शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

रविवार को दिल्ली की अदालतें निपटाएंगी तीस हज़ार मुकदमे



पिछले कुछ समय से अदालतें अपना बोझ कम करने के लिए कई महात्वाकांक्षी योजनाओं पर काम कर रही हैं । एक बडी योजना के क्रियान्वयन के तहत पूरे देश भर की अदालतों में मेगा लोक अदालत के नाम से लगाई जाने वाली अदालतों का आयोजन किया जा रहा है । उसी योजना के तहत दिल्ली की अधीनस्थ न्यायालयों में इस रविवार यानि चौबीस अक्तूबर को मेगा लोक अदालत का आयोजन किया जा रहा है , जिसमें अब तक की जानकारी के अनुसार लगभग दो सौ न्यायाधीश .....कुल तीस हज़ार से अधिक मुकदमों का निपटारा करेंगे । इनमें , मोटर वाहन दुर्घटना क्लेम , १३८ के चैक बाऊंसिग के मुकदमे, पारिवारिक मुकदमे , चालान , दीवानी अपील आदि जैसे मुकदमों की सुनवाई होगी ।

पिछले एक माह से इस मेगा लोक अदालत को सफ़ल बनाने के लिए , न सिर्फ़ पूरी न्यायिक मशीनरी , न्यायिक अधिकारीगण , सभी कर्मचारीगण , पुलिस , प्रशासन , सभी संबंधित निकाय युद्ध स्तर पर लगे हुए हैं । यहां तक की बीच में पडने वाले अवकाशों को भी अनाधिकारिक रूप से रद्द करके मेगा लोक अदालत के कार्य के लिए प्रयास किए जा रहे हैं । सूचना के अनुसार दिसंबर मध्य में ऐसी ही मेगा लोक अदालत छत्तीसगढ में लगाए जाने की योजना है और राजस्थान में भी । धीरे धीरे सभी राज्य अपने यहां इस तरह की अदालतों को लगाने का निर्देश दिया गया । यदि योजना मनोनुकूल रूप से चलती रही तो आगामी मार्च तक देश भर की अदालतों से कम से कम दस बारह लाख मुकदमों के समाप्त होने की संभावना दिखाई दे रही है । फ़िलहाल तो इसे एक प्रयोग की तरह आजमाया जा रहा है , और यदि ये सफ़ल रहता है तो फ़िर ऐसे प्रयासों को नियमित किया जाएगा । अदालत द्वारा की जा रही ऐसी पहल का नि:संदेह स्वागत किया जाना चाहिए ।

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

रेयरेस्ट ऑफ़ द रेयर .....मृत्युदंड बनाम आजीवन कारावास ......प्रियदर्शनी मट्टू हत्याकांड फ़ैसले के परिप्रेक्ष्य में .... अजय कुमार झा


अभी हाल ही में दो बडे अदालती फ़ैसलों ने आम लोगों का ध्यान फ़िर से अपनी ओर आकृष्ट किया ...या कहा जाए कि उन्हें इस कदर उद्वेलित किया कि वे खुल कर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं ..। जैसा कि स्वाभाविक है कि दोनों में ही अदालती फ़ैसले को अलग अलग मापदंडों , मानवीय भावनाओं , न्यायालीय संवेदनाओं और जाने कैसी कैसी कसौटी पर कसा जा रहा है । अयोध्या विवाद के फ़ैसले के अपने इतर तर्क हैं और इतर प्रभाव भी ....और सबसे बडी बात तो ये है कि अभी सर्वोच्च अपील का अधिकार भी बचा हुआ है दोनों की पक्षों के पास ...और फ़िर चूंकि मामला धर्म और आस्था से जुडा हुआ है इसलिए उस फ़ैसले पर प्रतिक्रिया भी उसी अनुरूप आ रही हैं । हां जहां तक दूसर बडे फ़ैसले की बात है तो ...यदि सीधे सीधे सपाट तौर पर देखा जाए तो आम जन को जितना अधिक गुस्सा इस बात पर है कि अदालत ने प्रियदर्शनी मट्टू हत्याकांड के मुजरिम ..संतोष सिंह की ..फ़ांसी देकर मौत देने की सजा को कम करके ..उम्र कैद में बदल दिया ..उससे अधिक गुस्सा इस बात को लेकर है कि आखिर किन वजहों से अदालत ने इस मुकदमे को .."..दुर्लभतम में से दुर्लभ " की श्रेणी में क्यों नहीं रखा ???आम आदमी आज यही सवाल उठा रहा है कि ...जब कुछ वर्ष पहले ..सभवत: २००४ में ऐसे ही एक लिफ़्ट चलाने वाले ..अपराधी को बलात्कार के बाद हत्या के दोष में फ़ांसी की सजा दी गई थी ..तो इस मुकदमें में क्या संतोष सिंह को सिर्फ़ इस वजह से ..लाभ मिला है क्योंकि वो एक रसूखदार व्यक्ति (अब दिवंगत )का पुत्र है ...आखिर वो कौन से मापदंड हैं जिन्हें अपना कर अदालतें ये तय करती हैं कि अमुक मुकदमा ..दुर्लभतम में से दुर्लभ की श्रेणी में आता ..या नहीं आता है ।

