाहिए । चूंकि बात विस्तार से लिखने वाली थी इसलिए पोस्ट पर ही कही जा सकती थी


ये है वो खबर जिस पर प्रतिक्रियास्वरूप ये बहस उठाई गई है






इस फ़ैसले और उसके निहितार्थ पर बहस करने से पहले कुछ तथ्यों को जान लेना समीचीन होगा शायद ।अभी कुछ समय पहले माननीय उच्च न्यायालय ने ऐसे ही एक मुकदमे का निपटारा करते हुए एक तेरह चौदह वर्षीय बालिका के प्रेम विवाह को उचित ठहराया था । और गौरतलब बात ये है कि उस समय भी उठे ऐसे ही प्रश्नों और शंकाओं  को दरकिनार करने के लिए विस्तारपूर्वक वो कारण बताए थे न्यायिक फ़ैसले ने जिनके द्वारा ये सिद्ध किया गया था कि उक्त वाद में ,शहरी वो भी राजधानी के शहरी समाज की एक उन्नत और आधुनिक परिवार की न सिर्फ़ शिक्षित बल्कि मानसिक रूप से और शारीरिक रूप में भी सक्षम बालिका थी । इसीलिए अदालत ने माना कि सुदूर गांव में रहने वाली और वहां  के परिवेश के अनुरूप ऐसा न हो किंतु राजधानी के परिवेश में पलीबढी एक बालिका इतनी तो सक्षम है ही कि अपना भला बुरा सोच समझ सके और इसीलिए , बस इन्हीं विशेष कारणों से उस विवाह को वैध ठहराया गया था ।


दूसरी और बडी दलील ये थी कि , यदि आरोपी को , इस अपराध की दंडात्मक सजा ही सुनाई जाए तो फ़िर भी पीडिता जो कि अब उसके साथ अपना जीवन बिताने को तैयार है एवं इसके लिए ही खुद ही प्रार्थना कर रही हो तो भारतीय दंड विधान के दंडात्मक चरित्र के अलग जाकर इस तरह के फ़ैसले दिए जाना एक स्वागत योग्य कदम है ।अब कुछ खास बात इस खबर पर , मेरे ख्याल से न्यायालीय आदेशों की रिपोर्टिंग करने वाले खबरनवीसों को ज्यादा समझदार और ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए । ऊपर छपी खबर का शीर्षक होना चाहिए था "अदालत ने नाबालिग के विवाह को वैध ठहराया " आशय स्पष्ट कि , एक विवाह जिसमें कोई एक पक्ष नाबालिग था या थी , उसे अदालत ने अपने फ़ैसले से वैध ठहराया है । इस शीर्षक का निहितार्थ ये निकल रहा है मानो अदालत ने मुस्लिम बालिकाओं के लिए पंद्रह वर्ष की वैवाहिक आयु को सही माना है । कितना बडा अंतर आ जाता है प्रस्तुतिकरण और रिपोर्टिंग से इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है । खबर से स्पष्ट है कि पीडित युवती ने ही खुद इस बाबत प्रार्थना की थी और अदालत ने न्याय होने ही नहीं न्याय महसूस होने के सिद्धांत पर चलते हुए ये फ़ैसला सुनाया । 


अभी कुछ समय पूर्व इसी तरह एक फ़ैसले में आए विचारों को लेकर खूब बहस हुई थी और इसमें भी अदालती आदेशों की समाचारीय रिपोर्टिंग ने पाठकों और आम लोगों के सामने ,मामले को कुछ और ही बना कर या बिल्कुल ठीक ठीक नहीं  रखा था ।

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी पोस्ट कल 14/6/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा - 902 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  2. न्यूज मीडिया और अखबार कई बार ऐसे शीर्षक यहां तक की मैटर को भी ऐसे पेश करते हैं कि कुछ का कुछ संदेश पहुंचता है।

    प्रणाम

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  3. अदालतें कई फैसले परिस्थितियों अनुसार ही लेती हैं.पर आपका कहना सही हैं कि मीडिया ही कई बार इन्हें गलत तरीके से पेश करता हैं मानो आगे भी हर मामले में फैसला यही होगा.अब अदालतें खुद तो अपना पक्ष रखने आ नहीं सकती.आपको याद होगा अभी कुछ समय मुंबई हाईकोर्ट के एक फैसले में एक पत्नी की तलाक की अर्जी ये कहकर खारिज कर दी गई कि उसे अपने पति के साथ विदेश रहने जाना चाहिए सीता भी तो राम के साथ वन में गई थी जबकि वह महिला नहीं जाना चाहती थी.लेकिन ध्यान देने वाली बात ये हैं कि इन्हीं जज महोदय ने इससे पहले एक मामले में एक पति की तलाक की माँग भी यह कहते हुए खारिज कर दी थी की पत्नी कोई गुलाम नहीं होती साथ ही कोर्ट ने पत्नी के रोजमर्रा के काम में लापरवाह होने या गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करने के लिए दबाव डालने अथवा गरीबी जैसे किसी कारण से बच्चा पैदा नहीं करने के फैसले को भी मानसिक क्रूरता मानने से इंकार कर दिया.और कहा इन आधारों पर यदि तलाक दिया जाएगा तो कोई शादी बच ही नहीं पाएगी.जाहिर सी बात हैं कि दोनों ही मामलों में अदालत का जोर विवाह को बचाने के लिए था लेकिन मीडिया ने पहले वाले मामले की इस तरह आलोचना की मानो पत्नी को पति का गुलाम बताया जा रहा हैं जबकि मुझे लगता हैं इस आधार पर कोई पति भी तलाक माँग रहा होता तो उसकी अर्जी भी खारिज कर दी जाती.

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  4. संतोष त्रिवेदी ने आपकी पोस्ट " न्याय होना ही नहीं , होते हुए महसूस होना चाहिए " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    मैं समझता हूँ कि कानून केवल दस्तावेजी चीज़ नहीं किसी जिंदगी को बनाने,बिगाड़ने में अहम रोल रखता है.कुछ चीज़ें केवल संवेदना और वास्तविक धरातल पर भी पारखी जाती हैं.यह फैसला ठीक नहीं लगता !
    बच्चे को ज्ञान होना और समझ होना दोनों अलग बातें हैं !

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  5. "कुछ चीज़ें केवल संवेदना और वास्तविक धरातल पर भी पारखी जाती हैं"

    हा हा हा माट साब आपे दुन्नो बात बोल गए जी । गौर से देखिए इसमें संवेदना आ वास्तविकता को ही तो परखा गया है तभी तो पारंपरिक दस्तावेज़ी प्रावधान से अलग सोचा और निर्णय दिया गया है , और हां बच्चे के ज्ञान और समझ के साथ ही उसका जीवन भी जरूरी है । अदालत ने उसके भविष्य को ही ध्यान में रखा है इस फ़ैसले में । सोच के देखिए कि अदालत के इस फ़ैसले से विपरीत जाकर दोषी को सज़ा सुनाने से उस बालिका का क्या जीवन और भविष्य होता , कम से कम मौजूदा परिस्थितियों में तो जरूर ही

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