बुधवार, 24 मार्च 2010

अदालती फ़ैसलों के निहितार्थ : लिव इन रिलेशनशिप , बलात्कार आदि के परिप्रेक्ष्य में



मैंने बहुत बार अनुभव किया है कि जब समाचार पत्रों में किसी अदालती फ़ैसले का समाचार छपता है तो आम जन में उसको लेकर बहुत तरह के विमर्श , तर्क वितर्क और बहस होती हैं जो कि स्वस्थ समाज के लिए अनिवार्य भी है और अपेक्षित भी । मगर इन सबके बीच एक बात जो बार बार कौंधती है वो ये कि अक्सर इन अदालती फ़ैसलों के जो निहातार्थ निकाले जाते हैं , जो कि जाहिर है समाचार के ऊपर ही आधारित होते हैं क्या सचमुच ही वो ऐसे होते हैं जैसे कि अदालत का मतंव्य होता है । शायद बहुत बार ऐसा नहीं होता है ।

                      कुछ अदालती फ़ैसलों को देखते हैं जो पिछले दिनों सुनाए गए । एक चौदह पंद्रह वर्ष की बालिका के विवाह को न्यायालय ने वैध ठहराया , अभी पिछले दिनों अदालत ने कहा कि बलात्कार के बहुत से मामलों में पीडिता को बलात्कारी से विवाह की इजाजत देनी चाहिए ,बलात्कार पीडिता का बयान ही मुकदमें को साबित करने के लिए पर्याप्त है , समलैंगिकता , लिव इन रिलेशनशिप आदि और भी आए अनेक फ़ैसलों के बाद आम लोगों ने उसका जो निष्कर्ष निकाल कर जिस  बहस की शुरूआत की वो बहुत ही अधूरा सा था । सबसे पहले तो तो दो बातें इस बारे में स्पष्ट करना जरूरी है । कोई भी अदालती फ़ैसला , विशेषकर माननीय उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले , जो सभी निचली अदालतों के नज़ीर के रूप में लिए जाते हैं , वे सभी फ़ैसले उस विशेष मुकदमें के लिए होते हैं और उन्हें नज़ीर के रूप में भी सिर्फ़ उन्हीं मुकदमों में लिया जा सकता है जिनमें घटनाक्रम बिल्कुल समान हो । हालांकि इसके बावजूद भी निचली अदालतें अपने सीमित कार्यक्षेत्र और अधिकारिता के कारण उन्हें तुरत फ़ुरत में अमल में  नहीं लाती हैं ।

उदाहरण के लिए जैसा कि एक मुकदमे के फ़ैसले में अदालत ने एक नाबालिग बालिका के विवाह को भी वैध ठहराया था । उस पर प्रतिक्रिया आई कि , इस तरह से तो समाज में गलत संदेश जाएगा । मगर दरअसल मामला ये था कि अदालत ने उस विशेष मुकदमें में माना था कि एक बालिका जिसका रहन सहन उच्च स्तर का है , जो आधुनिक सोच ख्याल वाले संस्कार के साथ पली बढी है , आधुनिक कौन्वेंट स्कूल में पढी है , शारीरिक मानसिक रूप से , ग्रामीण क्षेत्र की किसी भी हमउम्र बालिका से तुलना नहीं कर सकते । अब चलते हैं के अन्य फ़ैसले की ओर , बलात्कार पीडिता का विवाह बलात्कार के आरोपी के साथ कर देना चाहिए । यदि अपराध के दृष्टिकोण से देखें तो इसकी गुंजाईश रत्ती भर भी नहीं है । होना तो ये चाहिए कि बलात्कारियों को मौत और उससे भी कोई कठोर सजा दी जानी चाहिए ।