कोई भी विमर्श करने से पहले दो बातें स्पष्ट कर देनी चाहिए .....। इस फ़ैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए ..बहुत से व्यक्तियों ने एक ही बात बार बार उठाई कि ..आजीवन कारावास का मतलब तो ये हुआ कि ..चौदह वर्षों की कारावास ....और उसके बाद ..या ऐसे ही कुछ वर्षों के बाद ..जेल से रिहाई ....तो यहां ये स्पष्ट कर दिया जाए कि ..अभी पिछले ही वर्ष दिए गए अपने एक फ़ैसले में माननीय सर्वोच्च अदालत ने ..एक अपील की सुनवाई करते हुए .पूरी तरह से आजीवन कारावास को परिभाषित किया और बताया कि आजीवन कारावास का मतलब ..आजीवन कारावास ही होता है ....आजीवन यानि जीवन पर्यंत ..यानि कि जब तक मुजरिम जीवित है तब तक ....। दूसरी बात ये कि सर्वोच्च अदालत जब भी मौत की सजा वाली अपील पर सुनवाई करती है तो स्वाभाविक नियमानुसार ..इससे पहले ऐसे मामलों की सुनवाई और उनमें सुनाए गए फ़ैसलों मे स्थापित किए गए आदर्शों और मापदंडों को सामने रख कर जरूर परखती है ...और उसके अनुसार ही ..फ़ांसी की सजा देने के लिए .."दुर्लभतम में से भी दुर्लभ " माने गए मुकदमे को साबित करना होता है । हालांकि इसके लिए भारतीय कानून में कहीं कोई निश्चित नियम या उपबंध नहीं है और अदालत इसे स्वयं बहुत से आधारों पर परखती है ।एक अघोषित नियम ये होता है कि जब अदालत को ये महसूस कि मुजरिम को फ़ांसी या मौत से कम कोई भी सजा सुनाने से नाइंसाफ़ी की झलक दिखाई दे तो और सिर्फ़ तभी मौत की सजा सुनाई जानी चाहिए । आईये देखते हैं कि इस बिंदु पर अदालतें क्या कैसे सोचती हैं ..

अभी हाल ही १६.०९. २०१० को सुंदर सिंह बनाम उत्तरांचल सरकार मुकदमें में ऐसे ही एक फ़ांसी की अपील पर सुनवाई करते हुए न सिर्फ़ अदालत ने बहुत सी बातों पर रोशनी डाली बल्कि इसी के साथ ही मुजरिम की फ़ांसी की सजा को भी बरकरार रखा । अभियोजन पक्ष के अनुसार इस मुकदमे में , सुंदर सिंह नामक व्यक्ति ने पांच लोगों को एक घर में पेट्रोल छिडक कर आग लगा दी और बाहर से घर का दरवाजा बंद करके उन्हें जिंदा भून डाला इतना ही नहीं जब उनमें से एक व्यक्ति ने बाहर निकलने की कोशिश की तो उसने उसे दरवाजे के बाहर आते ही अपनी कुल्हाडी से काट कर मार डाला । अदालत ने इस मुकदमे के फ़ैसले पर पहुंचने से पहले इन बातों को सामने रखा । अदालत ने इसे क्रूरतम हत्या मानते हुए इसे" दुर्लभतम में से भी दुर्लभ " मानते हुए सुंदर सिंह की फ़ांसी की सजा को बहाल रखा ।अदालत ने "दुर्लभतम में से भी दुर्लभ "मुकदमों का उदाहरण देते हुए कहा कि , सर्वप्रथम ये मौत की सजा के लिए किसी मापदंड तय करने की बात ..मच्छी सिंह बनाम पंजाब सरकार , वाले मुकदमें में हुई थी । इस मुकदमे का फ़ैसला करते हुए अदालत ने कुछ बिंदु तय किए थे , जिन्हें अधिकतम सजा (मौत ) दिए जाने से पहले न्यायाधीश को परखना चाहिए । जब हत्या निहायत ही क्रूरतम तरीके से , छिप कर , बदला लेने के लिए ,और सिर्फ़ इस वजह से की गई हो कि समाज में उससे घृणा और द्वेष फ़ैल जाए तो वो अपराधी मौत की सजा का हकदार है । जब कोई हत्या नृशंस तरीके से , नीच और शैतानी उद्देश्य के लिए की गई हो । जब किसी निम्न जाति के किसी व्यक्ति की हत्या आपसी रंजिश के लिए न करके सिर्फ़ इस उद्देश्य से की गई हो कि उससे समाज में अशांति और द्वेष फ़ैल जाए तो ,जब अपराध बहुत ही वृहत हो बहुत ही भयानक हो ।अदालत ने कुछ इसी तरह के मापदंड , सुशील मुर्मू बनाम झारखंड राज्य , मामले में भी तय किए थे ।

