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गूगल एवं मूल साईट grahamriley.co.uk से साभार |
आजकल मोटर वाहन दुर्घटना पंचाट में नियुक्ति है इसलिए जब उन मुकदमों की सुनवाई के समय कुछ ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं जिन्हें देख कर एक आम आदमी के मन की भावनाएं उबलने लगती हैं । महानगरों में बढती सडक दुर्घटनाओं की रफ़्तार अब किसी से छुपी नहीं और ये इसके बावजूद लगातार बढती जा रही है कि यातायात व्यवस्था और परिवहन साधनों के स्तर और परिचालन में लगातार सुधार हो रहा है । किंतु शराब पीकर गाडी चलाना , जानबूझ कर लापरवाही और गलत ढंग से गाडी चलाना आदि जैसे कारणों की वजह से दुर्घटनाओं की दर में कमी नहीं आ पा रही है । सरकार पीडितों को मुआवजा दिलाने के लिए भरपूर कोशिश सी करती जताती है खुद को , लेकिन कुछ घटनाएं इसे जरूर संदेह के घेरे में डालती हैं । पहले आप खुद इन तथ्यों को देखिए ..
राज्य सरकार अपने अधीन चल रहे किसी भी वाहन का बीमा नहीं करवाती है ।
यहां तक कि दिल्ली पुलिस के अधीन चल रही पी सी आर गाडियां भी बीमामुक्त होती हैं ।
इतना ही नहीं , दिल्ली नगर निगम , दिल्ली जल बोर्ड , आदि जैसे निकायों में उपयोग में लाई जाने वाली गाडियों तक बीमा नहीं करवाया जाता है ।
न सिर्फ़ दिल्ली राज्य सरकार बल्कि ऐसी ही चतुराई हर सरकार करती है । जी हां , ये चतुराई ही कही जाएगी । दरअसल इसके पीछे दलील ये दी जाती है कि इन तमाम वाहनों से होने वाली दुर्घटनाओं की पूरी जिम्मेदारी लेते हुए राज्य सरकार पीडितों और मृतकों के आश्रितों को मुआवजे की रकम खुद दे देगी । असलियत में होता क्या है इससे पहले दो बातें और । एक आम आदमी द्वारा बिना बीमा करवाए हुए वाहन को सडक पर चलाना कानूनन जुर्म है किंतु सरकार खुद अपने इस जुर्म को कानूनी जामा पहना कर सही साबित करती है । यदि मोटर वाहन बनाने वाली कंपनियां जैसे टाटा , हिंदुस्तान मोटर्स आदि भी कल को यही दलील दें कि वो अपनी किसी भी गाडी का बीमा नहीं करवाएंगे और उनसे होने वाली दुर्घटनाओं का मुआवजा खुद देंगी तो क्या सरकार उसकी अनुमति दे देगी । कदापि नहीं , असल में बीमा का बाज़ार इतना बडा और इतने अधिक मुनाफ़े वाला है कि , आज भारत में कम से कम चालीस कंपनियां इस क्षेत्र में हैं ।
अब बात इन सारे संदर्भों के पीछे छिपे घिनौने सच की । सरकार जिस जिम्मेदारी का दंभ भरते हुए बिना बीमा कराए जिस बेशर्मी से अपने वाहनों को सडकों पर दौडाती है वो मुआवजे के वादों में उतनी ही ज्यादा गैरजिम्मेदार और असंवेदनशील रवैय्या अख्तियार करती है । हालात तो ये हैं कि दिल्ली में दुर्घटना में लिप्त उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की बसों के खिलाफ़ मुआवजे के आदेश के पालन के लिए अदालतों को उनकी संपत्ति कुर्क करके मुआवजे की रकम जमा करवाने तक का आदेश तक देना पडता है । दिल्ली सरकार के , दिल्ली पुलिस के तमाम मोटर वाहन दुर्घटना के वादों में उनका रवैय्या अक्सर मुकदमे को