    अब हकीकत की बात करते हैं , अपने अदालती अनुभव के दौरान मैंने खुद पाया कि बलात्कार के  मुकदमें जो चल रहे थे उनमें से बहुत से मुकदमें वो थे जो कि पीडिता के पिता ने दर्ज़ कराए थे । लडका लडकी प्रेम में पडकर घर से निकल भागे , चुपके से विवाह कर लिया, बाद में पुलिस के पकडे जाने पर , माता पिता और घरवालों के दवाब पर बलात्कार का मुकदमा दर्ज़ करवा दिया जाता है । मुकदमें के दौरान ही पीडिता फ़रियाद लगाती है कि उसके होने वाले या शायद हो चुके बच्चे का पिता उसका वही प्रेमी, अब कटघरे में खडा आरोपी , और उसका पति ही है ..तो क्या फ़ैसला किया जाए । यदि कानूनी भाषा में किया जाए तो सज़ा है सिर्फ़ और सज़ा । मगर यदि मानवीय पक्षों की ओर ध्यान दिया जाए तो फ़िर ऐसे ही फ़ैसले सामने आएंगे जैसे आए ।

  ठीक इसी तरह जब फ़ैसला आया कि बलात्कार पीडिता का बयान ही काफ़ी है अपराध को साबित करने के लिए तो सबने बहस में हिस्सा लेते हुए कहना शुरू कर दिया कि तो फ़िर अन्य सबूतों की जरूरत नहीं है शायद । जबकि ऐसा कतई नहीं है । दरअसल उस खास मुकदमें में पीडिता के पास सिवाय अपने बयान के और किसी भी साक्ष्य , किसी भी गवाह को पेश न कर सकने की स्थिति थी ऐसे में अदालत ने इस आधार पर कि भारतीय समाज में अपनी इज्जत मर्यादा मान सम्मान को दांव पर लगा कर कोई भी महिला सिर्फ़ इसलिए किसी पर भी बलात्कार जैसे संगीन अपराध का आरोप नहीं लगा सकती कि उसका कोई इतर उद्देश्य है । और इसी आधार पर वो फ़ैसला दिया गया था ।

अब इस हालिया फ़ैसले को लेते हैं । अदालत ने स्पष्ट किया है कि भारतीय कानून के अनुसार भी यदि दो वयस्क पुरुष महिला अपनी सहमति से बिना विवाह किए भी एक साथ एक छत के नीचे रहते हैं तो वो किसी भी लिहाज़ से गैरकानूनी नहीं होगा । अब इसका तात्पर्य ये निकाला जा रहा है कि फ़िर तो समाज में गलत संदेश जाएगा । नहीं कदापि नहीं अदालत ने कहीं भी ये नहीं कहा है भारतीय समाज में जो वैवाहिक संस्था अभी स्थापित है उसको खत्म कर दिया जाए , या कि उससे ये बेहतर है , और ये भी नहीं कि कल को यदि उनमें से कोई भी इस लिव इन रिलेशनशिप के कारण किसी विवाद में अदालत का सहारा लेता है तो वो सिर्फ़ इसलिए ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि अदालत ने इसे वैधानिक माना हुआ है । अब ये तो खुद समाज को तय करना है कि भविष्य में लिव इन रिलेशनशिप ..वाली परंपरा हावी होने जा रही है कि समाज युगों से स्थापित अपनी उन्हीं परंपराओं को मानता रहेगा । सीधी सी बात है कि जिसका पलडा भारी होगा ...वही संचालक परंपरा संस्कृति बनेगी ।

    जब कोई फ़ैसला समाचार पत्र में , या कि समाचार चैनलों में दिखाया या पढाया जाता है वो तो एक खबर के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जो कि उनकी मजबूरी है । और यही सबसे बडा कारण बन जाता है आम लोगों द्वारा किसी अदालती फ़ैसले में छिपे न्यायिक निहितार्थ को एक आम आदमी द्वारा समझने में। इसके फ़लस्वरूप जो बहस शुरू होती है वो फ़िर ऐसी ही बनती है जैसी दिख रही है आजकल । समाचार माध्यमों को अदालती कार्यवाहियों, मुकदमों के दौरान कहे गए कथनों , और विशेषकर अदालती फ़ैसलों को आम जनता के सामने रखने में विशेष संवेदनशीलता और जागरूकता दिखाई जानी अपेक्षित है ।