इस उपरोक्त मुकदमे का फ़ैसला करते समय अदालत ने , धनंजय चटर्जी बनाम पश्चिम बंगाल सरकार, [1994 (2) SCC 220] और राजीव उर्फ़ रामचंद्र बनाम राजस्थान सरकार [1996 (2) SCC 175] का उदाहरण लेते हुए कहा कि , ये दोनों ही मामले दुर्लभतम में से भी दुर्लभ की श्रेणी में आते हैं । पहले में उस युवक ने , पहले तो १४ वर्ष की बच्ची को मार कर घायल कर दिया और फ़िर जब वो दम तोड रही थी तो उसके साथ बलात्कार किया ।दूसरे में मुजरिम ने , अपने तीन मासूम बच्चों और अपनी पत्नी जो कि कुछ ही समय के बाद मां बनने वाली थी की क्रूर हत्या कर दी थी । एक दिलचस्प मुकदमे का उदाहरण उत्तर प्रदेश सरकार बनाम धर्मेंद्र सिंह . [1999 (8) SCC 325], , जिसमें फ़ैसला दिया गया था कि , मुजरिम को फ़ांसी की सजा मिलने में हुई तीन वर्ष की देरी के कारण उसकी मौत की सजा को कम नहीं किया जा सकता और भविष्य में भी ये सजा कम करने के लिए कोई आधार नहीं हो सकता है , त्रिवेणी बेन बनाम गुजरात सरकार ,[1988 (4) SCC 574], ।

अब पहले बात ये कि आम लोग जैसा कि समझ समझा रहे हैं कि आखिर धनंजय चटर्जी और इस मुकदमें में आखिर वो कौन सा फ़र्क था जो कि अदालत ने संतोष सिंह की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया । अदालत ने अपराध की क्रूरता पर कहीं भी ऊंगली नहीं उठाई है न ही इस बात की तुलना की गई है कहीं भी कि , धनजंय चटर्जी वाले मुकदमे की तुलना में प्रियदर्शनी मट्टू हत्याकांड कम क्रूर था जबकि हकीकत यही है कि वो अधिक क्रूर थी । हां अदालत ने संतोष सिंह की ,सजा को कम करने के पीछे जो तर्क रखे वे कुछ इस तरह से हैं । जब निचली अदालत ने उसे बरी किया था तब वो पच्चीस वर्ष का युबक था , और उसके रिहा होने के बाद , उसने विवाह किया और आज वो एक होने वाले बच्चे का पिता बनने जा रहा है , तब से लेकर अब तक स्थितियां बहुत भिन्न हो चुकी हैं । अदालत ने उदाहरण स्वरूप राजीव गांधी हत्याकांड की मुख्य अभियुक्त और फ़ांसी की सजा मिल चुकी नलिनी की सजा को उम्र कैद में बदले जाने को भी उदाहरण में लेते हुए बताया कि , उस मुकदमे में , भी ये साबित हुआ है कि शिवरासन और ग्रुप ने एक औरत का फ़ायदा उठाते हुए पति द्वारा पत्नी पर बनाए गए दबाव को आधार बना कर नलिनी को इसके लिए फ़ंसा दिया था और अब जबकि उसकी कोख में एक नन्हीं सी जान पल रही है तो ऐसे में उसे मौत की सजा दे देना कहीं से भी ठीक नहीं होगा ।

उपरोक्त बहस का तात्पर्य यदि ये निकाला जाए कि , किसी भी मुकदमे को " दुर्लभतम में भी दुर्लभ " की श्रेणी में देखना और दिखाना ..हर मुकदमे के साथ और अदालत को उसे देखने पर ही निर्भर करता है ,...तो गलत नहीं होगा । किंतु ये भी नहीं भूलना चाहिए कि अदालतें अपने हर मुकदमे को कानून की कसौटी पर ही घिस कर उसके धार को परखती है । अभी भविष्य में ऐसे बहुत से मौके आएंगे जहां न सिर्फ़ अदालतों को फ़ैसले पर पहुंचने के बहुत ही मशक्क्त करनी होगी बल्कि उससे अधिक इस बात का ख्याल भी रखना होगा कि उसके फ़ैसले , उसके तर्क और सबसे बढ कर उसके नज़रिए से ...आम जनता भी इत्तेफ़ाक रखे । हालांकि ..बलात्कार जैसे घृणित अपराध के लिए तो ,...मौत से भी बदतर यदि कोई सजा हो तो वो ही मुकर्रर्र की जानी चाहिए ।