लटकाए रखने का होता है । हालात इतने बदतर हैं कि पिछले दिनों एक मुकदमे के दौरान एक प्रतिवादी ने , जिसने कि शायद पीसीआर वाहन में टक्कर मार दी थी , वो समझौते से मुआवजे वाद को समाप्त करना चाहता था किंतु इसलिए फ़ैसला नहीं हो पा रहा है क्योंकि दिल्ली पुलिस को ये ही नहीं पता कि उनका कौन सा अधिकारी इस अधिकार से प्रदत्त है कि वो वादी की तरफ़ से समझौता कर सके और इसके लिए दिल्ली पुलिस ने राज्य सरकार से पूछा है ।
यानि कुल मिलाकर ये स्थिति न सिर्फ़ अफ़सोसजनक है बल्कि एक तरह से सरकार द्वारा किया जा गुनाह है । एक आम पीडित जब देखता है कि सरकारी संस्थाएं खुद ही इस गुनाह में लिप्त हैं तो उसकी निराशा उसके क्रोध में बदल जाती है । समय आ गया है जब सरकार पर ये दबाव डाला जाना चाहिए कि वो अपनी जिम्मेदारियों से बचने के रास्तों पर चलना छोड दे ।
वाह.. जी सच मै मेरा देश महान हे!! बिना बीमे के गाडी को नाओ पलेट कैसे मिल जाती हे? यानि सारा सिस्टम ही गलत हे, फ़िर दुर्घटना होने पर ग्रस्त व्यक्ति को जल्द से जल्द मुआबजा मिलना चाहिये,
जवाब देंहटाएंशराब पी कर, बिना लाईसेंस,के वाहन चलाने वाले को उम्र केद , ओर उम्र भर के लिये फ़िर लाईसेंस ना बनवाने का कानून होना चाहिये, क्योकि बिना लाईसेंस या शराब पी कर वाहन चलाना हत्या करने से भी बडा अपराध हे, यह लोग कितनो को मार सकते हे, युरोप मे एक भारतिया लाईसेंस देने वाले अधिकारी को भी लाईसेंस मिलना बहुत कठिन हे, क्योकि जो बाते भारत मे सीखाई जाती हे सब उलट हे, गलत हे....
दुर्घटनाग्रस्त को मुआवजा तो निश्चय ही मिलना चाहिये पर हालत ये है कि प्राइवेट कंपनियों की एक मात्र कोशिश रहती है कि मुआवज़ा कैसे मना किया जा सकता है. और सरकारी कंपनियों के ख़िलाफ़ जो अनाप-शनाम कोर्ट-आर्डर जिस तरह पास होते हैं वे भी किसी से छुपा नहीं हैं. क्लेम में भ्रष्टाचार दोनों ही जगह एक से बढ़ कर एक है.
जवाब देंहटाएंपहले भी सभी बड़े घराने अपनी-अपनी इंश्योरेंस कंपनियां रखते थे और सभी तरह के अपने नकली क्लेम खुद पास कर लेते थे, इस बीच आम लोगों का पैसा इस तरह इनकी जेब में चला जाता था. जब हद हो जाती थी तो ये इन कंपनियों का दिवाला निकाल कर नई कंपनियां बना लेते थे... फिर वही धंधा चालू.
1972 में इन्हीं धंधों के चलते दुखी होकर सरकार को इस क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा था लेकिन कुछ ही सालों में खुली अर्थव्यवस्था के नाम पर फिर वही खुला-खेल चालू हो गया है. इसलिए मुझे कोई हैरानी नहीं हुई प्राइवेट कंपनियों की ये दलील पढ़ कर. ये हमेशा प्रीमियम की बात करेंगी, क्लेम की बात इनके मुंह से नींद में भी नहीं निकलती. बस एक ओम्बड्समैन है कि जिसके नाम पर इनको कुछ आंख बगैहरा दिखाई जा सकती है.
विस्तार से टिप्पणी करने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया काजल भाई । आपने बिल्कुल ठीक कहा वास्तव में असली स्थिति तो यही है
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