11 टिप्‍पणियां:

  1. अजय भाई,
    अदालत के निर्णयों को वास्तव में समाचार पत्रों में कोई स्थान मिलता ही नहीं है। होता यह है कि किसी भी निर्णय में कोई सनसनीखेज बात तलाशी जाती है और उसे अपने संदर्भ से काट कर कुछ नमक मिर्च या सस्पेंस के साथ लिखते हुए अखबारों में स्थान मिल जाता है। फिर उस सनसनी पर लोग बहस के लिए पिल पड़ते हैं।
    अभी भी भारतीय हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी मीडिया में अदालती निर्णयों की खबरों के प्रकाशन के लिए योग्य संवाददाताओं और लेखकों का अभाव है। वास्तव में इस काम के लिए समझदार और अनुभवी विधिज्ञ की सेवाएँ ली जानी चाहिए, लेकिन सामान्य संवाददाताओं और लेखकों से काम चलाया जा रहा है। इस क्षेत्र में मीडिया की ओर से पहल की आवश्यकता है कि वे अदालती समाचारों के संकलन और लेखन के लिए इस तरह के विशेषक्ष लोगों को नियोजित करें।

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  2. जी सर बिल्कुल सौ प्रतिशत सही बात ....यही उचित तरीका है ....मगर मीडिया को इसकी अभी कोई समझ है ही नहीं लगता है ...शुक्रिया सर
    अजय कुमार झा

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  3. आपके मननशील लेख व द्विवेदी जी की सारगर्भित टिप्पणी से सहमत

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. वकील साहब ने सब कुछ कह दिया है अब पहल मीडिया हाउस वलो को करनी है कि वो वेहतर लोगो को ये काम सोपे.

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  6. एक सारगर्भित और जरुरी आलेख. आमजन वही जान पाता है जो समाचार पत्र एक समाचार के रुप में प्रस्तुत करते है. संपूर्णा विवेचना जानने का एक आमजन के पास कोई साधन नहीं होता और वह समाचार के आधार पर बहस करता है.

    पसंद आया आपका आलेख.


    रामनवमीं की अनेक मंगलकामनाएँ.
    -
    हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

    लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

    अनेक शुभकामनाएँ.

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  7. उपयोगी आलेख!
    राम-नवमी की बधाई स्वीकार करें!

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  8. दिनेस जी की बात से सहमत है जी

    आप को भी रामनवमी पर्व की शुभकामनाएँ!

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  9. द्विवेदी जी ने जो कहा वह हर क्षेत्र के लिए सही है . इस देश में विशेषज्ञ पत्रिकारिता का बहुत अभाव है .

    "दो वयस्क पुरुष महिला अपनी सहमति से बिना विवाह किए भी एक साथ एक छत के नीचे रहते हैं तो वो किसी भी लिहाज़ से गैरकानूनी नहीं होगा"
    इसे और वेश्यावृत्ति को कैसे अलग किया जाएगा तकनीकी रूप से ?

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  10. ek baat jo aapne pahli line me hi kah di ki adaalat ka faisalaa jan jan ko prabhvit kartaa hai

    isliye faislaa dene ke pahle kai pahlu soche jaate hain

    hindu vivaah adhiniyam ki dhajjiyan live in relation ke jariye bikherane ki pahal hai

    vaise rakhail rakhne ki baat biti baaten nahin chahe mahila rakhail ho chaahe purush

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  11. G M Rajesh ji kee baat se sahmati. rakhail kee bhe vahee haisiyat hotee thee aur ab live in relation bhee koi alag jundgee nahee de rahaa sirf anaitiktaa ko ek alag naam diyagaya hai.

    @ Dr mahesh ji - live in ko veshyabritti se nahee vyabhichaar se jode to kaafee nazdeek kee bat hogee. veshyaabritti ke liye upbhog kar shulk chukana padtaa hai shayad. jyada pataa nahe hai

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